Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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पांचवां अध्ययन : सूत्र ११-१६
११. परिसा निग्गया । धम्मो कहिओ ।।
कण्हस्स पज्जुवासणा-पदं
१२. तए णं से कन्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लबट्टे समाणे कोहुवियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दाक्ता एवं क्यासी- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए मेघोघरतियं गंभीरमहुरसद कोमुइयं भेरिं तालेह ।।
१३. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ-चित्तमाणदिया जाव हरिसवस विसप्पमाणहियया करयलपरिग्गतियं दसणहं सिरसावत्तं मत्यए अंजलि कट्टु एवं सामी! तह त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुनेति, पडिसुणेत्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सभा सुहम्मा, जेणेव कोमुद्दया भेरी, तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं मेघोघरसियं गंभीरमहुरसद्दं कोमुइयं भेरिं तालेंति । तजो निद्ध-महुर गंभीर परिसुएणं पिव सारइएणं बलाहएणं अणुरसि भेरीए ।
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१४. तए णं तीसे कोमुझ्याए भेरीए तालियाए समागीए बारवईए नयरीए नवजोयणवित्यिण्णाए दुवालसजोयणायामाए सिंघाडग तिय चक्क चच्चर-कंदर दरी विवर-कुहर- गिरिसिहरनगरगोउर- पासाय- दुवार - भवण - देउल - पडिस्सुया-सयसहस्ससंकुलं करेमाणे बारवतिं नयरिं सब्भिंतर बाहिरियं सव्वओ समता सद्दे विसरित्या ।।
१५. तए णं बारवईए नयरीए नवजोपणवित्यिण्णाए बारसजोयणायामाए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव गणियासहस्साइं कोमुईयाए भेरीए सद्द सोच्चा निसम्म हद्तुद्र-चित्तमाणदिया जाब हरिसवसविसप्पमाणहियया व्हाया आविद्ध-वग्यारिय-मल्लदाम कलावा अहयवत्थ- चंदणोकिन्नगायसरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयगया रह- सीया - संदमाणीगया अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिसव्वग्गुरापरिविखत्ता कण्हस्त वासुदेवस्स अतिय पाउन्भवित्या ।।
१६. तए णं से कण्हे वासुदेवे समुद्रविजयपामोक्ले दस दसारे जाव अति पाउन्भवमाणे पासित्ता हतुङ- चित्तमाणदिए जाव हरिसवसविसप्पमाणहियए कोडुवियपुरिसे सहावे, सदावेता एवं क्यासी-विप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउरंगिणिं सेणं सज्जेह, विजयं च
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नायाधम्मकहाओ
११. परिषद् ने निर्गमन किया। भगवान ने धर्म कहा ।
कृष्ण द्वारा पर्युपासना-पद
१२. भगवान के आगमन का संवाद पाकर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों का बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रियो शीघ्र ही सुधर्मासभा में मेघमाला के समान गर्जना तथा गंभीर एवं मधुर शब्द करने वाली कौमुदिकी भेरी को बजाओ।
१३. कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर हृष्ट, तुष्ट और आनन्दित चित्त वाले यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाले कौटुम्बिक पुरुषों ने सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अञ्जलि सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा- ऐसा ही हो स्वामी। यह कहकर विनयपूर्वक आदेश वचन स्वीकार किया। स्वीकार कर कृष्ण वासुदेव के पास से (उठकर) बाहर आए। आकर जहां सुधर्मा सभा थी, कौमुदिकी भेरी थी, वहां आए। वहां आकर मेघमाला के समान गर्जना तथा गम्भीर एवं मधुर शब्द करने वाली कौमुदिकी भेरी को बजाया। भेरी से उठने वाली स्निग्ध, मधुर और गम्भीर प्रतिध्वनि से ऐसा लग रहा था, मानो शरदकालीन मेघ गरज रहा हो ।
१४. उस कौमुदिकी भेरी को बजाने पर नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारवती नगरी के दोराहे, तिराहे, चौराहे, चौक, कन्दरा, दरी, विवर, कुहर, गिरि - शिखर, नगर- गोपुर, प्रासाद-द्वार, भवन और देवकुल में लाखों प्रतिध्वनियां उठने लगी। वे द्वारवती नगरी को शत-सह प्रतिध्वनियों से संकुल करती हुई नगरी के बाहर-भीतर सर्वत्र व्याप्त हो गई।
१५. नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारवती नगरी के समुद्रविजय प्रमुख दस दशाह यावत् हजारों गणिकाओं ने कौमुदिकी भेरी के शब्द को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट, तुष्ट चित्त हो, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय हो, स्नान किया। नीचे तक लटकती पुष्प मालाएं पहनी, नए वस्त्र धारण किए, शरीर के अंगो पर चन्दन का लेप किया, फिर जन समुदाय से परिवृत हो, उनमें से कुछ एक अश्व पर चढ़कर इसी प्रकार हाथी पर चढ़कर, रथ, शिविका या पालकी पर बैठकर तथा कुछ पांव पांव चलकर कृष्ण वासुदेव के पास उपस्थित हुए।
१६. समुद्रविजय प्रमुख दस दशा को यावत् अपने समक्ष उपस्थित हुए देखकर हृष्ट, तुष्ट चित्त वाले आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाले कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा -- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चतुरंगिणी सेना को सजाओ और
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