Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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पांचवां अध्ययन : सूत्र २०-२३
अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता तं महत्थं महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुडं उवणेइ, उवणेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते नामं दारए--इटे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीवियऊसासए हिययनंदिजणए उंबरपुप्फ पिव दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण दरिसणयाए?
से जहानामए उप्पले ति वा पउमे ति वा कुमुदे ति वा पंके जाए जले संवड्डिए नोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव थावच्चापुत्ते कामेसु जाए भोगेसु संवड़िए नोवलिप्पइ कामरएणं नोवलिप्पइ भोगरएणं। से णं देवाणुप्पिया! संसारभउव्विग्गे भीए जम्मण-जर-मरणाणं इच्छइ अरहओ अरिटुनेमिस्स अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। अहण्णं निक्खमणसक्कारं करेमि । तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! थावच्चापुत्तस्स निक्खममाणस्स छत्तमउड-चामराओ य विदिन्नाओ।
नायाधम्मकहाओ आयी। वहां आकर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अञ्जलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर उसने (कृष्ण वासुदेव को) जय-विजय की ध्वनि से वर्धापित किया। वर्धापित कर उसने महान अर्थवाला, महान मूल्य वाला, महान अर्हता वाला, राजाओं के योग्य उपहार भेंट किया। भेंट कर इस प्रकार बोली--देवानुप्रिय! यह थावच्चापुत्र नाम का बालक मेरा एकमात्र पुत्र है--मुझे इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभरण करण्डक के समान, रत्न रत्नभूत, जीवन-उच्छ्वास (प्राण) और हृदय को आनन्दित करने वाला है। यह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ है, फिर दर्शन का तो कहना ही क्या?
जैसे उत्पल, पद्म अथवा कमल पंक में उत्पन्न होता है, जल में संवर्धित होता है, किंतु पंक रज, जल रज से उपलिप्त नहीं होता वैसे ही थावच्चापुत्र कामों में उत्पन्न हुआ, भोगों में संवर्धित हुआ, किंतु वह काम रज और भोग रज से उपलिप्त नहीं है।
देवानुप्रिय! यह संसार भय से उद्विग्न है। जन्म, जरा और मृत्यु से भीत है। यह अर्हत अरिष्टनेमि के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होना चाहता है। मैं इसका अभिनिष्क्रमण-सत्कार, (दीक्षा-महोत्सव) आयोजित कर रही हूं। इसलिए देवानुप्रिय ! मैं चाहती हूं अभिनिष्क्रमण करने वाले थावच्चापुत्र को तुम छत्र, मुकुट और चंवर प्रदान करो।
२१. तए णं कण्हे वासुदेवे थावच्चं गाहावइणिं एवं वयासी--अच्छाहि
णं तुम देवाणुप्पिए! सुनिव्वुत-वीसत्था, अहण्णं सयमेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि।।
२१. तब कृष्ण वासुदेव ने थावच्चा गुहस्वामिनी को इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये
तुम अत्यंत शान्त और विश्वस्त रहो। बालक थावच्चापुत्र का अभिनिष्क्रमण सत्कार स्वयं मैं ही करूंगा।
कण्हस्स थावच्चापुत्तस्स य परिसंवाद-पदं २२. तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणीए सेणाए विजयं हत्थिरयणं दुरूढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावइणीए भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं क्यासी--मा णं तुमं देवाणुप्पिया! मुडे भवित्ता पव्वयाहि, भंजाहि णं देवाणुप्पिया! विपुले माणस्सए कामभोगे मम बाहुच्छाय-परिग्गहिए। केवलं देवाणुप्पियस्स अहं नो संचाएमि वाउकायं उवरिमेणं गच्छमाणं निवारित्तए। अण्णो णं देवाणुप्पियस्स जं किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएइ, तं सव्वं निवारेमि।
कृष्ण और थावच्चापुत्र का परिसंवाद-पद २२. तब वे कृष्ण वासुदेव चतुरंगिणी सेना के साथ विजय हस्तिरत्न पर
आरूढ़ हो, जहां थावच्चा गृहस्वामिनी का भवन था, वहां आये। वहां आकर थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम मुण्ड हो, प्रव्रजित मत बनो। देवानुप्रिय ! मेरी बाहुच्छाया (छत्रछाया) में रह मनुष्य संबंधी विपुल काम भोगों का भोग करो। मैं केवल देवानुप्रिय के ऊपर से गुजरने वाली हवा का निवारण नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त देवानुप्रिय को जो कुछ भी आबाधा या विबाधा उत्पन्न हो, मैं सबका निवारण कर सकता हूं।
२३. तए णं से थावच्चापुत्ते कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी--जइ णं देवाणुप्पिया! मम जीवियंतकरं मच्चु एज्जमाणं निवारेसि, जरं वा सरीररूव-विणासणिं सरीरं अइवयमाणिं निवारेसि, तए णं अहं तव बाहुच्छाय-परिग्गहिए विउले माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे विहरामि ।।
२३. कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर उस थावच्चापुत्र ने इस प्रकार
कहा--देवानुप्रिय! यदि आप सामने आती हुई जीवन को समाप्त करने वाली मौत और शरीर के सौन्दर्य को विनष्ट करने वाली तथा शरीर का नाश करने वाली जरा का निवारण कर सकें तो मैं आपकी बाहुच्छाया में रह मनुष्य संबंधी विपुल काम भोग को भोगता हुआ विहार करूं।
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