Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
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दव्वसोए उदएणं मट्टियाए य । भावसोए दब्भेहि य मंतेहि
य ।
जं णं अम्हं देवाणुप्पिया! किंचि असुई भव तं सव्वं सज्जपुढवीए आलिप्प, तओ पच्छा सुद्धेन वारिणा पक्खालिज्ज ततं असुई सुई भवइ । एवं खलु जीवा जलाभिसेय-पूयप्पाणो अविघेणं सगं गच्छति ।।
सुदंसणस्स सोयमूलय- धम्मपडिवत्ति-पदं
५६. तए णं से सुदंसणे सुपस्स अंतिए धम्मं सोच्चा हट्टतुट्ठे सुयस्स अंतियं सोयमूलयं धम्मं गेण्हइ, गेण्हित्ता परिव्वायए विउलेणं असण- पाण- खाइम - साइमेणं पडिलाभेमाणे संखसमएणं अप्पाणं भवेमाणे विहर।
५७. तए गं से सुए परिव्वायए सोगंधियाओ नयरीओ निगच्छह, निग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ।।
थावच्चापुत्तस्स सुदंसणेण संवाद-पदं
५८. तेणं कालेणं तेणं समएणं यावच्चापुत्तस्स समोसरणं । परिसा निगया।
सुंदसणो वि णीइ । थावच्चापुत्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी -- तुम्हाणं किंमूलए धम्मे पण्णत्ते ?
५९. तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणेणं एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं एवं क्यासी- सुदंसणा! विजयमूलए धम्मे पण्णते से विय विणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा अगारविणए अणगारविणए य ।
तत्थ णं जे से अगारविणए, से णं चाउज्जामिए गिहिधम्मे । तत्य णं जे से अणगारविगए, से गं चाउज्जामा, तं जहा सव्वाओ पाणाश्वायाजो वेरमणं, सब्बाओ मुसावापाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं ।
इच्चेएणं दुविहेणं विणयमूलएणं धम्मेणं आणुपुब्वेणं अट्टकम्मपगडीओ खवेत्ता लोयग्यपद्वाणा भवति ।।
६०. तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी--तुब्भण्णं सुदंसणा ! किंमूलए धम्मे पण्णत्ते ?
अम्हाणं देवाणुप्पिया! सोयमूलए धम्मे पण्णत्ते । सेविय सोए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा दव्वसोए य भावसोए य ।
दव्वसोए उदएणं मट्टियाए य । भावसोए दब्भेहि य मंतेहि
य ।
अहं देवाप्पा किंचि असुई भवइ तं सव्वं सज्जपुढवीए आलिप्यइ, तज पच्छा सुद्धेण वारिणा पक्खालिज्जइ, तओ णं
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पांचवां अध्ययन : सूत्र ५५-६० से। भाव शौच होता है डाभ से और मंत्रों से ।
देवानुप्रिय ! हमारी जो कोई वस्तु अशुचि होती है, उसे पहले ताजा मिट्टी से मलते हैं। उसके बाद शुद्ध जल से धोते हैं। ऐसा करने से वह अशुचि शुचि हो जाती है। इस प्रकार जीव जलाभिषेक से स्वयं को पवित्र कर निर्विघ्न स्वर्ग में चले जाते हैं |
सुदर्शन द्वारा शौचमूलक धर्म की प्रतिपत्ति-पद ५६. शुक के पास धर्म को सुन, हृष्ट-तुष्ट हुए सुदर्शन ने शुक के पास शौचमूलक धर्म को स्वीकार किया। स्वीकार कर परिव्राजकों को विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से प्रतिलाभित करता हुआ और सांख्य दर्शन से स्वयं को भावित करता हुआ विहार करने लगा ।
५७. शुक परिव्राजक ने सौगन्धिका नगरी से निर्गमन किया, निर्गमन कर बाहर जनपद - विहार किया।
थावच्चापुत्र का सुदर्शन के साथ संवाद-पद
५८. उस काल और उस समय थावच्चापुत्र का समवसरण हुआ। जन समूह ने निर्गमन किया।
सुदर्शन भी गया। उसने थावच्चापुत्र को वंदना की। नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोला- तुम्हारे धर्म का मूल क्या प्रज्ञप्त है ?
५९. सुदर्शन के ऐसा कहने पर घावच्यापुत्र ने इस प्रकार कहा- सुदर्शन! हमारा धर्म विनयमूलक प्रज्ञप्त है। वह विनय भी दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे--अगार विनय और अनगार विनय ।
जो अगार विनय है, वह चातुर्यामरूप गृहस्थ धर्म है। जो अनगार विनय है, वे चातुर्याम है, जैसे--सर्व प्राणतिपात से विरमण, सर्व मृषावाद से विरमण, सर्व अदत्तादान से विरमण, सर्व परिग्रह (बाह्य ग्रहण) से विरमण ।
इस द्विविध विनयमूलक धर्म के द्वारा क्रमशः आठ कर्म प्रकृतियों को क्षीण कर जीव लोकाग्र में प्रतिष्ठित - सिद्ध हो जाते हैं।
६०. थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा -- सुदर्शन ! तुम्हारे धर्म का मूल क्या प्रज्ञप्त है ?
देवानुप्रिय ! हमारे शौचमूलक धर्म प्रज्ञप्त है। वह शौच भी दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- - द्रव्यशौच और भावशौच ।
द्रव्यशौच होता है, पानी से और मिट्टी से भावशीच होता है ST से और मंत्रों से । देवानुप्रिय ! हमारी जो कोई वस्तु अशुचि होती है, उसे पहले ताजा मिट्टी से मलते हैं, उसके बाद उसे शुद्ध जल से धोते हैं, ऐसा करने से वह अशुचि से शुचि हो जाती है। इस प्रकार
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