Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आमुख
लक्ष्य (मोक्ष) तक पहुंचने के लिए सम्यक् मार्ग, सम्यक् बोध और सम्यक् आचरण की संयुति आवश्यक है।
प्रस्तुत अध्ययन में थावच्चापुत्र द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करना, प्रव्रज्या ग्रहण करना सम्यक् मार्ग की स्वीकृति है। शुक परिव्राजक द्वारा शौचमूल धर्म के स्थान पर विनय मूल धर्म का स्वीकरण व्रत के महत्त्व का पुष्ट प्रमाण है। शैलक अनगार राजर्षि द्वारा शिथिलाचार का त्याग कर उद्यत विहार करना सम्यक् आचार का सूचक है।
भगवान अरिष्टनेमि द्वारका नगरी में पधारे। थावच्चापुत्र ने प्रवचन सुना। मन में अभिनिष्क्रमण का संकल्प उत्पन्न हुआ। थावच्चापुत्र कामभोगों में संवर्धित हुआ फिर भी वह कामभोगों से कमल की भांति निर्लिप्त था। थावच्चा और कृष्ण वासुदेव द्वारा बहुत समझाने पर भी वह अपने संकल्प पर दृढ़ रहा। थावच्चापुत्र ने कृष्ण वासुदेव से कहा--यदि आप मुझे दो वरदान दो तो मैं आपकी बात स्वीकार कर सकता हूं।
१. मैं मौत पर विजय प्राप्त कर सकू। २. मैं शरीर के सौन्दर्य को विनष्ट करने वाले बुढ़ापे को रोक सकूँ।
कृष्ण वासुदेव ने कहा- ये वरदान चाहते हो तो अरिष्टनेमि के पास जाओ। थावच्चा व कृष्ण वासुदेव से सहर्ष अनुमति प्राप्त कर थावच्चापुत्र ने अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। इस अवसर पर कृष्ण वासुदेव ने यह घोषणा की--जो लोग थावच्चापुत्र के साथ दीक्षा स्वीकार करना चाहते हैं उनके परिजनों का योगक्षेम मैं वहन करूंगा। सामाजिक प्रोत्साहन के कारण थावच्चापुत्र के साथ एक हजार व्यक्तियों ने दीक्षा ग्रहण की। यह इतिहास की विरल घटना है। वर्तमान समाज के लिए एक प्रेरणा है। प्रस्तुत कथानक के कई मोड़ हैं--
0 प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् हजार शिष्यों सहित थावच्चा पुत्र द्वारा उग्रविहार करना। D शैलक राजर्षि को श्रमणोपासक बनाना। D सौगंधिका नगरी के सेठ सुदर्शन का विनयमूल धर्म समझना और श्रमणोपासक बनना। • शुक परिव्राजक के साथ चर्चा करना और उसे प्रतिबोधित करना। 0 हजार परिव्राजकों सहित शुक द्वारा दीक्षा ग्रहण करना। 0 अगार विनय मूल चातुर्याम रूप गृहस्थ धर्म और अनगार विनय मूल चातुर्याम रूप मुनि धर्म का आख्यान करना।
अध्ययन के अंत में शैलक अनगार की मनोदशा का बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण किया गया है। जिजीविषा मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति है किंतु इसके साथ जब सुविधावाद की वृत्ति पनप जाती है तब शिथिलाचार का जन्म हो जाता है। शिथिलाचार से तात्पर्य है--स्वीकृत नियमों का पालन न करना।
शैलक अनगार पुत्र मण्डुक द्वारा चिकित्सा की राजकीय सुविधा प्राप्त कर स्वस्थ होने पर भी अशन आदि खाद्य और मदिरादि मादक पेय में आसक्त हो गया। मूलगुण व उत्तरगुण में दोष लगाने लगा। प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रिया में भी दोष लगाने लगा। शिष्यों द्वारा प्रतिबोधित करने पर भी जागरूक नहीं हुआ। अंत में सभी शिष्य पंथक मुनि को शैलक अनगार की सेवा में छोड़कर उद्यत विहार करने लगे।
प्रस्तुत अध्ययन में थावच्चापुत्र और शुक परिव्राजक के संवाद में साधु जीवन के मुख्य बिन्दुओं पर संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचन है।
शैलक अनगार के संयम जीवन के उत्थान-पतन पर महत्त्वपूर्ण विमर्श है। प्रमाद की बहुलता से यदि कोई साधक संयम चर्या में शिथिल हो जाते हैं, किंतु अंत में संवेग--वैराग्य के प्रभाव से पुन: संयम में उद्यत हो जाते हैं। वे शैलक ऋषि की तरह आराधक होते हैं।
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