Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
२४७ फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा- उवसोभेमाणा चिट्ठति।
ग्यारहवां अध्ययन : सूत्र ४-९ हो जाते हैं।
कुछ दावद्रव वृक्ष पल्लवित, पुष्पित, फलित, हरीतिमा से आकर्षक और पत्र, पुष्पादि की श्री से अतीव उपशोभित, अतीव उपशोभित रहते हैं।
५. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा
आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ, बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य नो सम्मं सहइ जाव नो अहियासेइ--एस णं मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते।।
५. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी
आचार्य उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होकर बहुत से अन्यतीर्थिकों और बहुत से गृहस्थों को सम्यक् सहन करता है, सहने में समर्थ होता है, तितिक्षा रखता है और अविचल रहता है। बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं को सम्यक् सहन नहीं करता यावत् अविचल नहीं रहता--ऐसे पुरुष को मैंने देश आराधक कहा है।
सव्वविराहय-पदं ६. समणाउसो! जया णं नो दीविच्चगा नो सामुद्दगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा परिसडिय-पंडूपत्त-पुप्फ-फला सुक्करुक्खओ विव मिलायमाणा-मिलायमाणा चिट्ठति । अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुफिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठति ।।
सर्व विराधक-पद ६. आयुष्मन् श्रमणो! जब द्वीप से उठने वाली और समुद्र से उठने वाली
न कोई पूर्वी हवाएं चलती हैं, न पश्चिमी हवाएं चलती हैं, न मन्द हवाएं चलती हैं, न महावात उठते हैं तब सब दावद्रव वृक्ष जो जीर्ण हैं, ठूठ हैं, जिनके पत्ते, फूल और फल गिर चुके हैं, पीले पड़ गये हैं वे सूखे वृक्षों की भांति ग्लान हो जाते हैं।
कुछ दावद्रव वृक्ष जो पल्लवित, पुष्पित, फलित, हरीतिमा से आकर्षक और पत्र, पुष्पादि की श्री से अतीव उपशोभित, अतीव उपशोभित रहते हैं।
७. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-
उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं नो सम्म सहइ जाव नो अहियासेइ--एस णं मए पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते॥
७. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो भी निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी
आचार्य उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होकर बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों, बहुत श्राविकाओं तथा बहुत अन्यतीर्थिकों और बहुत गृहस्थों को सम्यक् सहन नहीं करता यावत् अविचल नहीं रहता--ऐसे पुरुष को मैंने सर्व विराधक कहा है।
सव्वाराहय-पदं ८. समणाउसो! जया णं दीविच्चगा वि सामुद्दगा वि ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुष्फिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठति ॥
सर्व आराधक-पद ८. आयुष्मन् श्रमणो! जब द्वीप से उठने वाली एवं समुद्र से उठने वाली
दोनों ही प्रकार की कुछ पूर्वी हवाएं चलती हैं, पश्चिमी हवाएं चलती हैं, मन्द हवाएं चलती हैं तथा महावात उठते हैं, तब सभी दावद्रव वृक्ष, पल्लवित, पुष्पित, फलित, हरीतिमा से आकर्षक तथा पत्र, पुष्पादि की श्री से अतीव उपशोभित, अतीव उपशोभित रहते हैं।
९. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा
आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्म
९. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी
आचार्य उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होकर बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों, बहुत श्राविकाओं तथा बहुत अन्यतीर्थिकों और बहुत गृहस्थों को सम्यक् सहन करता
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