Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
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प्रथम अध्ययन : टिप्पण ८५-९० महापुराण में चंक्रमण के स्थान में बहियनिक्रिया का निर्देश है। विद्यार्थी को पहले सूत्र और अर्थ का बोध दिया जाता था। कलाचार्य उसके अनुसार जन्म के तीन, चार माह पश्चात् अनुष्ठान पूर्वक प्रसूतिगृह राजकुमार मेघ को बहत्तर कलाएं सूत्र, अर्थ और क्रियात्मक रूप से पढ़ाता से बाहर लाया जाता है।
है और उनका अभ्यास कराता है। 'सेहावेइ' सिक्खावेइ' ये दोनों शब्द प्रजेमनक के स्थान में अन्नप्राशन है। जन्म के सात, आठ माह मिलकर शिक्षा की पूर्णता का निवर्हन करते हैं। पश्चात् पूजा विधि पूर्वक शिशु को अन्न खिलाना। चन्द्र, सूर्य दर्शन पाठ्यक्रम में भी उन्हीं विषयों का चयन किया जाता था, संस्कार का उल्लेख महापुराण में नहीं है।
जिनकी व्यक्ति के जीवन-व्यवहार में उपयोगिता और सार्थकता समझी
जाती थी। सूत्र ८२ ८६. (सूत्र ८२)
८८. बहत्तर कलाएं (बावत्तरी कलाओ) उस समय सम्पन्न घरानों में बच्चों के लालन-पालन के
प्रस्तुत सूत्र में ७२ कलाओं का नाम निर्देश मात्र है। वृत्ति में भी लिए प्राय: पांच धाय माताओं को नियुक्त किया जाता था। कर्तव्य उनकी विस्तृत व्याख्या उपलब्ध नहीं होती।
और दायित्व के आधार पर उनके पांच प्रकार होते थे. जैसे-- बहत्तर कलाओं की जानकारी के लिए द्रष्टव्य समवाओ, समवाय १. क्षीर-धात्री २. मज्जन धात्री ३. क्रीडन धात्री ४. मण्डन धात्री और ७२ (पृ. २५०-२५५) ५. अंक धात्री। बच्चों के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक विकास
सूत्र ८८ में इन धाय-माताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी।
८९. उसके नौ सुप्त अंग जागृत हो गये (नवंगसुत्तपडिबोहिए) इस सूत्र में पांच धात्रियों के अतिरिक्त अनेक पारिचारिकाओं का वृत्तिकार ने इसका अर्थ निम्न प्रकार से किया है--उसके नौ सुप्त उल्लेख है। राजकुमारों को अनेक देश की भाषाओं और संस्कृति से अंग जागृत हो गये। परिचित कराने के लिए अनेक परिचारिकाएं रहती थीं। उनके माध्यम से दो श्रोत्र, दो आंखें, दो नासा-विवर, एक त्वचा, एक जीभ सहज ही अनेक भाषाओं का परिचय प्राप्त हो जाता। इन पारिचारिकाओं ___ और एक मन--ये नौ अंग बाल्यकाल में सुषुप्त होते हैं। इनकी के नाम अपने-अपने देश के नाम पर दिए गए हैं। उस समय राजघरानों प्राणशक्ति अव्यक्त होती है। यौवन में इनकी प्राण शक्ति व्यक्त हो में विदेशी नौकरानियों का रहना गौरव और समृद्धि का सूचक माना जाता।
जाती है। था। नाना देशीय सेविकाओं के कारण अपने देश की शोभा बढ़ती है--ऐसी इस पद की व्याख्या दूसरे पहलू से भी की जा सकती है। वह यह धारणा थी।
है कि--'वह नवांग सूत्रों का जानकार बन गया। यह अर्थ भी अप्रासंगिक वे सब दासियां अपने-अपने देश की वेशभूषा में रहती थी। उन । या असंगत नहीं लगता। इसका आधार यह है कि पूर्व निर्दिष्ट अर्थ मानने परिचारिकाओं का बच्चों से विशेष सम्पर्क रहता था अत: उनका पर उक्त वाक्यांश की रचना-सुप्त नवांग प्रतिबोधित' 'इस प्रकार होनी सुसंस्कारी होना आवश्यक माना जाता था। क्योंकि परिपार्श्व के अच्छे या चाहिए थी। क्योंकि 'क्त प्रत्ययान्त विशेषण समस्त पद के पूर्व प्रयुक्त बरे प्रतिबिम्ब बच्चों में सहज संक्रान्त होते हैं। योग्य सेविकाओं की कसौटी होता है। इस प्रयोग को आर्ष प्रयोग मानकर उचित भी मान लें तो उक्त थी--वे इंगित, चिन्तन और अभिप्राय को समझाने वाली, निपुण और विनीत संभावना का एक आधार यह भी है कि प्रस्तुत वर्णन में मेधकुमार की हो।
शैक्षणिक योग्यता का उल्लेख है। पूर्व वाक्यांश में उसे बहत्तर कलाओं में
पण्डित और उत्तर पद में अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में विशारद सूत्र ८५
बताया गया है। प्रस्तुत पद इन दोनों के मध्य में स्थित है इसलिए यह कल्पना ८७. पढ़ाई और उनका अभ्यास कराया। (सेहावेइ सिक्खावेइ) भी की जा सकती है कि इसका अर्थ 'वह नवांग सूत्रों का ज्ञाता था ' ऐसा
१. सिघ का अर्थ है--निष्पन्न कराना अर्थात् विद्या को सिद्ध करा हो। ये नवांग कौनसे थे. यह अन्वेषणीय है। देना। २. 'शिक्ष' का अर्थ है--अभ्यास कराना।
९०. अट्ठारह प्रकार की देशी भाषाओं में विशारद (अट्ठारस विहिप्पगारजैन ग्रन्थों में शिष्य के लिए 'सेह' शब्द का प्रयोग आता है। देसीभासाविसारए)
प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति में विभिन्न विद्या शाखाओं का वह प्रवृत्ति भेद से अठारह प्रकार की देशी भाषा में विशारद बन ग्रहण और अभ्यास--इन दोनों पक्षों पर बराबर बल दिया जाता था। गया।
३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-४५
३.शाता
१. नायाधम्मकहाओ १/८२ नाना देसीहिविदेसपरिमंडियाहिं २. वही--इंगिय-चिंतिय-पत्थिय-वियाणियाहिं णिउणकुसलाहिं विणीयाहिं।
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