Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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टिप्पण
सूत्र-३ १. दशाह (दसार)
विवरण हेतु द्रष्टव्य उत्तरज्झयणाणि २२/११ का टिप्पण।
सूत्र-६ २. दक्षिणार्ध भरत का (दाहिणड्ड भरहस्स)
विवरण हेतु द्रष्टव्य--अतीत का अनावरण पृष्ठ १९९-२०६.
६. गेंडे के सींग की भांति अकेला (खग्गविसाणं व एगजाए)
गेंडे के सींग एक ही होता है। वैसे ही मुनि एकाकी रहे। वह अनासक्त और स्वावलम्बी रहे।
बौद्ध साहित्य में सुत्त-निपात का तीसरा पूरा अध्याय 'खग्गविसाण' नाम से ही संरचित है। मित्र कैसा हो, कैसे साधक के साथ अध्यात्म की यात्रा सम्पन्न करें--इस विषय में सुन्दर सूचना मिलती है--
अद्धापसंसाम सहायसंपदं सेट्ठा समासे वितव्वासहाया। एते अलद्धाअनवज्ज भोगी, एको चरे खगविसाण कप्पो। बहुस्सुत्तं धम्मधरं भजेथ, मित्तं उरालं पटिभानवंतं । अबाज अत्थानि विनेय्य-कखं, एको चरे खग्ग-विसाण-कप्पो।"
सूत्र-२६ ३. दीक्षा के पश्चात् दुःखी (पच्छाउरस्स)
इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई अर्हत अरिष्टनेमि के पास दीक्षित होना चाहे तो उसकी दीक्षा के पश्चात् उसका मित्र, ज्ञाति आदि कोई भी दुःखी हो, गरीब हो, ऋणी हो तो उसकी आजीविका की चिन्ता स्वयं कृष्णवासुदेव करेंगे।
___ इससे श्री कृष्ण का आध्यात्मिक अनुराग प्रकट होता है।
४. योगक्षेम (जोगक्खेम)
योग का अर्थ है--अनुपलब्ध इष्ट पदार्थ का लाभ। क्षेम का अर्थ है--उपलब्ध इष्ट पदार्थ की सुरक्षा। इन दोनों के द्वारा होने वाली वर्तमान काल की चिन्ता--वार्ता। विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य उत्तरज्झयणणि ७/२४
सूत्र-३५ ५. शान्त, प्रशान्त, उपशान्त, परिनिर्वत (सते पसते उवसते परिनिब्बुडे)
१. शान्त--इसका तात्पर्य है, कषायों की इतनी मंदता कि कदाचित क्रोध आदि आ जाने पर भी आकृति पर उसकी झलक न मिले। आकृति पर सौम्यता झलकना।
२. प्रशान्त--उदय में आये हुए क्रोध आदि कषायों को विफल कर देना, उन्हें फल शून्य कर देना।
३. उपशान्त--कषाय का उदय में न आना। ४. परिनिर्वृत--पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति।
७. भारण्ड पक्षी की भांति अप्रमत्त (भारण्डपक्खीव अप्पमत्ते)
प्रमत्तता और जागरूकता को बताने के लिए जैन साहित्य में इस उपमा का अनेकत्र प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत सूत्र में थावच्चापुत्र अनगार को भारण्डपक्षी की भांति अप्रमत्त बतलाया गया है। वृत्तिकार के अनुसार भारण्डपक्षी के एक शरीर में दो जीव होते हैं। उनके पेट एक होता है। गर्दन पृथक-पृथक होती है। वे अनन्य फलभक्षी होते हैं-दोनों में से कोई एक खाता है। उदर एक है इसलिए दोनों की पूर्ति हो जाती हैं। वे एक दूसरे के प्रति बड़ी सावधानी बरतते है। सतत जागरूक रहते हैं।
' विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य--उत्तरज्झयणाणि ४/६ का टिप्पण।
सूत्र-३७ ८. वासी और चन्दन में सम चित्त (वासीचंदणकप्पे)
विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य--उत्तरज्झयणाणि १९/९२ का टिप्पण।
सूत्र-३८ ९ सामायिक आदि (सामाइयमाइयाई)
इस वाक्यांश में सामायिक का प्रयोग ग्यारह अंगों के साथ नहीं किया गया है।
१. ज्ञातावृत्ति, पत्र-११०--पच्छाउरस्सेत्यादि--पश्चात् अस्मिन् राजादौ प्रव्रजिते
सति आतुरस्यापि च द्रव्याद्यभावाद् दुःस्थस्य से'--तस्य तदीयस्येत्यर्थः
मित्र-ज्ञाति-निजक--सम्बन्धि-परिजनस्य। २. वही--योगक्षेमवार्तमानी प्रतिवहति, तत्रालब्धस्येप्सितस्य वस्तुनो लाभो
योगो लब्धस्य परिपालनं क्षेमस्ताभ्यां वर्तमानकालभवा वार्तमानी वार्ता योगक्षेमवार्त्तमानी। ३. वही--सन्ते--सौम्यमूर्त्तित्वात्, पसन्ते--कषायोदयस्य विफलीकरणात्,
उपसन्ते--कषायोदयाभावात्, परिनिव्वुडे--स्वास्थ्यातिरेकात् ।
४. वही--ज्ञातावृत्ति, पत्र-११०-'खग्गिविसाणं व एगजाए'-खड्गि: आरण्य:
पशुविशेषः, तस्य विषाणं शृङ्गं तदेकं भवति, तद्वदेकीजातो योऽसंगत: सहायत्यागेन स। ५. सुत्तनिपात, ३/१३, १४ ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-११०--भारण्डपक्खीव अप्पमत्ते--भारण्डपक्षिणो हि एकोदरा:
पृथग्ग्रीवा अनन्यफलभक्षिणो जीवद्वयरूपा भवन्ति. ते च सर्वदा चकितचित्ता भवन्तीति।
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