Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकाओ
सगड़ी-सागडवं सज्जेति, सज्जेत्ता मणिमस्स घरिमस्स मेज्जस्त पारिच्छेज्जरस य भंडगल्ल सगही सामहिय भति, भरेता सोहनसि तिहि करण नक्खत्त-मुहुत्तसि विउलं असणं पाणं साइमं साइमं उवक्खडावेंति, उपपलडावेता मित्त-नाइ नियग-सयणसंबंधि-परिजणं भोएणवेलाए भुंजावेंति, भुंजावेत्ता मित्त-नाइनियग-सयण-संबंधि- परिजणं आपुच्छंति, आपुच्छित्ता सगडीसागडियं जोति, जोइता चंगाए नयरीए मजमणं निगच्छति, निग्गच्छित्ता जेणेव गंभीरए पोपपट्टणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता सगहीसागडियं मोयति, पोयवहणं सज्जेति सज्जेता गणिमस्स धरिमस्स मेज्जस्स पारिच्छेज्जस्स य भंडगस्स (पोयवहणं?) भरेति, तंदुताण य समियरस य तेल्लरस य पयस्स य गुलस् य गोरसस्स य उदगस्स य भायणाण य ओसहाण य
सज्जा य तणस्स य कट्ठस्स य आवरणाण य पहरणाण य
अण्णेसिं च बहूणं पोयवहणपाउग्गाणं दव्वाणं पोयवहणं भरेंति । सोहांसि तिहि करण नक्सत्त मुत्तसि विउलं असणं पाण साइमं उवक्खडावेति उक्खडावेता मित्त-नाइ नियम-सपणसंबंधि-परियणं भोयणवेलाए भुंजावेंति, भुंजावेत्ता मित्त-नाइनियम- सयण संबंधि परियणं आपुच्छति, जेणेव पोयद्वाणे तेणेव उवागच्छंति ।।
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६७. तए णं तेसिं अरहण्णग- पामोक्खाणं बहूणं संजत्ता - नावा वाणियगाणं मित्त-नाइ नियगसपण संबंधि परियणा ताहिं
हिं कंताहिं पियाहिं मणुष्णाहिं मणामाहिं ओरालाहिं वग्गूहिं अभिनंदता व अभिसंपुणमाणा य एवं क्यासी--अज्ज! ताय! भाय! माउल! भाइणेज्ज! भगवया समुदेणं अभिरक्खिज्जमानाअभिरक्खिज्जमाणा चिरं जीवह, भदं च भे, पुणरवि लद्धट्ठे कथकज्जे अणहसमग्गे नियमं परं हन्यमागए पासामो त्ति कट्टु ताहिं सोमाहिं निद्धाहिं दीहाहिं सप्पिवासाहिं पप्पुयाहिं दिट्ठीहिं निरिक्खमाणा मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठति । तओ समाणिएसु पुप्फबलिकम्मेसु दिन्नेसु सरसरत्त चंदन दद्दर-पंचगुलितलेसु अणुक्खित्तंसि धूवंसि, पूइएसु समुद्दवाएसु, संसारियासु वलयासु, ऊसिएस सिसु झयग्गेसु, पहुप्पवाइएसु तूरेतु जइएसु सव्वसउणेसु, गहिए रायवरसासणेसु महया उनिक-सीहनायबोल - कलकलरवेणं पक्खुभियमहासमुद्द- रवभूयं पिव मेहणिं करेमाणा एगदिसिं एगाभिमुहा अरहण्णगपा - मोक्खा संजता नावावाणियगा नावाए दुरूढा ।।
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६८. तओ पुस्समाणवो वक्कमुदाहु--हं भो! सव्वेसिमेव भे अत्यसिद्धी, उवद्वियाई कल्लागाई, पडिहवाई सव्वपावाई जुत्ता पूसो, विजओ मुहुतो अयं देसकालो ||
अष्टम अध्ययन : सूत्र ६६-६८
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किए तैयार कर गणनीय, धरणीय, मेय और परिच्छेद्य कयाणक से छोटे बड़े वाहनों को भरा । भरकर शोभन तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया । तैयार करवाकर मित्र, जाति, निजक, स्वजन संबंधी और परिजनों को भोजन के समय भोजन करवाया। भोजन करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से पूछा। पूछकर छोटे बड़े वाहन जोते। जोतकर चम्पा नगरी के ठीक बीचोंबीच से होकर निकले। निकलकर जहां गंभीरक बन्दरगाह था, वहां आए। आकर छोटे बड़े वाहनों को मुक्त किया। पोतवहन को सज्जित किया। सज्जित कर उसमें गणनीय, धरणीय, मेय और परिच्छेद्य रूप क्रमाणक को भरा। चावल, गेहूं का आटा, तेल, घी, गुड़, दूध, दही, पानी, बर्तन औषध, भेषज्य, तृणकाष्ठ, आवरण, प्रहरण तथा अन्य भी अनेक प्रकार के पोतवहन प्रायोग्य पदार्थों से जहाज को भरा पुनः शोभन तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को तैयार करवाया। तैयार करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों को भोजन के समय भोजन करवाया। भोजन करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों से पूछा और जहां पोत स्थान था, वहां आए ।
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६७. उन अर्हक प्रमुख अनेक सांयात्रिक पोतवगिकों के मित्र, जाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों ने इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज, मनोगत और उदार वाणी से उनका अभिनन्दन और गुणोत्कीर्तन करते हुए कहा - हे आर्य ! हे तात! हे भ्रात ! हे मातुल! हे भागिनेय! भगवान समुद्र के संरक्षण में तुम चिरजीवी हो तुम्हारा भद्र हो। हम तुम्हें अपना प्रयोजन सिद्ध कर, कृतार्थ हो, निष्कलंक तथा ऐश्वर्य और परिवार से सम्पन्न हो, शीघ्र अपने घर आये हुए देखें-- इस प्रकार उन सौम्य, स्नेहिल, दीर्घ, प्यासी और अश्रुपूरित आंखों से उन्हें निहारते हुए वे मुहूर्त भर तक वहीं खड़े रहे । पुष्प पूजा सम्पन्न की। पांचों अंगुलियों समेत हथेली से सरस चन्दन के छापे (हत्थक) लगाए। धूप खेया समुद्री हवाओं का पूजन किया। पतवारें उचित स्थान में नियोजित की। श्वेत पताकाओं के ध्वजाग्र ऊपर उठे । वाद्य-कला निपुण व्यक्तियों द्वारा बाजे बजाए जाने लगे विजय सूचक सभी शकुन हुए। प्रवर राज-शासन (पार-पत्र) मिल चुके तब एक दिशा एवं एक लक्ष्य के अभिमुख वे अर्हन्नक प्रमुख सांयात्रिक पोत वणिक् उत्कृष्ट सिंहनाद जनित कोलाहल पूर्ण शब्दों द्वारा प्रक्षुभित महासागर की भांति धरती को शब्दायमान करते हुए नौका पर आरूढ़ हुए ।
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६८. मंगल- पाठकों ने मंगल-वाक्य कहा- हे समुद्र यात्रियो! आप सभी के अर्थ सिद्ध हों (कामनाएं पूर्ण हों ) । कल्याण उपस्थित हों । सर्व पाप ( विघ्न) प्रतिहत हों। इस समय चन्द्र के साथ पुष्य नक्षत्र" का योग
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