Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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द्वितीय अध्ययन : सूत्र ६८-७३
१०६ समाणे विपुलमणि-मोत्तिय-धण-कणग-रयणसारेणं लुब्भइ, सो वि एवं चेव ।।
नायाधम्मकहाओ मणि, मौक्तिक, धन, कनक और रत्नसार में लुब्ध होता है, वह भी ऐसा ही होता है।
धण-णायस्स निगमण-पदं ६९. तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा जाव फुव्वाणुपुब्चिरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे नयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति ।।
धन-ज्ञात का निगमन-पद ६९. उस काल और उस समय जाति सम्पन्न यावत् स्थविर भगवान क्रमश: संचार करते हुए एक गांव से दूसरे गांव परिभ्रमण करते हुए सुख पूर्वक विहार करते हुए जहां राजगृह नगर था, जहां गुणशिलक चैत्य था वहां आए। वहां आकर यथोचित्त अवग्रह--आवास को ग्रहण कर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे।
७०. परिसा निग्गया धम्मो कहिओ॥
७०. धर्म सुनने के लिए जन-समूह ने निर्गमन किया। धर्म कहा।
७१. तए णं तस्स धणस्स सत्थवाहस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढे
सोच्चा निसम्म इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु थेरा भगवंतोजाइसंपण्णा इहमागया इहसंपत्ता। तं गच्छामि? णं थेरे भगवंते वंदामि नमसामि (एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता?) हाए कयबलिकम्मे कय-कोउय-मंगल-पायच्छिते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवर परिहिए पायविहारचारेणं जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ।।
७१. बहुत सारे लोगों के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर, धन
सार्थवाह के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--"जाति-सम्पन्न स्थविर भगवान यहां आये हुए हैं, यहां सम्प्राप्त हैं। अत: मैं जाऊं, स्थविर भगवान को वन्दना-नमस्कार करूं (उसने ऐसी सप्रेक्षा की। ऐसी संप्रेक्षा कर?) स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगल रूप प्रायश्चित्त किया। पवित्र स्थान में प्रवेश करने योग्य प्रवर मंगल वस्त्र पहने और पांव-पांव चलता हुआ जहां गुणशिलक चैत्य था, जहां स्थविर भगवान थे, वहां आकर वन्दना नमस्कार किया।
७२. तए णं घेरा भगवंतो धणस्स विचित्तं धम्ममाइक्खंति।।
७२. स्थविर भगवान ने धन के समक्ष विचित्र धर्म का आख्यान किया।
७३. तए णं से धणे सत्थवाहे धम्मं सोच्चा एवं वयासी--
सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं । पत्तियामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। रोएमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। अब्भुटेमिणं भंते! निग्गंथं पावयणं ।
एवमेयं भंते! तहमेयं भत्ते! अवितहमेयं भंते! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते! से जहेयं तुब्भे वयह त्ति कटु थेरे भगवते वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जाव पव्वइए जाव बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता भत्तं पच्चक्खाइत्ता, मासियाए संलेहणाए (अप्पाणं झोसेत्ता?), सढि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववण्णे।
तत्थ णं अत्यगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । तस्स णं धणस्स देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई।
७३. धर्म को सुनकर धन सार्थवाह ने इस प्रकार कहा--
भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर प्रतीति करता हूँ। भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर रुचि करता हूँ। भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन (की आराधना) में अभ्युत्थान करता हूँ। यह ऐसा ही है भन्ते ! यह तथ्य है भन्ते ! यह अवितथ है भन्ते ! यह इष्ट है भन्ते ! यह ग्राह्य है भन्ते ! यह इष्ट और ग्राह्य दोनों है भन्ते !
जैसा तुम कह रहे ऐसा कह, उसने स्थविर भगवान को वन्दना नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर यावत् प्रव्रजित हो गया। यावत् बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर भक्त प्रत्याख्यान कर मासिक संलेखना में (अपने आपका समर्पण?) और अनशन काल में साठ भक्तों का परित्याग कर, मृत्यु के समय, मृत्यु को प्राप्त हो सौधर्म कल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ।
वहां कुछ देवों की स्थिति चार पल्योपम बतलाई गई है। उस धन देव की स्थिति चार पल्योपम है।
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