Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
१५५ वेयावच्चकर ठावेंति, ठावेत्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति ।।
पांचवां अध्ययन : सूत्र ११८-१२४ को सौंप। सौंपकर पन्थक अनगार को सेवा में नियुक्त किया। सेवा में नियुक्त कर वे बाहर जनपद विहार करने लगे।
पंथगस्स चाउम्मासिय-खामणा-पदं ११९. तएणंसे पंथए सेलगस्स सेज्जा-संथारय-उच्चार-पासवण-खेल्ल- सिंघाणमत्त-ओसह-भेसज्ज-भत्तपाणएणं अगिलाए विणएणं वेयावडियं करेइ।
पन्थक द्वारा चातुर्मासिक क्षमापना-पद ११९. पन्थक ने शय्या, संस्तारक, उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, सिंघाण (आदि
का परिष्ठापन) तथा औषध, भेषज्य और भक्त-पान के द्वारा शैलक की अग्लान-भाव से विनयपूर्वक सेवा की।
१२०. तए णं से सेलए अण्णया कयाइ कत्तिय-चाउम्मासियंसि विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं आहारमाहारिए सुबहु च मज्जपाणयं पीए पच्चावरण्हकालसमयंसि सुहप्पसुत्ते॥
१२०. किसी समय कार्त्तिक चातुर्मासिकी के दिन शैलक ने विपुल अशन,
पान, खाद्य और स्वाद्य का आहार किया, प्रचुर मादक पेय-पिया और अपराह्नकाल के पश्चात् वह सुखपूर्वक सो गया।
१२१. तए णं से पंथए कत्तिय-चाउम्मासिसि कयकाउस्सग्गे देवसियं १२१. पन्थक ने कार्तिक--चातुर्मासिक कायोत्सर्ग किया। दैवसिक प्रतिक्रमण
पडिक्कमणं पडिक्कते, चाउम्मासियं पडिक्कमिउकामे सेलगंरायरिसिं किया। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण की इच्छा से उसने शैलक राजर्षि से खामणट्ठयाए सीसेणं पाएसु संघट्टेइ ।।
क्षमापना के लिए सिर से उनके पांवों का स्पर्श किया।९
सेलगस्स कोव-पदं १२२. तए णं सेलए पंथएणं सीसेणं पाएस संघट्टिए समाणे आसुरुत्ते
कट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे उट्टेइ, उद्वेत्ता एवं वयासी--से केसणं भो! एस अपित्थयपत्थए, दुरंत-पंत-लक्खणे, हीणपुण्णचाउद्दसिए, सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति-परिवज्जिए, जेणं ममं सुहपसुत्तं पाएसु संघट्टेइ?
शैलक का कोप-पद १२२. पथक ने ज्यों ही मस्तक से शैलक के पांवों का स्पर्श किया, शैलक
क्रोध से तमतमा उठा। वह रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलता हुआ उठा। उठकर इस प्रकार कहा--कौन है रे! यह अप्रार्थित का प्रार्थी! दुरंत प्रांत लक्षण! हीन पुण्यचतुर्दशी का जन्मा! श्री, ही, धृति और कीर्ति से शून्य! जो सुख से सोए हुए मेरे पांवों का स्पर्श कर रहा
१२३. तए णं से पंथए सेलएणं एवं वुत्ते समाणे भीए तत्थे तसिए
करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी अहं णं भंते! पंथए कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिक्कते, चाउम्मा-सियं खामेमाणे देवाणुप्पियं वंदमाणे सीसेणं पाएसु संघट्टेमि।
तं खामेमि णं तुब्भे देवाणुप्पिया! खमंतु णं देवाणुप्पिया!
खंतुमरहति णं देवाणुप्पिया! नाइ भुज्जो एवंकरणयाए त्ति कटु सेलयं अणगारं एयमटुं सम्मं विणएणं भुज्जो-भुज्जो खामेइ।
१२३. शैलक के ऐसा कहने पर भीत, त्रस्त और तृषित हुए पन्थक ने सटे
हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियां से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिका कर इस प्रकार कहा--मैं हूं भन्ते! पन्थक । कायोत्सर्ग और दैवसिक प्रतिक्रमण करने के पश्चात् चातुर्मासिक क्षमापना और देवानुप्रिय को वन्दना करता हुआ मैं आपका सिर से चरणस्पर्श करता हूं।
इस अविनय के लिए आपको खमाता हूँ देवानुप्रिय! क्षमा करें देवानुप्रिय !
आप क्षमा करने योग्य हैं देवानुप्रिय! मैं पुन: ऐसा नहीं करूंगा--इस प्रकार उसने इस भूल के लिए शैलक अनगार से भली-भांति विनयपूर्वक पुनःपुन क्षमायाचना की।
सेलगस्स अब्भुज्जयविहार-पदं १२४.तएणं तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स पंथएणं एवं कुत्तस्स अयमेयारूवे
अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु अहं चइत्ता रज्जं जाव पव्वइए ओसन्ने ओसन्नविहारी, पासत्थे पासत्थविहारी कुसीले कुसीलविहारी पमत्ते पमत्तविहारी
शैलक का अभ्युद्यत विहार-पद १२४. पन्थक के ऐसा कहने पर शैलक राजर्षि के मन में इस प्रकार का
आध्यात्मिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--इस प्रकार मैं राज्य-त्याग कर यावत् प्रवजित हुआ हूं। तथापि अवसन्न, अवसन्न-विहारी, पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थ-विहारी, कुशील, कुशील-विहारी,
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