Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकाओ
१४. निश्चय
निश्चय के दो अर्थ हैं -- तत्त्व-निर्णय अथवा विहित अनुष्ठानों को अवश्य करने का अभ्युपगम । इससे उनकी निर्णायक क्षमता और तीव्र संकल्प शक्ति का परिचय मिलता है।
१५. दक्षता (लाघव)
प्रस्तुत सूत्र में लाघव शब्द दो बार प्रयुक्त हुआ है। पहला लघुता के अर्थ में और दूसरा दक्षता के अर्थ में । दक्षता के अर्थ में लाघव शब्द भी है। शिल्प आदि के लिए कहा जाता है- यह सब हस्त लाघव है।
यहां लाघव प्रधान से तात्पर्य है आर्य सुधर्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति दक्षतापूर्ण थी।
लाघव शब्द के दोनों अर्थ वृत्ति के आधार पर किए गए हैं। भगवती वृत्ति में भी ऐसा ही मिलता है। मीमांसा करने पर प्रतीत होता है कि आर्जव और मार्दव के साथ लाघव के प्रयोग का संबंध दस प्रकार के श्रमण धर्म में आए लाघव के साथ है। उसका अर्थ अल्पोपधि और गौरवत्रिक का त्याग होना चाहिए। बल, रूप आदि के साथ प्रयुक्त लाघव शब्द का संबंध दक्षता के साथ होना चाहिए ।
१६. विद्या, मंत्र
विद्या और मंत्र के प्रयोग से विशिष्ट शक्तियां जागृत होती है। साधना विधि, अधिष्ठान-भेद और आकृति - विन्यास की दृष्टि से इन दोनों में कुछ भेद हैं। जैसे-
विद्या - प्रज्ञप्ति आदि स्त्री देवता द्वारा अधिष्ठित होती है। जिसकी आराधना-साधना सापेक्ष हो ।
मंत्र--हरिणेगमेषी आदि पुरुष देवता द्वारा अधिष्ठित होता है । जिसकी आराधना - साधना निरपेक्ष हो ।
निशीथ भाष्य चूर्णि में मिलता है-
इत्थी अभिहाणा ससाहणा वा विज्जा । पुरिसाभिहाणो, पढियसिद्धो य मंतो ।। "
उत्तराध्ययन] बृहद्वृत्ति में मंत्र के संबंध में विशेष जानकारी मिलती है जो देवताधिष्ठित होता है, जिसके आदि में 'ऊँ' और अन्त 1
में 'स्वाहा' होता है, जो 'ही' आदि वर्ण विन्यासात्मक होता है, उसे मंत्र
१. ज्ञातावृत्ति पत्र ८-- निश्वयः -- तत्त्वानां निर्णयः विहितानुष्ठानेषु वाऽवयं करणाभ्युपगमः ।
२ . वही -- लाघवं क्रियासु दक्षत्वम् ।
"
३. भगवई, खण्ड १, पृ. २६८, २६९
४. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ८-- विद्या: प्रज्ञप्त्यादिदेवताधिष्ठिता वर्णानुपूर्व्यः, मन्त्राः हरिणे गमिष्यादिदेवताधिष्ठितास्ता एव अथवा विद्याः ससाधना:, साधनारहिता: मन्त्राः |
५. निशीथभाष्य, भाग ३, पृ. ४२२
६. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र-४१७-- 'मन्त्रम्' ऊँकारादि स्वाहापर्यन्तो ह्रींकारादि
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प्रथम अध्ययन टिप्पण ६ कहा जाता है।' विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य उत्तरज्झयणाणि १५/८ का टिप्पण |
१७. ब्रह्मचर्य
वृतिकार ने बंभ का मूल अर्थ ब्रह्मचर्य ही किया है। वैकल्पिक रूप से सब प्रकार के कुशल अनुष्ठान को ब्रह्म माना है।
१८. वेद
1
वेद शब्द का अर्थ है-ज्ञान, अनुभव या सवेदन आर्य सुधर्मा ज्ञान-सम्पन्न थे, यह उल्लेख पहले आ चुका है। अतः यहां वेद का अर्थ आगम है। इसकी पुष्टि निशीथ चूर्णि से भी होती है। वहां आयारो के लिए 'वेद' शब्द प्रयुक्त हुआ है।"
वृत्तिकार ने वेद का अर्थ आगम किया है। आगम के तीन प्रकार हैं-- लौकिक, लोकोत्तर, कुप्रावचनिक ।' आर्य सुधर्मा इन तीनों के अधिकृत ज्ञाता थे ।
१९. नय
नीति अथवा नैगम आदि नय ।
२०. नियम
विचित्र प्रकार के अभिग्रह ।
शान्त्त्याचार्य ने भी अभिहात्मक व्रत को नियम कहा है।" योग-दर्शन सम्मत अष्टांग योग में नियम का स्थान दूसरा है उसके अनुसार शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप और देवता प्रणिधान ये नियम कहलाते हैं। "
२१. शौच
शौच के दो प्रकार हैं--द्रव्य शौच और भाव शौच । द्रव्य शौच निर्लेपता |
भाव शौच--अनवद्य समाचरण ।' यह दशविध श्रमण धर्म का एक प्रकार है। इसका तात्पर्य है अर्थ के प्रति होने वाली अनाकांक्षा ।
वर्णविन्यासात्मकस्तम्।
७. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ८-- ब्रह्म ब्रह्मचर्यं सर्वमेव वा कुशलानुष्ठानम् । ८. निशीथभाष्य पीठिका गा. १
व भवेरमइओ अारसपसाहस्सिओ वेओ
।
९. ज्ञातावृत्ति पत्र-८--वेद आगमो लौकिक लोकोत्तर- कुप्रवचनिकभेदः । १०. वही नियमा: विचित्रा अभिग्रहविशेषा: ।
११. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र- ४५१-४५२ - नियमश्च द्रव्याद्यभिग्रहात्मकः । १२. पातञ्जल योगदर्शन २ / ३२ -- शौचसन्तोषतपः - स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।
१३. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ८ -- शौचं द्रव्यतो निर्लेपता, भावतोऽनवद्यसमाचारताः ।
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