Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उक्लेव पदं
१. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं एक्कारसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, बारसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्टे पण्णत्ते ?
बारसमं अज्झयणं बारहवां अध्ययन
उदगणाए : उदकज्ञात
२. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी । पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तू राया । धारिणी देवी । अदीणसत्तू कुमारे जुवराया वि होत्या । सुबुद्धि अमच्चे जाव रज्जघुराचिंतए, समणोवासए ||
फरिहोदग-पदं
३. तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमेणं एगे फरिहोदए यावि होत्या मे सादहिर मंस-पू पडत पोच्चडे मयगकलेवर संछष्णे अमणुण्णे वण्णेणं अमगुण्णे गंधेणं अमणुष्णे रसे अणुणे फासेणं, से जहानामए--अहिमडे इ वा गोमडे इ वा जाव मय कुहिय विणट्ठ किमिण वावण्ण दुरभिगंधे - किमिजालाउले संसत्ते असुइ विगय बीमच्छ दरिसणिज्जे । भवेयारूये सिया?
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नो इणट्ठे समट्ठे । एत्तो अणिट्ठतराए चेव अकंततराए चेव अप्पियतराए चैव अमगुण्णतराए चैव अमणामतराए चैव गंधेणं पण्णत्ते ॥
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जियसत्तुणा पाणभोयणपसंसा-पदं
४. तए णं से जियसत्तू राया अण्णया कयाइ ण्हाए कयबलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे बहूहिं ईसर जाव सत्यवाहपसिद्धिं भोयणमंडवस भोषणकेलाए सुहासणवरगए विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे एवं च णं विहरइ । जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयते चोक्ले परमसुइभूए तंसि विपुलसि असणपाण- खाइम - साइमंसि जायविम्हए ते बहवे ईसर जाव सत्यवाहपभिइओ एवं क्यासी- अहो णं देवाणुपिया! इमे मणुण्णे असण- पाण- खाइम - साइमे वण्णेणं उववेए गघेणं उववेए रसेणं उबवेए फासेणं उबवे अस्सावणिज्जे विसावणिज्जे 'पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे बिंहणिज्जे सव्विंदियगायपल्हायणिज्जे ।।
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उत्क्षेप-पद
१. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के ग्यारहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते ! उन्होंने ज्ञाता के बारहवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है?
२. जम्बू ! उस काल और उस समय चम्पा नाम की नगरी थी । पूर्णभद्र चैत्य था । जितशत्रु राजा था। धारिणी रानी थी । अदीनशत्रु कुमार युवराज था। सुबुद्धि मंत्री था यावत् वह राज्य धुरा की चिन्ता करने वाला और श्रमणोपासक था ।
परिखोदक (खाई का पानी) पद
३. उस चम्पा नगरी के बाहर ईशानकोण में एक खाई में जल भरा हुआ था। वह मेद, वसा, रुधिर, मांस और पीव-पटल जैसा सड़ा हुआ, मृत कलेवरों से संच्छन, वर्ण से अमनोश, गन्ध से अमनोज, रस से अमनोश और स्पर्श से अमनोज था जैसे कोई सांप का मृत कलेवर यावत् गो का मृत कलेवर कुथित, विनष्ट, कृमिल, व्यापन्न, दुर्गन्ध पूर्ण, कृमिसमूह से आकीर्ण एवं संसक्त अशुचि, विकृत और देखने में बीभत्स होता है, क्या वह जल भी ऐसा ही है?
यह अर्थ समर्थ नहीं है। वह इससे भी अनिष्टतर, अकमनीयतर, अप्रियतर, अमनोज्ञतर और अमनोगततर गन्ध वाला प्रज्ञप्त है।
जितशत्रु द्वारा पान भोजन की प्रशंसा-पद
४. किसी समय जितशत्रु राजा ने स्नान, बलिकर्म यावत् अल्पभार और महामूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। वह बहुत-से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के साथ भोजन - मण्डप में भोजन की बेला में प्रवर सुखासन में बैठ विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करता हुआ, विशेष स्वाद लेता हुआ, बांटता हुआ और खाता हुआ विहार करने लगा। भोजनोपरान्त आचमन कर, साफ सुथरा और परम पवित्र होकर, उस विपुल, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से विस्मित होकर वह उन बहुत से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से इस प्रकार बोला- अहो देवानुप्रियो! यह मनोज्ञ अशान, पान, खाद्य और स्वाद्य वर्ण से उपेत, गन्ध से उपेत, रस से उपेत, स्पर्श से उपेत, स्वाद लेने योग्य, विशेष स्वाद लेने योग्य, धातु साम्य करने वाला, अग्नि-दीपन करने वाला, पुष्टिकारक, वीर्य को बढ़ाने वाला, धातुओं को उपचित करने वाला तथा सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला है।
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