Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
बत्तीसाए महिलासाहस्सीणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाण गणियासाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं ईसर-तलवर-माडंबियकोडुंबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहपभिईणं, वेयवगिरिसागरपेरंतस्स य दाहिणड्ड-भरहस्स, बारवईए नयरीए आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा-ईसर-सेणावच्चंकारेमाणे पालेमाणे विहरइ॥
पांचवां अध्ययन : सूत्र ६-१० अन्य बहुत से ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि का, वैताढ्य गिरि से लेकर सागर पर्यन्त दक्षिणार्द्ध भरत का और द्वारवती नगरी का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व तथा आज्ञा, ऐश्वर्य और सेनापतित्व करते हुए उनका पालन करते हुए विहार करते थे।
थावच्चापुत्त-पदं ७. तत्थ णं बारवईए नयरीए थावच्चा नाम गाहावइणी परिवसइ
अड्डा दित्ता वित्ता वित्थिण्ण-विउल-भवण-सयणासण-जाणवाहणा बहुधण-जायरूव-रयया आओग-पओग-संपउत्ता विच्छड्डियपउर-भत्तपाणा बहुदासी-दास-गो-महिसगवेलगप्पभूया बहुजणस्स अपरिभूया ॥
थावच्चापुत्र-पद ७. उस द्वारवती नगरी में 'थावच्चा' नाम की एक गृहस्वामिनी रहती थी।
वह आढ्य, दीप्त और विख्यात थी। उसके भवन, शयन और आसन विस्तीर्ण थे। वह विपुल यान और वाहन वाली, प्रचुर धन और प्रचुर सोने-चांदी वाली, अर्थ के आयोग और प्रयोग (लेन-देन) में संप्रयुक्त और प्रचुर मात्रा में भक्त पान का वितरण करने वाली थी। उसके अनेक दासी, दास, गाय, भैंस और भेड़ें थी। वह बहुत व्यक्तियों के द्वारा अपराजित थी।
पन
८. तीसेणंथावच्चाएगाहावइणीए पत्ते थावच्चाफ़्ते नामसत्थवाहदारए होत्था--सुकुमालपाणिपाए अहीण-पडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरे लक्खण- वंजण-गुणोववेए माणुम्माण-प्पमाणपडिपुण्णसुजाय-सव्वंगसुंदरंगे ससिसोमाकारे कंते पियदंसणे सुरूवे ।।
८. उस थावच्चा गृहस्वामिनी का पुत्र 'थावच्चापुत्र' नाम का एक सार्थवाह पुत्र था। उसके हाथ-पांव सुकुमार थे। उसका शरीर अहीन और परिपूर्ण पांचों इन्द्रियों वाला, लक्षण और व्यंजन की विशेषता से युक्त, मान, उन्मान और प्रमाण की परिपूर्णता वाला, सुजात और सर्वाङ्ग सुन्दर था। वह चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति वाला, कमनीय, प्रियदर्शन और सुरूप था।
९. तए णं सा थावच्चा गाहावइणी तं दारगं साइरेगअट्ठवासजाययं
जाणित्ता सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्त-मुहत्तंसि कलायरियस्स उवणेइ जाव भोगसमत्थं जाणित्ता बत्तीसाए इब्भकुलबालियाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेइ ।
बत्तीसओ दासो जाव बत्तीसाए इन्भकुलबालियाहिं सद्धिं विपुले सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए भुंजमाणे विहरइ।
९. जब वह बालक कुछ अधिक आठ वर्ष का हुआ, तब थावच्चा
गृहस्वामिनी उसे शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में कलाचार्य के पास ले गई यावत् उसे पूर्ण भोग-समर्थ जानकर बत्तीस इभ्य कुल की कन्याओं के साथ एक ही दिन में उसका पाणिग्रहण करवा दिया।
उसे बत्तीस वस्तु-श्रेणियों का दहेज मिला यावत् वह बत्तीस इभ्य कुल कन्याओं के साथ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध पांच प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों को भोगता हुआ विहार करने लगा।
अरिटुनेमि-समवसरण-पदं १०. तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी आइगरे तित्थगरे सो
चेव वण्णओ दसघणुस्सेहे नीलुप्पल-गवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासे अट्ठारसहिंसमणसाहस्सीहि, चत्तालीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे पुन्वाणुपुल्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव बारवती नाम नगरी जेणेव रेवतगपव्वएजेणेव नंदणवणे उज्जाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवेतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गह ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।।
अरिष्टनेमि का समवसरण-पद १०. उस काल और उस समय आदि कर्ता तीर्थंकर अरिष्टनेमि थे--वर्णक।
दस धनुष ऊंचे, नीलोत्पल, महिष के सींग और अतसी कुसुम के समान वर्ण वाले, अर्हत अरिष्टनेमि अपने अठारह हजार श्रमण और चालीस हजार श्रमणियों के साथ उनसे संपरिवृत हो क्रमश: संचार करते हुए, ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहां द्वारवती नाम की नगरी थी जहां रैवतक पर्वत था, जहां नन्दनवन उद्यान था, जहां सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन था, जहां प्रवर अशोक वृक्ष था, वहां आए। वहां आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे।
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