Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
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तृतीय अध्ययन : सूत्र २३-२७ २३. तए णं से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए अण्णया कयाई जेणेव २३. किसी समय वह सागरदत्त सार्थवाह का पुत्र जहां वह मयूरी का अण्डा
से मयूरी-अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं मयूरी-अंडयं था वहां आया। वहां आकर सारहीन हुए उस मयूरी के अण्डे को . पोच्चडमेव पासइ, अहो णं मम एत्थ कीलावणए मयूरी-पोयए न देखा। अहो! इसमें मेरा खिलौना मयूरी का बच्चा उत्पन्न नहीं जाए त्ति कटु ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए हुआ--इस प्रकार वह भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए झियाइ॥
आर्तध्यान में डूबा हुआ चिन्तामग्न हो गया।
२४. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंधी वा
आयरिय-उवझायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचमहव्वएसु छज्जीवनिकाएसु निग्गंथे पावणे संकिए कखिए वितिगिंछसमावण्णे भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे, से णं इहभवे चेव बहुणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूर्ण सावियाण य हीलणिज्जे निंदणिज्जे खिंसणिज्जे गरहणिज्जे परिभवणिज्जे,
परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य बहूणि मुंडणाणि य बहूणि तज्जणाणि य बहूणि तालणाणि य बहूणि अंदुबंधणाणि य बहूणि घोलणाणि य बहूणि माइमरणाणि य बहूणि पिइमरणाणि य बहूणि भाइमरणाणि य बहूणि भगिणीमरणाणि य बहूणि भज्जामरणाणि य बहूणि पुत्तमरणाणि य बहूणि घूयमरणाणि य बहूणि सुण्हामरणाणि य,
बहूणं दारिद्दाणं बहूणं दोहग्गाणं. बहूणं अप्पियसंवासाणं बहूणं पियविप्पओगाणं बहूणं दुक्ख-दोमणस्साणं आभागी भविस्सति, अणादियं चणं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ।।
२४. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी
आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो, पांच महाव्रतों, षड्जीवनिकायों और निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न और कलुषसमापन्न होता है, वह इस जीवन में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय, निन्दनीय, कुत्सनीय, गर्हणीय और परिभवनीय होता है।
परलोक में भी वह बहुत दण्ड, बहुत मुण्डन, बहुत तर्जना, बहुत ताड़ना, बहुत सांकल-बंधन, बहुत भ्रमण, बहुत मातृ-मरण, बहुत पितृ-मरण, बहुत भ्रातृ-मरण, बहुत भगिनी-मरण, बहुत भार्या-मरण, बहुत पुत्र-मरण, बहुत पुत्री-मरण और बहुत पुत्रवधू- मरण को प्राप्त होता है।
वह बहुत दरिद्रता, बहुत दौर्भाग्य, बहुत अप्रिय संवास, बहुत प्रिय-विप्रयोग और बहुत दुःख-दौर्मनस्य का आभागी होगा। वह अनादि-अनन्त, प्रलम्ब मार्ग तथा चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार में पुन:पुन: अनुपरिवर्तन करेगा।
जिणदत्तपुत्तस्स सद्धाए मयूर-लद्धि-पदं २५. तए णं से जिणदत्तपुत्ते जेणेव से मयूरी-अंडए तेणेव उवागच्छइ,
उवागच्छित्ता तंसि मयूरी-अंडयंसि निस्संकिए (निक्कंखिए निवितिगिंछे?) सुव्वत्तएणं मम एत्थ कीलावणए मयूरी-पोयए भविस्सइ त्ति कटु तं मयूरी-अंडयं अभिक्खणं-अभिक्खणं नो उव्वत्तेइ नो परियत्तेइ नो आसारेइनो संसारेइनो चालेइ नो फदेइ नो घट्टेइ नो खोभेइ अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलंसि नो टिट्टियावे॥
जिनदत्तपुत्र की श्रद्धा से मयूर उपलब्धि-पद २५. वह जिनदत्तपुत्र जहां वह मयूरी का अण्डा था, वहां आया, वहां
आकर उस मयूरी के अण्डे में नि:शंकित (नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सित?) हो, इस अण्डे से मेरा खिलौना-मयूरी का बच्चा होगा, यह स्पष्ट है--ऐसा सोच, वह उस मयूरी के अण्डे को न बार-बार उलटता, न पलटता, न सरकाता, न दूर सरकाता, न चलाता, न स्पन्दित करता, न स्पर्श करता, न क्षुभित करता और न कान के पास ले जाकर उसे बार-बार बजाता।
२६. तए णं से मूयरी-अंडए अणुव्वत्तिज्जमाणे जाव
अटिट्टियाविज्जमाणे कालेणं समएणं उन्भिन्ने मयूरी-पोयए एत्थ जाए।
२६. तब न उलटने यावत् न बजाने के कारण यथाकाल यथासमय वह
मयूरी का अण्डा फूटा और उससे मयूरी का बच्चा उत्पन्न हुआ।
२७. तए णं से जिणदत्तपुत्ते तं मयूरी-पोययं पासइ, पासित्ता हट्ठतुढे
मयूर-पोसए सद्दावेइ, सद्दाक्ता एवं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! इमं मयूर-पोयगं बहूहिं मयूर-पोसण-पाओग्गेहिं दव्वेहिं अणुपुब्वेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्ढेह, नदुल्लगं च सिक्खावेह ।।
२७. उस जिनदत्त-पुत्र ने उस मयूरी के बच्चे को देखा। उसे देख,
हृष्ट-तुष्ट हो, मयूर-पोषकों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! इस मोर के बच्चे का बहुत से मयूर पोषण-प्रायोग्य द्रव्यों से क्रमश: संरक्षण और संगोपन करते हुए संवर्द्धन करो और इसे नृत्य करना सिखाओ।
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