Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
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सयण-संबंधि-परियण-महिलाहिं सद्धिं संपरिखुडा जाई इमाई रायगिहस्स नयरस्स बहिया नागाणि य भूयाणि य जक्खाणि य इंदाणि य खंदाणि य रुद्दाणि य सिवाणि य वेसमणाणि य, तत्थ णं बहूणं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य महरिहं पुष्फच्चणियं करेत्ता जन्नुपायपडियाए एवं वइत्तए--जइ णं हं देवाणुप्पिया! दारगंवा दारियं वा पयामि, तो णं अहं तुभं जायं च दायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणुवड्ढेमि त्ति कटु उवाइयं उवाइत्तए-एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणामेव धणे सत्थवाहे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी--
एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं सद्धिं बहूई वासाइं सद्द-फरिस-रस-गंध-रूवाई माणुस्सगाई कामभोगाई पच्चणुब्भवमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि । तं धण्णाओणंताओ अम्मयाओ जाव कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिण्हिऊणं उच्छंग-निवेसियाणि देंति समुल्लावए सुमहुरे पिए पुणो-पुणो मंजुलप्पभणिए। तं णं अहं अहण्णा अपुण्णा अकयलक्खणा एत्तो एगमवि न पत्ता । तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुन्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाक्ता जाव अक्खयणिहिं च अणुवड्डेमि उवाइयं करित्तए।।
द्वितीय अध्ययन : सूत्र १२-१४ ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और महिलाओं के साथ, उनसे घिरी हुई, राजगृह नगर के बाहर जो ये नाग, भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव और वैश्रवण हैं, वहां अनेक नाग-प्रतिमाओं यावत् वैश्रवण प्रतिमाओं की महान अर्हता वाली पुष्प पूजा कर, घुटनों के बल बैठ, प्रणत हो इस प्रकार कहूं--
देवानुप्रियो! यदि मेरे बालक या बालिका उत्पन्न हो जाए तो मैं तुम्हारी पूजा, दाय, भाग और अक्षयनिधि का संवर्द्धन करूं--इस प्रकार की मनौती करूं--उसने ऐसी संप्रेक्षा की। ऐसी संप्रेक्षा कर उषाकाल में, पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि, दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर , वह जहां धन सार्थवाह था वहां आयी। वहां आकर इस प्रकार बोली--
"दवानुप्रिय ! मैं तुम्हारे साथ बहुत वर्षों से शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप--इन मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का अनुभव करती हुई विहार कर रही हूं फिर भी--मैं बालक या बालिका को जन्म नहीं दे सकी। इसलिए धन्य हैं वे माताएं यावत् जो अपने कमल जैसे कोमल हाथों से उन्हें खींच कर अपनी गोद में बिठाती हैं तथा पुन:पुन: प्रिय, समधुर और मंजुल बोलों वाली लोरियां देती हैं। इस दृष्टि से मैं अधन्या, अपुण्या और अकृतलक्षणा हूं कि इनमें से एक भी वस्तु मुझे प्राप्त नहीं है।
अत: देवानुप्रिय ! मैं तुम से अनुज्ञा प्राप्त कर, विपुल, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाकर यावत् अक्षयनिधि का संवर्द्धन करूं--ऐसी मनौती करना चाहती हूं।
१३. तए णं धण्णे सत्थवाहे भदं भारियं एवं वयासी--ममंपिय णं
देवाणुप्पिए! एस चेव मणोरहे--कहं णं तुमंदारगं वा दारियं वा पयाएज्जासि?--भद्दाए सत्थवाहीए एयमढें अणुजाणइ।।
१३. धन सार्थवाह ने भद्रा भार्या से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये ! मेरा भी
यही मनोरथ है कि कैसे तुम बालक या बालिका को जन्म दो?--(एसा कह) उसने भद्रा सार्थवाही के इस अर्थ का अनुमोदन किया।
१४. तए णं सा भद्दा सत्यवाही धणेणं सत्थवाहेणं अब्भणुण्णाया १४. धन सार्थवाह से अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्ट, तुष्ट चित्तवाली आनन्दित
समाणी हट्टतुट्ठचित्तमाणदिया जाव हरिसवस-विसप्पमाण-हियया यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाली भद्रा सार्थवाही ने विपुल अशन, विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता पान, खाद्य और स्वाद्य को तैयार करवाया। तैयार करवाकर बहुत सुबहुं पुष्फ-वत्थ-गंधमल्लालंकारं गेण्हइ, गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ सारे पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, मालाएं और अलंकार लिए। लेकर अपने निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता रायगिह नयरं मझमज्झेणं निग्गच्छइ, घर से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर राजगृह नगर के बीचोंबीच निग्गच्छित्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता से होकर निकली। निकलकर जहां पुष्करिणी थी वहां आयी। आकर पुक्खरिणीए तीरे सुबहुं पुप्फ-वत्य-गंध मल्लालंकारं ठवेइ, ठक्त्ता पुष्करिणी के तीर पर बहुत सारे पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, मालाएं, और पुक्खरिणिं ओगाहेइ, ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, करेत्ता जलकीडं अलंकार रखे। रखकर पुष्करिणी में अवगाहन किया। अवगाहन करेइ, करेत्ता बहाया कयबलिकम्मा उल्लपडसाडिगा जाई तत्थ कर जल में निमज्जन किया। निमज्जन कर जलक्रीड़ा की। जलक्रीड़ा उप्पलाई पउमाइं कुमुयाइं णलिणाइंसुभगाइं सोगंधियाइं पोंडरीयाई कर स्नान और बलिकर्म किया। गीली साड़ी पहने ही वह, वहां महापांडरीयाइं सयवत्ताई सहस्सपत्ताई ताई गिण्हइ, गिण्हित्ता । जो उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, पुक्खरिणीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता तं प्रष्फ-वत्थ-गंध-मल्लं महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र कमल थे उनको ग्रहण किया। ग्रहण (मल्लालंकारं?) गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणामेव नागघरए य जाव कर पुष्करिणी से बाहर आयी। आकर उन पुष्प, वस्त्र, गंधचूर्ण और
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