Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
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४८. तए णं से विजए तक्करे धणं सत्यवाहं एवं वयासी--जइ णं तुमं देवागुप्पिया! ताओ विपुलाओ असण- पाण-लाइम- साइमाओ संविभागं करेति, तओहं तुमेहिं सद्धिं एगंतं अवक्कमामि ।।
४९. लए णं से धणे सत्यवाहे विजयं तक्करं एवं क्यासी अहं णं तुब्धं ताओ विपुलाओ असण- पाण- खाइम - साइमाओ संविभागं करिस्सामि ।।
५०. लए गं से विजए तस्करे धणस्स सत्यवाहस्स एयम परिसुणेइ ।। ५१. तए णं से धणे सत्थवाहे विजएण तक्करेण सद्धिं एगंते अवक्कम, उच्चार पासवणं परिद्ववेद, आयते चोक्ले परमसुइभूए तमेव ठाणं उवसंकमित्ता णं विहरइ ।।
धणेण विजयस्स संविभागदाण-पदं
५२. तए णं सा भद्दा कस्तं पाउप्पभाए रमणीए जाय उपिम्मि सूरे सहस्सरस्तिम्मि दिणयरे तेयसा जलते विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं उवक्खडे, भोयणपिडयं करेइ, करेत्ता भोयणाइं पक्खिवइ, संख्यि-मुद्दियं करे, करेता एवं च सुरभि (वर?) वारिपरिपुण्णं दगवारयं करेइ, करेत्ता पंथयं दासचेडयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी -- गच्छह गं तुम देवाणुप्पिया! इमं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं गहाय चारगसालाए धणस्स सत्यवाहस्स उवणेहि ।।
५३. तए णं से पंथए भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ते समाणे तु तं भोयगपिहयं तं च सुरभिवरवारिपटिपुण्णं दगवारयं गेह, गण्डित्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्स्वमित्ता रायगिहं नगरं मज्मणं जेणेव चारणसाला जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छिता भोयणचियं वे ठवेता उल्लंछेड उल्लंखेता भोषणं गेन्डर, गेन्हित्ता भायणाई ठाव, ठावित्ता हत्थसोयं दलयइ, दलइत्ता धणं सत्यवाहं तेणं विपुलेणं असण- पाण- खाइम - साइमेणं परिवेसेइ ।।
५४. तणं से धणे सत्यवाहे विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ असण पाणखाइम साइमाओ संविभागं करेह ।।
पंचगस्त भद्दाए साटोवं तन्निवेदण-पदं
५५. तए णं से धणे सत्यवाहे दासचेडयं विसज्जेइ ।।
५६. तए गं से पंथए भोयणपिटयं महाय चारगाओ पडिणिक्खमह पडिणिक्यमिता रायगिहं नयरं मजांमझेगं जेणेव सए गिहे
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द्वितीय अध्ययन सूत्र ४८-५६
४८. वह विजय तस्कर धन सार्थवाह से इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय यदि तुम मुझे उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग दो तो मैं तुम्हारे साथ एकान्त में चलूं ।
४९. वह धन सार्थवाह विजय तस्कर से इस प्रकार बोला- मैं तुझे उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग दूंगा।
५०. तब विजय तस्कर ने धन सार्थवाह के इस अर्थ को स्वीकार किया ।
५१. धन सार्थवाह विजय तस्कर के साथ एकान्त में गया, उच्चार-प्रस्रवण किया, लौटकर आचमन कर साफ सुथरा और परम निर्मल हो, अपने उसी स्थान में आ गया।
धन द्वारा विजय को संविभाग- दान-पद
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५२. उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर भद्रा ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार किया। एक भोजन-पिटक (टिफिन ) बनाया बनाकर उसमें भोजन रखा, रसकर उसे लाञ्छित रेखांकित किया, मुद्रित किया। उस पर मुहर लगायी, मुद्रित कर सुगन्धित (प्रवर?) जल से एक झारी भरी, झारी भरकर, दासपुत्र पन्थको बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! तुम जाओ और यह विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ते कारागृह में धन सार्थवाह को दे दो।
५३. भद्रा सार्थवाही के ऐसा कहने पर हृष्ट, तुष्ट हुए पक ने उस भोजन-पिटक और सुगन्धित प्रवर जल से भरी शारी को लिया, लेकर अपने घर से निकला। घर से निकलकर, राजगृह नगर के बीचोंबीच होता हुआ, जहां कारागृह था, जहां धन सार्थवाह था, वहां आया। आकर भोजन-पिटक रखा। रखकर उसे खोला खोलकर भोजन निकाला, निकालकर बर्तन रखा। रखकर (धन के) हाथ धुलाए। हाथ धुलाकर धन सार्थवाह को वह विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वा परोसा |
५४. तब उस धन सार्थवाह ने विजय तस्कर को उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग दिया।
पन्थक द्वारा बात को बढ़ा चढ़ा कर भद्रा से निवेदन - पद ५५. तब धन सार्थवाह ने दासपुत्र पन्थक को विसर्जित कर दिया ।
५६. तब वह पथक भोजन पिटक ले, कारागृह से निकला। निकलकर राजगृह नगर के बीचोंबीच होता हुआ, जहां अपना घर था, जहां भद्रा
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