Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूत्र १
१. उस काल और उस समय (तणं कालेणं तेणं समएणं) यहां काल से सामान्यकाल विवक्षित है, जैसे अवसर्पिणी काल का चौथा विभाग।
समय से निश्चित कालावधि विवक्षित है, जैसे वह समय जिस समय में चम्पानगरी, अमुक राजा अथवा सुधर्मा स्वामी थे।
'तणं कालेणं तेणं समएणं'--यहां सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप से इसे तृतीयान्तपद भी माना है। हेत्वर्थ में तृतीया विभक्ति की संभावना है। तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई खण्ड १ / पृ. ११
२. वर्णक (वण्णओ)
यह सूचक पद है। सूत्र १, २, ३ में क्रमशः चम्पानगरी, पूर्णभद्र चैत्य और कोणिक राजा का विस्तृत वर्णन औपपातिक सूत्र १, २, १३ और १४ के अनुसार वक्तव्य है। तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई खण्ड १/१. ११
सूत्र २
३. चैत्य (चेइए)
चैत्य शब्द का अर्थ है -- व्यन्तर का आयतन । द्रष्टव्य भगवई खण्ड १/पृ. १२
टिप्पण
५. स्थविर (घेरे)
४. अन्तेवासी (अंतेवासी)
अन्तेवासी का अर्थ है-गुरु के निकट रहने वाला आगम ग्रन्थों में गौतम को सर्वत्र भगवान महावीर का ज्येष्ठ अन्तेवासी कहा गया है। तुलना के लिए भ्रष्टव्य भगवई खण्ड १/ पृ. १४, १५
सूत्र ४
गये हैं।
'स्यविर का अर्थ है वृद्ध ठाणं में तीन प्रकार के स्थविर बतलाये
१. जाति स्थविर जो जन्म पर्याय से साठ वर्ष का हो।
२. श्रुत - स्थविर -- जो स्थानांग और समवायांग का धारक हो । १३. पर्याय - स्थविर -- जो बीस वर्ष की संयम पर्याय वाला हो ।
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१. ज्ञातावृति, पत्र-१ अथ कालसमययोः कः प्रतिविशेषः? उच्यते काल इति सामान्यकालः, अवसर्पिण्याश्चतुर्थविभागलक्षणः समयस्तु तद्विशेषो यत्र सा नगरी, स राजा सुधर्माः स्वामी च बभूव।
२. ही अथवा तृतीय ततस्तेन कालेन अवसर्पिणीयतुरकललगेन हेतुभूतेन तेन समयेन तद्विशेषभूतेन हेतुना ।
३. वही, पत्र- ४ - चैत्यं व्यन्तरायतनम् ।
४. ठाणं ३/१८७
प्रस्तुत प्रसंग में स्थविर शब्द श्रुत स्थविर के अर्थ में प्रयुक्त
हुआ है।
६. प्रस्तुत सूत्र ( सूत्र ४) के विमर्शनीय पद
१. बल - सम्पन्न -- बल का अर्थ है विशिष्ट संहनन के साथ उपलब्ध होने वाला प्राण । *
शक्ति सम्पन्नता के बिना किसी भी क्षेत्र में वैशिष्ट्य अर्जित नहीं किया जा सकता। वीर्य हीन ज्ञान आदि में प्रवृत्त नहीं हो सकता । तत्त्वार्थ वार्तिक में तीन प्रकार की बलालम्बना ऋद्धि का वर्णन है--मनोबली, वचनबली और कायबली ।
मनोबली-मन श्रुतावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम के प्रकर्ष के कारण जो अन्तर्मुहूर्त में सफलश्रुत के उच्चारण में समर्थ होते हैं।
वचनबली--सतत उच्च स्वर से श्रुत का उच्चारण करने पर भी जो थकते नहीं और जिनका कण्ठ स्वर दुर्बल नहीं होता वे वचनबली कहलाते हैं।
कायवती वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से आविर्भूत असाधारण कायबल के कारण जो मासिक चातुर्मासिक, साम्वत्सरिक आदि प्रतिमायोग को धारण करने पर श्रान्ति और क्लान्ति से रहित रहते हैं, वे कायबली कहलाते हैं।
२. रूप-सम्पन्न--रूप का अर्थ है शरीर का सौन्दर्य । देवता मनुष्य से अधिक सुन्दर होते हैं। उनमें सर्वाधिक सुन्दर होते हैं अनुत्तरविमानवासी देव । सुधर्मा स्वामी का सौन्दर्य उनसे भी अनन्तगुणा अधिक था ।
३. लाघव सम्पन्न -- लाघव दो प्रकार का होता है-१. द्रव्य लाघव उपधि की अल्पता ।
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टिप्पण |
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गौरव -- गौरवत्रिक का परित्याग ।
२. भाव लाघव - ऋद्धि गौरव, रस गौरव और साता
विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य उत्तरायणाणि २९ / ४३ का
४. ओजस्वी - - ओज से युक्त, आभासम्पन्न ।
५. तेजस्वी -- शारीरिक दीप्ति से
११
युक्त
६. वर्चस्वी - - वृत्तिकार ने 'वच्चंसी' के दो संस्कृत रूप दिए है वचस्वी और वर्चस्वी ।
जिसका वचन सौभाग्य आदि गुणों से युक्त होता है वह वचस्वी कहलाता है।
५. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८-- घेरे ति श्रुतादिभिर्वृद्धत्वात् स्थविरः । ६. वही, बलं संहननविशेषसमुत्यः प्राणः ।
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७. निशीथभाष्य गाथा ४८. -- ण हु वीरियपरिहीणो पवत्तते नाणमादीसु । ८. तत्त्वार्थ वार्तिक- ३/३७ पृ. २०३
९. तावृति पत्र ८. रूपं अनुत्तरसुररूपादनन्तगुणं शरीरसौन्दर्यम्।
१०. वही, लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं, भावतो गौरवत्रयत्यागः ।
१९. वही - तेजस्वी तेज:-- शरीरप्रभा तद्वांस्तेजस्वी ।
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