Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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अष्टम अध्ययन : सूत्र १३१-१३७
२०२ विदेहरायवरकन्नाए पायंगुट्ठाणुसारेण रूवं निव्वत्तेइ, निव्वत्तेत्ता कक्खंतरंसि छुब्भइ, छुब्भित्ता महत्थं जाव पाहुडं गेण्हइ, गेण्हिता हत्थिणाउरस्स नयरस्स मज्झमज्झेणं जेणेव अदीणसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ , वद्धावेत्ता पाहुडं उवणेइ, उवणेत्ता एवं वयासी--एवं खलु अहं सामी! मिहिलाओ रायहाणीओ कुंभगस्स रण्णो पुत्तेण पभावईए देवीए अत्तएणं मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निव्विसए आणत्ते समाणे इहं हव्वमागए। तं इच्छामि णं सामी! तुब्भं बाहुच्छाया-परिग्गहिए निब्भए निरुव्विग्गे सुहंसुहेणं परिवसित्तए॥
नायाधम्मकहाओ राजकन्या मल्ली का उसके पांव के अंगूठे के अनुसार चित्र बनाया। चित्र बनाकर उसे बगल में रखा। रखकर महान अर्थवान यावत् उपहार लिए। उपहार लेकर हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच से होता हुआ जहां अदीनशत्रु राजा था, वहां आया। वहां आकर सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर उपहार उपहृत किया। उपहृत कर इस प्रकार बोला--स्वामिन्! मैं मिथिला नगरी से राजा कुम्भ के पुत्र, प्रभावती देवी के आत्मज कुमार मल्लदत्त द्वारा निर्वासन का आदेश प्राप्त कर यहां चला आया। अत: स्वामिन्! मैं चाहता हूं तुम्हारी बाहुच्छाया से परिगृहीत हो, निर्भीक, निरुद्विग्न सुखपूर्वक रहूं।
१३२. तए णं से अदीणसत्तू राया तं चित्तगरं एवं वयासी--किण्णं
तुमं देवाणुप्पिया! मल्लदिन्नेणं निव्विसए आणते?
१३२. राजा अदीनशत्रु ने उस चित्रकार से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! ___ किस कारण से मल्लदत्त ने तुझे निर्वासन का आदेश दिया?
किस
१३३. तए णं से चित्तगरे अदीणसत्तुं रायं एवं वयासी--एवं खलु
सामी! मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाइ चित्तगर-सेणिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुन्भे णं देवाणुप्पिया! मम चित्तसभं हाव-भाव-विलास-बिब्बोयकलिएहिं रूवेहिं चित्तेह तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव मम संडासगं छिंदावेइ, छिंदावेत्ता निव्विसयं आणवेइ । एवं खलु अहं सामी! मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निव्विसए आणत्ते।।
१३३. चित्रकार ने राजा अदीनशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! कुमार
मल्लदत्त ने किसी समय चित्रकार-श्रेणि को बुलाया। उसे बुलाकर इस
प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम मेरी चित्रसभा को हाव-भाव-विलास __ और विब्बोक युक्त रूपों से चित्रित करो, वही सब कथनीय है यावत् मेरे संडासग (अंगूठा और अंगुली की पकड़) का छेदन करवा दिया। छेदन करवाकर निर्वासन का आदेश दे दिया। इस प्रकार स्वामिन्! कुमार मल्लदत्त द्वारा मुझे निर्वासन का आदेश दिया गया।
१३४. तए णं अदीणसत्तू राया तं चित्तगरं एवं वयासी--से केरिसए
णं देवाणुप्पिया! तुमे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए।
१३४. अदीनशत्रु राजा ने उस चित्रकार से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय!
तुने विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का जो तदनुरूप चित्र बनाया है, वह कैसा है?
१३५. तए णं से चित्तगरे कक्खंतराओ चित्तफलगं नीणेइ, नीणेत्ता
अदीणसत्तुस्स उवणेइ, उवणेत्ता एवं वयासी--एस णं सामी मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरुवस्स रूवस्स केइ आगारभाव-पडोयारे निव्वत्तिए। नो खलु सक्का केणइ देवेण वा दाणवेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नेरण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तित्तए।
१३५. चित्रकार ने बगल से वह चित्रपट निकाला। निकालकर
अदीनशत्रु के सामने प्रस्तुत किया। प्रस्तुत कर इस प्रकार कहा--स्वामिन्! विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के तदनुरूप रूप की आकृति और चेष्टा को मैंने इस चित्रपट पर उभारा है। वस्तुत: किसी भी देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गन्धर्व के द्वारा विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का यथार्थ चित्र बनाना शक्य नहीं है।
१३६. तए णं से अदीणसत्तू पडिरूव-जणिय-हासे दूयं सद्दावेइ,
सहावेत्ता एवं वयासी--जाव मल्लिं विदेहरायवरकन्नं मम भारियत्ताए वरेहि, जइ वि य णं सा सयं रज्जसुंका ।।
१३६. तब अदीनशत्रु के मन में उस प्रतिच्छवि के प्रति अनुराग उत्पन्न
हो गया। उसने दूत को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--यावत् विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली को मेरी भार्या के रूप में वरण करो। फिर उसका मूल्य राज्य जितना भी क्यों न हो?
१३७. तए णं से दूए अदीणसत्तुणा एवं वुत्ते समाणे हद्वतढे जाव
जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
१३७. अदीनशत्रु के ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट हुए दूत ने जहां मिथिला
नगरी थी, उधर प्रस्थान किया।
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