Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
नवम अध्ययन : सूत्र ५०-५४
२३८ संमुच्छणं च पोयवहण-विवत्तिं च फलहखंड-आसायणं च रयणदीकुत्तारं च रयणदीवदेवया-गिण्हणं च भोगविभूइंच रयणदी- वदेवया-आघयणं च सूलाइयपुरिसदरिसणं च सेलगजक्खआरुहण च रयणदीवदेवया-उवसग्गं च जिणरक्खियवावत्तिं च लवणसमुद्दउत्तरणं च चंपागमणं च सेलगजक्खआपुच्छणं च जहाभूयमवितहमसंदिद्धं परिकहेइ।।
नायाधम्मकहाओ का डूबना, फलक खण्ड की प्राप्ति, रत्नद्वीप पर उतरना, रत्नद्वीपदेवी द्वारा ग्रहण (उसकी) भोग-विभूति, रत्नद्वीपदेवी का वध-स्थान शूली पर चढ़े पुरुष का दर्शन, (अश्व-रूपधारी) शैलकयक्ष पर आरोहण, रत्नद्वीपदेवी का उपसर्ग, जिनरक्षित की मौत, लवणसमुद्र को पार करना, चम्पा पहुंचना और शैलक यक्ष द्वारा पूछना--ये सारी बातें यथाभूत अवितथ और असंदिग्ध रूप से माता-पिता को सुना दी।
५१. तए णं से जिणपालिए अप्पसोग (जाए?) जाव' विपुलाई
भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ।।
५१. जिनपालित शोक-मुक्त हुआ यावत् वह विपुल भोगार्ह भोगों को भोगता
हुआ विहार करने लगा।
५२. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे। जिणपालिए धम्म सोच्चा पव्वइए। एगारसंगवी। मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेता, सर्टि भत्ताई अणसणाए छेएत्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववण्णे। दो सागरोवमाई ठिई। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ।।
५२. उस काल और उस समय 'श्रमण भगवान महावीर' समवसृत हुए।
धर्म सुनकर जिनपालित प्रव्रजित हुआ। ग्यारह अंगों का ज्ञाता बना। मासिक संलेखना में स्वयं का समर्पण और अनशन-काल में साठ भक्तों का परित्याग कर, मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर वह सौधर्म कल्प में देवरूप में उपपन्न हुआ। उसकी स्थिति दो सागरोपम है। वह महाविदेह वर्ष में सिद्ध होगा यावत् सब दु:खों का अन्त करेगा।
५३. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा
आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे माणुस्सए कामभोगे नो पुणरवि आसयइ पत्थयइ पीहेइ, सेणं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जेजाव चाउरतं संसारकतारं वीईवइस्सइ-जहा व से जिणपालिए।
५३. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो भी निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी
आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होकर पुनरपि मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों का आश्रय नहीं लेता। उनकी प्रार्थना और स्पृहा नहीं करता, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय होता है, यावत् वह चार अन्त वाले संसार-रूपी कान्तार का पार पा लेगा। जैसे--जिनपालित।
निक्खेव-पदं ५४. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं
जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं नवमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते।
--त्ति बेमि।
निक्षेप-पद५४. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता, तीर्थकर यावत् सिद्धिगति नामक
स्थान को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के नौंवे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है।
--ऐसा मैं कहता हूँ।
वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा
जह रयणदीवदेवी, तह एत्थं अविरई महापावा। जह लाहत्थी वणिया, तह सुहकामा इहं जीवा।।।
वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा१. जैसे रत्नद्वीपदेवी है, वैसे यहां (अध्यात्म प्रसंग में) महान पाप की
हेतुभूत अविरति है। जैसे लाभार्थी वणिक् है वैसे यहां सुखार्थी जीव है।
जह तेहिं भीएहिं, दिट्ठो आघायमंडले पुरिसो। संसारदुक्खभीया, पासंति तहेव धम्मकहं ।।२।।
जह तेण तेसि कहिया, देवी दुक्खाण कारणं घोरं। तत्तो चिय नित्थारो, सेलगजक्खाउ नन्नत्तो।।३।।
२. जैसे उन भयभीत व्यापारियों ने वध-स्थान में एक पुरुष को देखा, वैसे ___ ही संसार के दुःखों से भीत प्राणी धर्मकथी को देखते हैं। ३. जैसे उस पुरुष ने उन व्यापारियों से कहा--देवी घोर दुःखों का कारण
है और उसके हाथों से शैलकयक्ष द्वारा ही निस्तार हो सकता है, दूसरे से नहीं।
Jain Education Intemational
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org