Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
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तृतीय अध्ययन : सूत्र १५-१९ १५. तए णं ते सत्यवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं जाणं १५. सार्थवाह पुत्र देवदत्ता गणिका के साथ यान पर आरूढ़ हुए। आरूढ़
दुरुहति, दुरुहित्ता चपाए नयरीए मझमझेणं जेणेव सुभूमिभागे हो, चम्पा नगरी के बीचोंबीच से गुजरते हुए, जहां सुभूमिभाग उद्यान उज्जाणे जेणेव नंदा पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता था, जहां नंदा पुष्पकरिणी थी वहां आए। वहां आकर यान से उतरे। पवहणाओ पच्चोठहति, पच्चोरुहित्ता नंदं पोक्खरिणिं ओगाहेंति, उतरकर नंदा पुष्पकरिणी का अवगाहन किया। अवगाहन कर ओगाहेत्ता जलमज्जणं करेंति, करेत्ता जलकिडं करेंति, करेत्ता जल-मज्जन किया। जल मज्जन कर जल-क्रीड़ा की। जल क्रीड़ा व्हाया देवदत्ताए सद्धिं (नंदाओ पोक्खरिणीओ?) पच्चुत्तरंति, कर स्नान किया और देवदत्ता के साथ (नंदा पुष्करिणी) से बाहर जेणेव थूणामंडवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता (थूणामंडवं?) निकले। जहां स्थूणा-मण्डप था वहां आए। आकर (स्थूणा-मण्डप में) अणुप्पविसति, अणुप्पविसित्ता सव्वालंकारभूसिया आसत्था वीसत्था प्रवेश किया। प्रवेश कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित और सुहासणवरगया देवदत्ताए सद्धिं तं विपुलं असण-पाण- आश्वस्त-विश्वस्त हो, प्रवर सुखासन में बैठकर वे देवदत्ता गणिका के खाइम-साइमं धूव-पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं आसाएमाणा साथ उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करते विसाएमाणा परिभाएभाणा परि जेमाणा एवं च णं विहरति । हुए, विशेष स्वाद लेते हुए, परस्पर बांटते हुए तथा धूप, पुष्प, वस्त्र, जिमियभुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा (आयंता चोक्खा गन्धचूर्ग, माला और अलंकारों का उपभोग करते हुए विहार करने परमसुइभूया?) देवदत्ताए सद्धिं विपुलाइं कामभोगाइं भुंजमाणा लगे। विहरंति॥
भोजनोपरान्त भी वे बैठने के स्थान पर आ (आचमन कर साफ-सुथरे और परम पवित्र हो) देवदत्ता गणिका के साथ विपुल काम-भोगों को भोगते हुए विहार करने लगे।
१६. तए णं ते सत्थवाहदारगा पुव्वावरण्हकालसमयंसि देवदत्ताए
गणियाए सद्धिं धूणामंडवाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता हत्यसगल्लीए सुभूमिभागे उज्जाणे बहूस आलिघरएसुयकपलिघरएसु य लताघरएसुय अच्छणघरएसुय पेच्छणघरएसुय पसाहणघरएसु य मोहणघरएसु य सालघरएसु य जालघरएसु य कुसुमघरएसुय उज्जाणसिरिं पच्चमाणुब्भवामाणा विहरति॥
१६. सार्थवाह पुत्र अपराह्नकाल के समय देवदत्ता गणिका के साथ
स्थूणा-मण्डप से बाहर निकले। निकलकर एक दूसरे का हाथ थामे, सुभूमिभाग उद्यान में बहुत से आलि-गृहों, कदली-गृहों, लता-गृहों, आसन गृहों, प्रेक्षा गृहों, प्रसाधन-गृहों, मोहन गृहों, शाखा-गृहों, जालक-गृहों और कुसुम-गृहों से उद्यानश्री का अनुभव करते हुए विहार करने लगे।
सत्थवाहदारगेहिं मयूरीअंडगाणयण-पदं १७. तए णं ते सत्थवाहदारगा जेणेव से मालुयाकच्छए तेणेव
पहारेत्य गमणाए।
सार्थवाह पुत्रों द्वारा मयूरी के अण्डों का आनयन-पद १७. उन सार्थवाह पुत्रों ने जहां मालुकाकक्ष था, वहां जाने का संकल्प
किया।
१८. तए णं सा वणमयूरी ते सत्थवाहदारए एज्जमाणे पासइ,
पासित्ता भीया तत्था महया-महया सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणीविणिम्मुयमाणी मालुयाकच्छाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता एगसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा ते सत्यवाहदारए मालुयाकच्छगं च अणिमिसाए दिट्ठीए पेच्छमाणी चिट्ठइ।
१८. उस वन मयूरी ने उन सार्थवाह पुत्रों को आते हुए देखा। उन्हें देख
वह भीत और त्रस्त हो उच्च स्वर से पुन: पुन: केकारव करती हुई, मालुकाकक्ष से बाहर निकली। निकलकर एक वृक्ष की डाल पर बैठ, उन सार्थवाह पुत्रों को और मालुकाकक्ष को अनिमिष दृष्टि से निहारने
लगी।
१९ तए णं ते सत्थवाहदारगा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं
वयासी--जहा णं देवाणुप्पिया! एसा वणमयूरी अम्हे एज्जमाणे पासित्ता भीया तत्था तसिया उब्विग्गा पलाया महया-महया सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणी-विणिम्मुयमाणी मालुयाकच्छाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता एगंसि रुक्खडायलयंसि ठिच्चा अम्हे मालुयाकच्छयं च (अणिमिसाए दिट्ठीए?) पेच्छमाणी चिट्ठइ,
१९. सार्थवाह-पुत्रों ने एक दूसरे को पुकारा। पुकार कर इस प्रकार
कहा--देवानुप्रिय ! यह वन-मयूरी हमें इधर आते हुए देखकर, जिस प्रकार भीत, त्रस्त, तृषित और उद्विग्न होकर भागी है, उच्च स्वर से पुन: पुन: केकारव करती हुई मालुकाकक्ष से बाहर निकली है, निकलकर एक वृक्ष की डाल पर बैठ, हमें और मालुका कक्ष को (अनिमिष दृष्टि से?) निहार रही है, इसलिए यहां कोई न कोई कारण
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