Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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द्वितीय अध्ययन सूत्र ५६-६१
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जेणेव भद्दा सत्यवाही तेगेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता भई (सत्यवाहिं ?) एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिए धणे सत्यवाहे तव पुचायास्स फुतमारगत्स अरिस्स वेरियल्स पढणीयस्स पच्चामित्तस्स ताओ विपुलाओ असण-पान-खाइम साइमाओ संविभागं करेद्र ।। भद्दाए कोव-पदं
५७. तए णं सा भद्दा सत्यवाही पंचगस्स दासचेडगरस अंतिए एयम सोच्चा आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणी धणस्स सत्थवाहस्स पओसमावज्जइ ॥
धणस्स चारमुत्ति पदं
५८. तए णं से धणे सत्थवाहे अण्णया कयाइं मित्त-नाइ नियगसयण संबंध परियणेणं सएण प अत्पसारेण रायकज्जाओ अप्पाणं मोयावे, मोवावेता चारगसालाओ पडिणिक्खम, पडिणिक्लमित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छ, उवायच्छित्ता अलंकारियकम्मं कारवेद, जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छिता अघोयमट्टियं गेण्ड, गेण्डित्ता पोक्खरिणीं ओगाहइ ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, करेत्ता हाए कयबलिकम्मे कय- कोउयमंगल पायच्छिते सव्यालंकारविभूसिए रायगिहं नगरं अणुष्पविसह, अणुष्पविसित्ता रायगिहस्स नगरस्स मामले जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्य गमणाए ।।
धणस्स सम्माण -पदं
५९. तए णं तं धणं सत्थवाहं एज्जमाणं पासित्ता रायगिहे नयरे बहवे नगर-निगम-सेद्रि सत्यवाह भिओ आति परिजानंति
सक्कारेंति सम्मार्णेति अब्भुट्ठेति सरीरकुसलं पुच्छंति ।।
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६०. तए णं से धणे सत्थवाहे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ । जावि य से तत्थ बाहिरिया परिसा भवइ, तं जहा -- दासा इ वा पेस्सा इ वा भयगा इ वा भाइल्लगा इ वा, सा वि य णं धणं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पायवडिया खेमकुसलं पुच्छइ ।
जावि य से तत्थ अब्भंतरिया परिसा भवइ, तं जहा -- माया इ वा पिया इ वा भाया इ वा भइणी इ वा, सावि य णं धणं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, आसणाओ अब्भुट्ठेइ, कंठाकंठिय अवयासिय बाह-प्पमोक्खणं करेइ ।।
भद्दाए कोवोवसमपुव्वं सम्माण- पदं
६१. तए णं से धणे सत्यवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छइ ।।
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नायाधम्मकाओ सार्थवाही थी, वहां आया। वहां आकर भद्रा (सार्थवाही ?) से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये ! धन सार्थवाह तुम्हारे पुत्र की घात करने वाले, उसे मारने वाले अरि, वैरी, प्रत्यनीक और नितान्त शत्रु को उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग देता है ।
भद्रा का कोप - पद
५७. दासपुत्र पन्थक से यह बात सुनकर भद्रा सार्थवाही क्रोध से तमतमा उठी। उसने रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलते हुए धन सार्थवाह के प्रति मन में रोष की गांठ बांध ली।
धन की कारागृह से मुक्ति-पद
५८. किसी समय धन सार्थवाह ने मित्र ज्ञाति निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के सहयोग तथा अपने अर्थबल से स्वयं को राजदण्ड से मुक्त करा लिया। मुक्त करा कर वह कारागृह से निकला। निकलकर जहां आलंकारिक सभा (नापितशाला ) थी, वहां आया। वहां आकर आलंकारिक कर्म हजामत करवाया। जहां पुष्करिणी थी, वहां आया। वहां आकर साफ मिट्टी ली। लेकर पुष्करिणी में अवगाहन किया। अवगाहन कर जल में निमज्जन किया। निमज्जन कर, स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगल रूप प्रायश्चित्त कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, राजगृह नगर में अनुप्रविष्ट हुआ । अनुप्रविष्ट होकर राजगृह नगर के बीचोंबीच होता हुआ, जहां अपना घर था वहां जाने का संकल्प किया।
धन का सम्मान-पद
५९. धन सार्थवाह को आते देखकर हुए राजगृह नगर के बहुत सारे नगर-निगम श्रेष्ठी, सार्थवाह प्रभृति ने उसका आदर किया, उसकी ओर ध्यान दिया । उसे सत्कृत किया, सम्मानित किया, अभ्युत्थान किया और शरीर का कुशल पूछा।
६०. धन सार्थवाह जहां अपना घर था, वहां आया। वहां उसकी जो बहिरंग परिषद् थी जैसे--दास, प्रेष्य, भृतक और भागीदार उसने भी धन सार्थवाह को आते हुए देखा प्रणाम कर क्षेमकुशल पूछा।
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वहां उसकी जो अन्तरंग परिषद् पी जैसे माता, पिता, भाई तथा बहिन, उसने भी धन सार्थवाह को आते हुए देखा, आसन से उठी। गले मिलकर (हर्ष के आंसू बहाने लगी । १३
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भद्रा के कोप का उपशमन और अपूर्व सम्मान - पद ६१. वह धन सार्थवाह, जहां भद्रा भार्या थी वहां आया।
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