Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नवमं अज्झयणं : नवां अध्ययन
मायंदी : माकन्दी
उक्खेव पदं
१. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, नवमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ?
२. एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी। पुण्णभद्दे चेइए ।
३. तत्थ णं मायंदी नाम सत्थवाहे परिवसइ - अड्ढे । तस्स णं भद्दा नाम भारिया । तीसे णं भद्दाए अत्तया दुवे सत्थवाहदारया होत्या, तं जहा जिणपालिए य जिणरक्खिए य ।।
मागंदिय-दारगाणं समुद्द-जत्ता-पदं
४. तए णं तेसिं मार्गदिप दारगाणं अण्णया कंयाइ एगयज सहियाणं इमेवारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्यज्जित्था एवं सतु अम्हे लवणसमुदं पोपवहणेणं एक्कारसवाराओ ओगाटा । सव्वत्थ वि य णं लद्धट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुणरवि नियघरं हव्वमागया । तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! दुवालसंपि लवणसमुद्द पोयवहणेणं ओगाहित्तए ति कट्टु अग्णमण्णस्स एपमहं परिसुति पढिसुणेत्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छति, उपागच्छता एवं वयासी--एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! लवणसमुद्दे पोयवहणेणं एक्कारसवाराओ ओगाढा । सव्वत्थ वि य णं लद्धट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुणरवि नियचरं हव्वमागया। तं इच्छामो णं अम्मयाओ! तुम्भेहिं अन्भणुण्णाया समाणा दुवालसपि लवणसमुदं पोयवहणेण ओगाहित्तए ।
५. तए णं ते मांगदिय-दारए अम्मापियरो एवं वयासी--इमे भे जाया! अजय-जय पिउपज्जयागए सुबहु हिरणे य सुवण्णे य कैसे य दूसे य मणिमोत्तिय संख - सिल प्पवाल- रत्तरयण- संतसारसावज्जेय अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दाउं पगामं भोत्तुं पगामं परिभाएउं। तं अणुहोह ताव जाया! विपुले माणुस्ताए इटीसक्कारसमुदए। किं भे सपच्चावाएणं निरालंवगेणं लवणसमुद्दोत्तारेण ? एवं खलु पुत्ता! दुवालसमी जत्ता सोवसग्गा यावि भवइ । तं मा णं तुब्भे दुवे पुत्ता! दुवालसंपि लवणसमुद्द पोयवहणेणं ओगाह मा हु तुम्भं सरीरस्स वावत्ती भविस्सइ ।।
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उत्क्षेप-पद
१. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के आठवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते ! उन्होंने ज्ञाता के नौंवे अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है?
२. जम्बू उस काल और उस समय चम्पा नाम की नगरी थी । पूर्णभद्र चैत्य था ।
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३. वहां माकन्दी नाम का सार्थवाह रहता था, वह आढ्य था । उसके भद्रा नाम की भार्या थी । उस भद्रा के आत्मज दो सार्थवाह बालक थे, जैसे -- जिन पालित और जिनरक्षित ।
माकन्दिक पुत्रों की समुद्र यात्रा - पद
४. किसी समय एकत्र सम्मिलित उन माकन्दिक पुत्रों के मध्य परस्पर यह विशिष्ट प्रकार का वार्तालाप हुआ हमने पोत बहन से ग्यारह बार लवण समुद्र का अवगाहन कर लिया। सभी जगह हमने प्रचुर मात्रा
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धन कमाया, कृतकार्य हुए और निर्विघ्न रूप से हम पुनः अपने घर लौट आए। अतः देवानुप्रियो! हमारे लिए उचित है, बारहवीं बार भी हम पोत- वहन से लवणसमुद्र का अवगाहन करें। इस प्रकार उन्होंने परस्पर इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर जहां माता-पिता थे वहां आए। वहां आकर इस प्रकार कहा- माता-पिता! हमने पोत- वहन से ग्यारह बार लवण समुद्र का अवगाहन कर लिया। सभी जगह हमने प्रचुर मात्रा में धन कमाया, वृतकार्य हुए और निर्विघ्न रूप से हम पुनः अपने घर लौट आए। अतः माता-पिता! हम चाहते हैं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर बारहवीं बार भी पोत - वहन से लवण समुद्र का अवगाहन करें ।
५. माता-पिता ने माकन्दिक - पुत्रों से इस प्रकार कहा -- पुत्रो! तुम्हारे पितामह प्रपितामह और प्रपितामह से परम्परा प्राप्त यह बहुत सारा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, दूष्य, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, रक्तरत्न तथा श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्य एवं दान भोग आदि के लिए स्वापतेय है, जो यावत् सात पीढ़ी तक प्रचुर मात्रा में दान करने, प्रचुर मात्रा में भोगने और प्रचुर मात्रा में बांटने (विभाग करने) में पर्याप्त है । अतः जात! तुम इस मनुष्य-संबंधी विपुल ऋद्धि, सत्कार और समुदय का अनुभव करो विघ्न बहुत, निरालम्बन लवण समुद्र को तैरने से तुम्हें क्या प्रयोजन है?
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