Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
१८५ बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियं करेह । एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तेवि तहेव पच्चप्पिणंति॥
अष्टम अध्ययन : सूत्र ४०-४७ मध्यभाग में मणि-निर्मित पीठिका बनाओ। इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया।
४१. तए णं सा मल्ली मणिपेढियाए उवरिं अप्पणो सरिसियं सरित्तयं
सरिब्वयं सरिस-लावण्ण-रूव-जोव्वण-गुणोववेयं कणगामई मत्थयच्छिडं पउमुप्पल-पिहाणं पडिमं करेइ, करेत्ता जं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं आहारेइ, तओ मणुण्णाओ असण-पाणखाइम-साइमाओ कल्लाकल्लिं एगमेगं पिंडं गहाय तीसे कणगामईए मत्थयछिड्डाए पउमुप्पल-पिहाणाए पडिमाए मत्थयंसि पक्खिवमाणी-पक्खिवमाणी विहरइ॥
४१. मल्ली ने उस मणिपीठिका पर स्वयं के सदृश, समान त्वचा, समान
वय, समान लावण्य, समान रूप, समान यौवन और गुणसम्पन्न एक स्वर्णमयी प्रतिमा स्थापित की, जिसके मस्तक में छेद और पद्म-कमल का ढक्कन था। मल्ली जिस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आहार करती, उस मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य में से प्रतिदिन प्रात:काल एक-एक ग्रास मस्तक में छेद और पद्म-कमल के ढक्कन वाली उस स्वर्णमयी प्रतिमा के मस्तक में डाल देती।
४२. तए णं तीसे कणगामईए मत्थयछिड्डाए पउमुप्पल-पिहाणाए
पडिमाए एगमेगसि पिडे पक्खिप्पमाणे-पक्खिप्पमाणे तओ गंधे पाउन्भवेइ, से जहाणामए--अहिमडे इ वा गोमडे इ वा सुणहमडे इवा मज्जारमडे इ वा मणुस्समडे इ वा महिसमडे इ वा मूसगमडे इवा आसमडे इ वा हत्थिमडे इ वा सीहमडे इ वा वग्घमडे इ वा विगमडे इ वा दीविगमडे इ वा। मय-कुहिय-विट्ठदुरभिवावण्ण-दुन्भिगंधे किमिजालाउलसंसत्ते असुइ-विलीणविगय-बीभत्सदरिसणिज्जे भवेयारूवे सिया?
नो इणद्वे समटे । एत्तो अणिट्ठतराए चेव अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुण्णतराए चेव अमणामतराए चेव।।
४२. मस्तक में छेद और पद्म-कमल के ढक्कन वाली उस स्वर्णमयी
प्रतिमा में प्रतिदिन एक-एक ग्रास डालने के कारण ऐसी गन्ध फूटने लगी, मानो कोई मृत सांप, मृत बैल, मृत कुत्ता, मृत बिलाव, मृत मनुष्य, मृत भैंस, मृत चूहा, मृत घोड़ा, मृत हाथी, मृत सिंह, मृत बाघ, मृत भेड़िया अथवा मृत गेंडा हो। जैसे कोई मृत, कुथित, विनष्ट, दुर्गन्धपूर्ण, तीव्रतम दुर्गन्धयुक्त शृगाल आदि के खा जाने से विरूप तथा कृमि-समूह से आकीर्ण और संसक्त हो जाने से अशुचि, घृणाजनक, विकृत और देखने में बीभत्सर दिखाई देता है। क्या वह गन्ध ऐसी ही थी?
यह अर्थ समर्थ नहीं है। वह गन्ध उससे भी अनिष्टतर, अकमनीयतर, अप्रियतर, अमनोज्ञतर और अमनोगततर लगती थी।
पडिबुद्धिराय-पदं ४३. तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसला नामं जणवए। तत्थ णं
सागेए नामं नयरे।।
प्रतिबुद्धिराज-पद ४३. उस काल और उस समय कौशल नाम का जनपद था। उसमें साकेत
नाम का नगर था।
४४. तस्स णं उत्तपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं महेगे नागघरए
होत्या--दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सण्णिहिय-पाडिहेरे॥
४४. उसके ईशानकोण में एक विशाल नागगृह था। वह दिव्य सत्य, सत्य
अवपात वाला और सन्निहित प्रातिहार्य (किसी प्रहरी व्यन्तरदेव द्वारा अधिष्ठित) था।
४५. तत्थ णं सागेए नयरे पडिबुद्धी नाम इक्खागराया परिवसइ।
पउमावई देवी। सुबुद्धि अमच्चे साम-दंड-भेय-उवप्पयाणनीति-सुप्पउत्त-नय-विहण्णू विहरइ॥
४५. उस साकेत नगर में इक्ष्वाकुवंशीय प्रतिबुद्धि नाम का राजा निवास
करता था। उसके पद्मावती देवी-थी और सुबुद्धि नाम का अमात्य था, वह साम, दण्ड, भेद, उपप्रदान नीतियों के सम्यक् प्रयोग और न्याय की विद्याओं का ज्ञाता था।
४६. तए णं पउमावईए देवीए अण्णया कयाइ नागजण्णए यावि
होत्था।
४६. किसी समय पद्मावती देवी के यहां नागपूजा का प्रसंग उपस्थित
हुआ।
४७. तए णं सा पउमावई देवी नागजण्णमुवट्ठियं जाणित्ता जेणेव
पडिबुद्धी राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं
४७. नागपूजा को उपस्थित जानकर वह पद्मावती देवी, जहां राजा
प्रतिबुद्धि था, वहां आयी। वहां आकर उसने दोनों हथेलियों से
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