Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
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पांचवां अध्ययन : सूत्र ७६-८३ भी हूँ, अवस्थित भी हूं, उपयोग की दृष्टि से मैं भूत, वर्तमान और भावी अनेक पर्यायों से युक्त भी हूँ।
सुयस्स परिव्वायगसहस्सेण पव्वज्जा-पदं ७७. एत्थ णं से सुए संबुद्धे यावच्चापुत्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता
नमसित्ता एवं क्यासी--इच्छामि णं भते! तुम्भं अतिए केवलिपण्णत्तं धम्म निसामित्तए।
हजार परिव्राजकों के साथ शुक की प्रव्रज्या-पद ७७. इस चर्चा प्रसंग से संबुद्ध हो शुक ने थावच्चापुत्र को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार कहा--भन्ते ! मैं आपके पास केवलीप्रज्ञप्त धर्म सुनना चाहता हूँ।
७८. तए णं थावच्चापुत्ते अणगारे सुयस्स चाउज्जामं धम्मं कहेइ॥
७८. थावच्चापुत्र अनगार ने शुक परिव्राजक को चातुर्याम धर्म कहा।
७९. तए णं से सुए परिब्वायए यावच्चापुत्तस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म एवं वयासी--इच्छामि णं भते! परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिबुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइत्तए।
अहासुहं देवाणुप्यिा॥
७९. शुक! परिव्राजक ने थावच्चा पुत्र के पास धर्म को सुनकर, अवधारण
कर इस प्रकार कहा--भन्ते! मैं हजार परिव्राजकों के साथ उनसे परिवृत हो देवानुप्रिय के पास मुण्ड हो प्रव्रजित होना चाहता हूँ।
जैसा सुख हो, देवानुप्रिय!
८०. तए णं से सुए परिव्वायए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अवक्कमइ,
अवक्कमित्ता तिदंडयं य कुंडियाओ य छत्तए य छन्नालए य अंकुसए य पवित्तए य केसरियाओ य धाउरत्ताओ य एगते एडेइ, सयमेव सिहं उप्पाडेइ, उप्पाडेत्ता जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता यावच्चापुतं अणगारं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइए। सामाइय-माइयाइं चोद्दसपुव्वाइं अहिज्जइ।।
८०. शक परिव्राजक ईशान कोण में गया। वहाँ जाकर उसने त्रिदण्ड, कमण्डलु, छत्र, त्रिकाष्ठिका, अंकुश, तबि की अंगूठी, एक वस्त्र खण्ड और गेरुएं वस्त्र को एक ओर रखा। अपने आप शिखा का लुञ्चन किया। लुञ्चन कर जहां थावच्चा पुत्र अनगार था वहाँ आया। वहाँ आकर थावच्चापुत्र अनगार को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर वह थावच्चा पुत्र अनगार के पास मुण्ड हो प्रव्रजित हो गया। उसने सामायिक आदि चौदह पूर्वो का अध्ययन
किया।
सुयस्स जणवयविहार-पदं ८१. तए णं थावच्चापुत्ते सुयस्स अणगारसहस्सं सीसत्ताए वियरइ॥
शुक का जनपद विहार-पद ८१. थावच्चापत्र ने शुक को हजार अनगार शिष्य के रूप में प्रदान किए।
८२. थावच्चापुत्र ने सौगन्धिका नगरी और नीलाशोक उद्यान से निष्क्रमण
किया। निष्क्रमण कर उसके बाहर जनपद विहार किया।
८२. तए णं थावच्चापुत्ते सोगंधियाओ नयरीओ नीलासोयाओ
उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ।।
थावच्चापुत्तस्स परिनिव्वाण-पदं ८३. तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव
पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहइ, दुरुहित्ता मेघघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता जाव संलेहणा-झूसणा-झूसिए भत्तपाण-पडियाइक्खिए पाओवगमणंणुवन्ने।।
थावच्चापुत्र का परिनिर्वाण-पद ८३. थावच्चापुत्र हजार अनगारों के साथ, उनसे परिवृत हो, जहां
पुण्डरीक पर्वत था वहाँ आया। वहाँ आकर धीरे-धीरे पुण्डरीक पर्वत पर चढ़ा। पुण्डरीक पर्वत पर चढ़कर सधन मेघ जैसे वर्ण वाले और देवों के समागम स्थल पृथ्वी शिलापट्ट का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर यावत् संलेखना की आराधना में समर्पित हो, भक्तपान का प्रत्याख्यान कर, उसने प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया।
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