Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्रथम अध्ययन : टिप्पण ११३-११९
सूत्र १३४
११३. विलास, संलाप और उल्लाप (विलाससंलावुल्लाव) विलास - नेत्र विकार अथवा चाक्षुष चेष्टा । संलाप-- परस्पर वार्तालाप ।
उत्ताप काकुध्वनि से युक्त वचन।
सूत्र १४३
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११४. वर्द्धमानक (वद्धमाणग)
वर्धमानक यह आठ प्रकार के मंगलों में चौथा मंगल है। वृत्तिकार ने विभिन्न मतों का उल्लेख करते हुए वर्धमानक के अनेक अर्थ किए हैं जैसे--शराव, पुरुषारूढ पुरुष, पांच प्रकार के स्वस्तिक तथा प्रासाद विशेष |
किन्तु आठ मंगलों के साथ उल्लेख होने के कारण यहां वर्द्धमानक का अर्थ शराव संपुट ही होना चाहिए। 'पुरुषाद्ध पुरुष' के अर्थ में आगे वद्धमाणा शब्द प्रयुक्त हुआ है।
वद्धमाणा --स्कन्ध भारवाही वटुक
कन्धे पर मनुष्य को बैठाकर सवारी के आगे चलने वाले।'
सूत्र १४८
११५. प्रयत्न करना......पराक्रम करना (जइयव्वं ...... परक्कमियव्वं ) यत्न -- प्राप्त संयम योगों के प्रति जागरूक रहना ।
घटना -- चेष्टा- अप्राप्त संयम योग की प्राप्ति के लिए चेष्टा करना । पराक्रम - पौरुष से होने वाली फल प्राप्ति का प्रयत्न । स्थानांग टीका के अनुसार पराक्रम का अर्थ है--शक्ति क्षय होने पर भी विशेष उत्साह बनाए रखना। "
सूत्र १४९
११६. (सूत्र १४९ )
प्रस्तुत सूत्र में हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और अनुगामिक-इन पांच शब्दों का प्रयोग प्रतिपाद्य विषय पर बल देने के लिए किया गया है। प्रत्येक शब्द की अर्थ- भिन्नता पर ध्यान देने पर इनके अर्थ इस प्रकार फलित होते है-
१. तावृति पत्र ६१-विलासनेत्रविकारो वाह
हावो मुखविकारः स्याद् भावश्चित्तसमुद्भवः । विलासनेो विभ्रमो समुद्भवः ।। संताप मिश्रो भाषा, उत्ताप काकुवर्णनम्।
२. वही, पत्र - ६२ -- वद्धमानयं ति शरावं, पुरुषारूढः पुरुष इत्यन्ये स्वस्तिक पंचकमित्यन्ये प्रासादविशेषः इत्यन्ये ।
३. (क) अर्धमागधी कोष, भाग ४ पृष्ठ ३४३
।
(ख) ज्ञातावृत्ति पत्र ६४ वर्धमानकाः स्कन्धारोपितपुराषा: - ४. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ६५ जयव्यमित्यादि प्राप्तेषु संयमयोनेषु यत्नः कार्यः ।
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हित- अपाय रहित
शुभ पुण्यपलदायक क्षम-औचित्य या सामर्थ्य
निःश्रेयस-कल्याण
अनुगामिक-- भविष्य में उपकारक के रूप में साथ देने वाला ।
नायाधम्मकहाओ
सूत्र १५०
११७. इस प्रकार चलो....इस प्रकार बोलो (गंतव्वं .... एवं भासियत्वं ) यहां एवं गंतत्वं ...... एवं भासियव्वं का अर्थ है-संयमपूर्वक चलो, संयमपूर्वक खड़े रहो, संयमपूर्वक बैठो,
संयमपूर्वक लेटो, संयमपूर्वक खाओ और संयमपूर्वक बोलो। इसका आधार दशवैकालिक में प्राप्त होता है।
शिष्य पूछता है-भंते! मैं कैसे चलूं? कैसे खड़ा रहूं? कैसे बैठूं? कैसे लेटू? कैसे खाऊ? और कैसे बोलू?
इसके समाधान में भगवान ने कहा
जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सये 1
जयं भुंजतो भासतो, पावकम्मं न बंधई । "
यहां भी 'एवं' पद में 'जय' का अर्थ अन्तर्गत है।
विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य दशवैकालिक ४/८ का टिप्पण |
सूत्र १५१
११८. संयमपूर्वक लेटता ( तुयट्टइ )
यहां 'तुप' का संस्कृत रूपान्तरण है स्वग्वर्तन सोना। जैन श्रमण की संयमपूर्वक सोने की विधि है सामायिक सूत्र आदि के उच्चारण पूर्वक, शरीर की प्रमार्जना कर संस्तारक और उत्तरपट्ट पर बांह को उपधान बनाकर बाएं पार्श्व से सोना । "
अधिक ऊंचे तकिये का प्रयोग न करना और बायीं करवट सोना स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभप्रद है ।
११९. प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति (पाणेहिं भूएहिं जीवहिं सत्तेहिं) ।
प्राण भूत, जीव और सत्त्व- ये सामान्यत: पर्यायवाची हैं, एकार्थक
५. वही घटितव्यं अप्राप्तप्राप्तये घटना कार्या, पराक्रमितव्यं च पराक्रमः कार्य: पुरुषत्वाभिमानः सिद्धफलः कर्तव्यः ।
६. स्थानांग वृतिपत्र ४१८ शक्तियेऽपि तत्पालने पराक्रम उत्साहातिरेको विधेय इति ।
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७. दसवेआलियं ४ / ८
८. शातावृत्ति, पत्र- ६६--त्वग्वर्तितव्यं शयनीय, सामायिकाचुच्चारणापूर्वक शरीर प्रमानां विधाय संस्तारकोत्तरपट्टयोर्वाहुपधानेन वामपार्श्वतइत्यादिना न्यायेन ।
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