Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ जियसत्तुस्स विरोध-पदं १८. तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी--मा णं तुम देवाणुप्पिया! अप्पाणं च परं च तदुभयं च बहूणि य असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेण य वुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे विहराहि॥
बारहवां अध्ययन : सूत्र १८-१९ जितशत्रु का विरोध-पद १८. राजा जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम
इस प्रकार असद्भूत तत्त्व की उद्भावनाओं और मिथ्या-अभिनिवेश से स्व' को 'पर' को तथा 'स्व-पर' दोनों को आग्रही और भ्रान्त' मत बनाओ।
सुबुद्धिणा जलसोधण-पदं १९. तए णं सुबुद्धिस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--अहो णं जियसत्तू राया संते तच्चे तहिए अवितहे सब्भूए जिणपण्णत्ते भावे नो उवलभइ। तं सेयं खलु मम जियसत्तुस्स रण्णो संताणं तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं सब्भूयाणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणट्ठयाए एयमटुं उवाइणावेत्तए-- एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता पच्चइएहिं पुरिसेहिं सद्धिं अंतरावणाओ नवए घडए य पडए य गेण्हइ, गेण्हित्ता संझाकालसमयंसि विरलमणूसंसि निसंत-पडिनिसंतसि जेणेव फरिहोदए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं फरिहोदगं गेण्हावेइ, गेण्हावित्ता नवएसु पडएसु गालावेइ, गालावेत्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता सज्जखारं पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता लंछियमुद्दिए कारावेइ, काराकेता सत्तरत्तं परिवसावेइ, परिवसाक्ता दोच्चंपि नवएसु पडएसु गालावेइ, गालावेत्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता सज्जखारं पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता लंछिय-मुद्दिए कारावेइ, कारावेत्ता सत्तरतं परिवसावेइ, परिवसावेत्ता तच्चपि नवएस पडएस गालावेइ, गालावेत्ता नवएस घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता सज्जरवारं पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता लंछिय-मुद्दिए कारावेइ, कारावेत्ता सत्तरतं संवसावेइ । एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा गालावेमाणे अंतरा पक्खिवावेमाणे अंतरा य संवसावेमाणे सत्तसत्त य राइंदियाई परिवसावेइ । तएणं से फरिहोदए सत्तमंसि सत्तयसि परिणममाणसि उदगरयणे जाए यावि होत्था--अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फालियवण्णाभे वण्णेणं उववेए गंधेणं उववेए रसेणं उववेए फासेणं उववेए आसायणिज्जे विसायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे बिहणिज्जे सव्विंदियगाय-पल्हाय-णिज्जे॥
सुबुद्धि द्वारा जल शोधन-पद १९. सुबुद्धि के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित
मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--अहो! राजा जितशत्रु सत्, तत्त्व, तथ्य, अवितथ, सद्भूत जिनप्रज्ञप्त भावों को उपलब्ध नहीं हो रहा है। अत: मेरे लिए उचित है, मैं राजा जितशत्रु को सत्, तत्त्व, तथ्य, अवितथ, सद्भुत जिन-प्रज्ञप्त भावों की अवगति के लिए, उसे वस्तुओं के इस परिणमन-धर्म को समझाऊं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर अपने विश्वास-पात्र पुरुषों के साथ मार्गवर्ती दुकान से नए घड़े और नये कपड़े लिए। उन्हें लेकर संध्या काल के समय जब मनुष्यों का गमनागमन कम हो गया और बाहर गये हुए व्यक्ति अपने घरों में लौट आए तब वह जहां परिखा का जल था वहां आया। वहां आकर परिखा के जल को पात्र में भरवाया। भरवाकर नये कपड़ों (गलनों) से छनवाया। छनवाकर नये घड़ों में प्रक्षिप्त करवाया। करवाकर उसमें साजी का क्षार प्रक्षिप्त करवाया। प्रक्षिप्त करवाकर घड़ों को लाञ्छित-मुद्रित करवाया। मुद्रित करवाकर सात रात तक उस जल को परिवासित करवाया। परिवासित करवाकर उसे दूसरी बार भी नये कपड़ों से छनवाया। छनवाकर नए घड़ों में प्रक्षिप्त करवाया। प्रक्षिप्त करवाकर उसमें साजी का क्षार प्रक्षिप्त करवाया। करवाकर घड़ों को लाञ्छित-मुद्रित करवाया। करवाकर सात रात तक उस जल को परिवासित करवाया। परिवासित करवाकर उसे तीसरी बार भी नये कपड़ों से छनवाया। छनवाकर नये घड़ों में प्रक्षिप्त करवाया। करवाकर उसमें साजी का क्षार प्रक्षिप्त करवाया। करवाकर घड़ों को लाञ्छित-मुद्रित करवाया। करवाकर सात रात तक उस जल को परिवासित करवाया। ____ क्रमश: इस उपाय से वह बीच -बीच में (नितरे हुए) पानी को छनवाता हुआ, दूसरे घड़ों में प्रक्षिप्त करवाता हुआ, साजी का क्षार प्रक्षिप्त करवाता हुआ और सम्यक् वासित करवाता हुआ सात सप्ताह तक उसे परिवासित करवाता रहा। इस प्रकार वह परिखा का जल परिणमित होते-होते सातवें सप्ताह में उदक-रत्न बन गया।
वह निर्मल पथ्य (आरोग्य वर्द्धक) जात्य (उत्तम गुणों से युक्त) हल्का (सुपाच्य) और वर्ण से स्फटिक जैसी आभा वाला हो गया। वह वर्ण से उपेत, गंध से उपेत, रस से उपेत और स्पर्श से उपेत हो गया। वह स्वाद लेने-योग्य, विशेष स्वाद लेने योग्य, धातु साम्य करने वाला, अग्नि-दीपन करने वाला, बल बढ़ाने वाला, वीर्य बढ़ाने वाला, मांस को पुष्ट करने वाला तथा सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला बन गया।
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