Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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एक्कारसमं अज्झयणं ग्यारहवां अध्ययन
दावद्दवे : दावद्रव
उवखेव पदं
१. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, एक्कारसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पणते?
देसविराहय-पदं
२. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गोयमो एवं क्यासी कहणणं भंते! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति ?
गोयमा! से जहानामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नामं रुक्खा पण्णत्ता -- किण्हा जाव निउरंबभूया पत्तिया पुम्फिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणाउवसोभेमाणा चिट्ठति ।
जया णं दीविच्चगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुफिया फलिया हरियग रेरिज्जमाणा सिरोए अईव उवसोभेमाणाउसोभेमाणा चिट्ठति । अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा परिसाहिय पंडुपत्त- पुष्फ-फला सुक्कस्क्लओ विव मिलायमाणामिलायमाणा चिट्ठति । ।
३. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आपरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भविता अगाराओ अणगारिय पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण व सम्मं सहद्द स्वमइ तितिक्खड़ अहियासेड हू उत्थिया बहूणं गिहत्थाणं नो सम्मं सहइ जाव नो अहियासेइ एस णं मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते ।।
देसाराहय-पदं
४. समणाउसो जया गं सामुदगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा परिसडिय पंडुपत्त- पुप्फ-फला सुक्करुक्खओ विव मिलायमाणामिलायमाणा चिट्ठति । अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुप्फिया
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उत्क्षेप-पद
१. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के दसवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते ! उन्होंने ज्ञाता के ग्यारहवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है।
देश विराधक पद
२. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह नगर में गौतम ने इस प्रकार कहा--भन्ते! जीव आराधक अथवा विराधकर कैसे होते हैं?
1
गौतम! जैसे एक समुद्र तट पर 'दावद्रव' नाम के वृक्ष होते हैं । वे कृष्ण यावत् सघन मेघ पटली के समान पल्लवित पुष्पित, फलित, हरीतिमा से अतिशय आकर्षक और पत्र, पुष्पादि की श्री से अतीव उपशोभित, अतीव उपशोभित होते हैं।
जब द्वीप से उत्पन्न होने वाली कुछ पूर्वी हवाएं चलती हैं, पश्चिमी हवाएं चलती हैं, मन्द हवाएं चलती हैं और महावात' उठते है तब बहुत से दावद्रव वृक्ष पल्लवित पुष्मित, पलित, हरीतिमा से आकर्षक और पत्र - पुष्पादि की श्री से अतीव उपशोभित, अतीव उपशोभित होते हैं।
कुछ दावद्रव वृक्ष, जो जीर्ण हैं, टूठ हैं, जिनके पत्ते, फूल और फल गिर चुके हैं, पीले पड़ गये हैं, सूखे वृक्षों की भांति ग्लान हो जाते हैं।
३. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो भी निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रति होकर बहुत श्रमणों, बहुत श्रमगियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं
सम्यक् सहन करता है, उन्हें सहने में समर्थ होता है, तितिक्षा रखता है और अविचल रहता है तथा बहुत अन्यतीर्थिकों और गृहस्थों को सम्यक् सहन नहीं करता यावत् अविचल नहीं रहता-- ऐसे पुरुष को मैंने देशविराधक कहा है।
देश आराधक - पद
४. आयुष्मन् श्रमणो! जब समुद्र से उठने वाली कुछ पूर्वी हवाएं चलती हैं, पश्चिमी हवाएं चलती हैं, मन्द हवाएं चलती हैं, महावात उठते हैं, तब बहुत से दावद्रव वृक्ष जो जीर्ण हैं, ठूंठ है, जिनके पत्ते, फूल और फल गिर चुके हैं या पीले पड़ गये हैं वे सूखे वृक्षों की भाति ग्लान
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