Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ भोगवती
जह वा सा भोगवती, जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा। पेसणविसेसकारित्तणेण पत्ता दुहं चेव ।।५।। तह जो महव्वणाई, उवभुंजइ जीवियत्ति पालितो। आहाराइसु सत्तो, चत्तो सिवसाहणिच्छाए।।६।। सो एत्थ जहिच्छाए, पावइ आहारमाइ लिंगित्ता। विउसाण नाइपुज्जो, परलोयंसी दुही चेव ।।७।।
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सप्तम अध्ययन : सूत्र ४४ भोगवती ५-७. जैसे शालिकणों को निगलकर अपने नाम को चरितार्थ करने वाली
भोगवती विशेष प्रेष्यकारिता के रूप में नियुक्त हो दुःख को ही प्राप्त हुई, वैसे ही जीविका की दृष्टि से महाव्रतों का पालन करता हुआ भी जो (मात्र सुविधाओं का) उपभोग करता है, वह आहार आदि में आसक्त हो, शिव साधन की इच्छा भी त्याग देता है। वह यहां साधुवेष के कारण मनचाहा आहार आदि तो पा लेता है, पर विद्वानों में पूज्य नहीं होता और परलोक में भी दुःखी होता है।
रक्खिया
जह वा रक्खियबहुया, रक्खियसालीकणा जहत्थक्खा। परिजणमण्णा जाया, भोगसुहाई च संपत्ता ।।। तह जो जीवो सम्म, पडिवज्जित्ता महव्वए पंच। पालेइ निरइयारे, पमाय-लेसंपि वज्जेंतो।। सो अप्पहिएक्करई, इहलोयम्मिवि विऊहिं पणयपओ। एगंतसुही जायइ, परम्मि मोक्खंपि पावे।।१०।।
रक्षिता ८-१०. जैसे शलिकणों की रक्षा कर अपने नाम को चरितार्थ करने वाली रक्षिता नाम वाली बहू परिजनों में सम्मानित भोग-सुखों को प्राप्त हुई, वैसे ही जो जीव पांच महाव्रतों को सम्यक् स्वीकार कर अंशमात्र भी प्रमाद न करता हुआ उसका निरतिचार पालन करता है वह एक मात्र आत्महित में रमण करने वाला मुनि इस लोक मे भी विद्वत्पूज्य और एकान्त सुखी होता है तथा आगे भी मोक्ष को प्राप्त करता है।
रोहिणी
जह रोहिणी उ सुण्हा, रोवियसाली जहत्थमभिहाणा। वड्ढित्ता सालिकणे, पत्ता सव्वस्स सामित्तं ।।११।। तह जो भव्वो पाविय, वयाइ पालेइ अप्पणा सम्म । अण्णेसि वि भव्वाणं, देइ अणेगेसि हियहेउं ।।१२।। सो इह संघप्पहाणो, जुगप्पहाणोत्ति लहइ संसदं । अप्पपरेंसि कल्लाण-कारओ गोयमपहुव्व ।।१३।। तित्थस्स वुड्ढिकारी, अक्खेवणओ कुतित्थियाईणं । विउस-नरसेविय-कमो, कमेण सिद्धिं पि पावेइ।R४ ||
रोहिणी ११-१४, जैसे शालिकणों को रोपकर अपने नाम को चरितार्थ करने वाली
रोहिणी नाम वाली बहू ने शालिकणों का संवर्द्धन कर सबके स्वामित्व को प्राप्त किया, वैसे ही जो भव्य स्वीकृत व्रतों को स्वयं सम्यक् पालन करता है और बहुतों के हित के लिए अन्य भव्यों को भी व्रती बनाता है(उस पथ पर प्रतिष्ठित करता है) वह इस संघ में संघ-प्रधान युग-प्रधान जैसे श्लाघ्य वचनों को प्राप्त करता है और गौतम स्वामी की भांति अपना और दूसरों का कल्याण करता है।
वह तीर्थ की श्रीवृद्धि करता है। कुतीर्थिकों (के मिथ्या-दर्शन) का निरसन करता है। विद्वज्जन उसके चरणों की सेवा करते हैं और इस क्रम से वह सिद्धि को भी प्राप्त कर लेता है।
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