Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
गयचम्म - वियय-ऊसविय - बाहुजुयलं ताहि य खर-फरुसअसिद्धि दित्त-अणिट्ट असुभ अप्पिय अनंत वग्गूहि य तज्जयंतं तं तालपिसायरूवं एज्जमाणं पासति, पासिता भीया तत्था तसिया उब्विग्गा संजायभया अण्णमण्णस्स कायं समतुरंगमाणा-समतुरंगमाणा बहूणं इंदाण व खंदाण य रुहाण य सिवाण य वेसमणाण य नागाण य भूयाण य जक्खाण य अज्ज - कोट्टकिरियाण य बहूणि उवाइयसयाणि उवाइमाणा चिट्ठति ।।
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७३. तए णं से अरहणए समणोवासए तं दिव्वं पिसायरूवं एज्जमाणं पास पातित्ता अभीए अतत्ये अचलिए असंभते अणाउले अणुब्बिगे अभिण्णमुहराम नयनवणे आदीण-विमण माणसे पोपवहणस्स एगदेसंसि वत्यंतेणं भूमिं पमज्जइ, पमज्जित्ता ठाणं ठाइ, ठाइत्ता करयल - परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं क्यासिनोत्यु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्ताणं । जइ णं हं एत्तो उवसग्गाओ मुंचामि तो मे कप्पइ पारितए, अह णं एत्तो उवसग्गाओ न मुंचामि तो मे तहा पच्चक्लाएयन्ने ति कट्टु सागारं भत्तं पच्चस्खाइ ।।
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७४. तए गं ते पिसायरूवे जेणेव अरहण्णगे समणोवासए तेणेव
उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहण्णगं एवं क्यासी-- हंभो अरहण्णगा! अपत्थियपत्थया दुरंत पंत लक्खणा! हीणपुण्ण चाउदसिया ! सिरि-डिरि चिह्न कित्ति परिवज्जिया! नो खलु कप्पद तव सील-व्यय-गुण- वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं चालितए वा खोभित्तए वा खंडित्तए वा भंजित्तए वा उज्झित्तए वा परिच्चत्त वा । तं जइ गं तुमं सील-व्यय-गुण- वेरमण
अष्टम अध्ययन : सूत्र ७२-७४ नरमुण्डमाल का चिह्न पहना हुआ था। उसका परिकर फण-रहित विचित्र सांपों से कसा हुआ था वह डोलते फुफकारते हुए सांप, बिच्छू, गोह, चूहे, नेवले, गिरगिट आदि से विरचित विचित्र प्रकार की छाती पर तिरछी लटकती हुई माला तथा फण से रौद्र और क्रोध से धमधमायमान कृष्ण भुजंगों के लटकते हुए कर्णपूर पहने हुए था। उसके कंधों पर मार्जार और गीदड़ बैठे थे उसने दृप्त और धू-धू शब्द करते हुए उल्लू को सिर का सेहरा बना रखा था। वह घंटारव से भी भीम, भयंकर तथा कायर मनुष्यों के हृदय को विदीर्ण कर देने वाला दृप्त अट्टहास कर रहा था । उसका शरीर, वसा, रधिर, पीव, मांस और मल से मलिन तथा लिप्त था । उसका विशाल वक्ष त्रासदायी था वह प्रवर व्याघ्र चर्म से निर्मित विचित्र न्यंशुक पहने हुए था, जिससे नस, मुख, नयन और कर्ण पृथक्-पृथक् दिखाई दे रहे थे। वह गीली और खून से सनी हस्ति - चर्म ओढ़े, दोनों भुजाओं को ऊपर उठाए सर परुष, स्नेह रहित दृप्त, अनिष्ट, अशुभ, अप्रिय और अकमनीय वाणी से उन यात्रियों को ललकारता हुआ उनके सामने आ रहा था। उन सब ( यात्रियों) ने उस ताड़ जैसे पिशाच रूप को देखा। उसे देखकर भीत, त्रस्त, तृषित, उद्विग्न और भयाक्रान्त होकर वे सब एक दूसरे के शरीर का आश्लेष करते हुए, बहुत से इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण, नाग, भूत, यक्ष, आर्या अथवा कोहक्रिया की नाना प्रकार से मनौतियां करने लगे।
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७३. उस अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस दिव्य पिशाचरूप को अपनी ओर आते हुए देखा देखकर अभीत, अत्रस्त, अचलित, असभ्रांत अनाकुल और अनुद्विग्न रहा । न उसके मुंह का रंग बदला और न आंखों का वर्ण। उसने अदीन और अनातुर मन से जहाज के एक भाग में वस्त्राञ्चल से भूमि का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन कर कायोत्सर्ग में स्थित हुआ । स्थित होकर दोनों हाथों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोला - नमस्कार हो अर्हत भगवान को यावत् जो सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके । यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त हो जाऊं तो मैं कायोत्सर्ग पूरा कर सकता हूं और यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त नहीं होता हूं, तो मेरे प्रत्याख्यान इसी रूप में रहेंगे-- ऐसा कहकर उसने सविकल्प भक्त प्रत्याख्यान किया ।
७४. वह पिशाच रूप जहां अर्हन्नक श्रमणोपासक था वहां आया। वहां आकर उसने अर्हन्नक को इस प्रकार कहा --अरे! ओ! अर्हन्नक! अप्रार्थित के प्रार्थी दुरन्त प्रान्त-लक्षण हीन पुण्य चातुर्देशक! श्री. ही, धृति और कीर्ति से शून्य! तेरे शील, व्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान पौषधोपवास" इनसे तुझको चलित नहीं किया जा सकता, क्षुब्ध नहीं किया जा सकता। इनका खण्डन, भञ्जन, त्याग और परित्याग नहीं कराया जा सकता।“ अतः यदि तूं अपने शील, व्रत, गुण, विरमण,
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