Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्रथम अध्ययन : टिप्पण २२-२७
२२. मान, उन्मान और प्रमाण से प्रतिपूर्ण (माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्ण)
ये शरीर की उचित लम्बाई, चौड़ाई और भार के सूचक शब्द
है ।
मान--जल द्रोण प्रमाणता । पानी से भरे कुण्ड में पुरुष को बिठाने पर जो जल बाहर निकलता है, वह यदि 'द्रोण' परिमित हो तो वह मेय पुरुष मान प्राप्त कहलाता है।
उन्मान--अर्धभार प्रमाणता । तुला से तुलने पर जिसका व अर्धभार होता है, वह पुरुष उन्मान प्राप्त कहलाता है। '
प्रमाण -- अपनी अंगुल से १०८ अंगुल ऊंचाई। ऐसी ऊंचाई जिसे प्राप्त होती है, वह प्रमाण प्राप्त कहलाता है। '
विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य- अणुओगदाराई पृ. २३४-२३७ २३. साम, दण्ड, भेद और उपप्रदान (साम-दंड-भेद - उवप्पयाण) राजा के तीन प्रकार की शक्तियां होती हैं--प्रभुशक्ति, उत्साह शक्ति और मंत्र शक्ति ।
मंत्र शक्ति के पांच प्रकार हैं--सहाय, साधन, उपाय, देशकाल का यथोचित विभाजन और विपत्ति से बचाव
उपाय के चार प्रकार हैं--साम, दण्ड, भेद और उपप्रदान । प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट साम, दण्ड, भेद और उपप्रदान ये नीतियां उपाय के ही रूप हैं। शब्द और क्रम रचना में कुछ अन्तर है ।
साम- परस्पर उपकार प्रदर्शन और गुण कीर्तन द्वारा शत्रुओं को अपने वश में करने का उपाय। '
दण्ड -- परिक्लेश की स्थिति में शत्रु पक्ष से धन का ग्रहण । भेद-- जिस शत्रु पर विजय प्राप्त करना हो, उसके परिपार्श्व के व्यक्तियों को स्वामी आदि के स्नेह से दूर कर फूट डलवा देना।" उपप्रदान ---गृहीत धन को लौटा देना।
२४. सुप्रयुक्त नय की विधाओं का वेत्ता (सुपउत्त-नय- विहण्णू) वृत्तिकार ने सुप्रयुक्त का सम्बन्ध पूर्ववर्ती वाक्य से जोड़ा है। वह साम, दण्ड, भेद और उपप्रदान -इन चारों राजनीतियों का सम्यक् प्रयोग
१. ज्ञातावृत्ति, पत्र- १३-मानं जलद्रोणप्रमाणता कय? जलस्यातिभृते कुण्डे पुरुषे निवेशिते यज्जलं निस्सरति, तद्यदि द्रोगमानं भवति तदा स पुरुषो मानप्राप्त उच्यते ।
२. यही उन्मान अभारप्रमाणता तुलारोपितः पुरुषो यद्यर्द्धभार तुलति तदा स उन्मानप्राप्त इत्युच्यते ।
३. वही प्रमागं स्वांगुलेनाष्टोत्तरशतोष्पता।
४. अभिधानचिंतामणि ३/३९९ शक्तवस्तिः प्रभुत्साहमन्नाः ।
५. वही - ३/४०० सामदामभेददण्डाः उपायाः ।
६. वही परस्परोपकारप्रदर्शनगुणकीर्तनादिना शत्रोरात्मवशीकरण साम
७.
वही - तथाविधपरिक्लेशे धनहरणादिको दण्डः ।
८. वही - - विजिगीषतशत्रुपरिवर्गस्य स्वाम्यादिस्नेहापनयनादिको भेदः ।
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करने वाला था और नय की विधाओं का ज्ञाता था।"
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नायाधम्मकहाओ
२५. ईहा, अपोह, मार्गण, गवेषण (ईहा-वह-मग्गण - गवेसण ) ईहा अर्थ की समालोचना, जैसे यह स्थाणु है या पुरुष? यह संशय का उत्तरवर्ती ज्ञान है।
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अपोह अर्थ का निश्चय जैसे--यह स्थाणु ही है मार्गण अन्य धर्म का पर्यालोचनापूर्वक निर्णय जैसे यह स्थाणु है क्योंकि इस पर लताएं चढ़ी हुई हैं। लताओं का चढ़ना स्थाणु होने का साक्ष्य है इसलिए यह अन्वय (विधि) धर्म है । १२
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गवेषण--व्यतिरेक धर्म का पर्यालोचनापूर्वक निर्णय जैसे यह पुरुष नहीं है क्योंकि इसमें हिलना-डुलना तथा खुजलाना आदि क्रियाएं नहीं हो रही हैं। हलन चलन का अभाव पुरुष न होने का साक्ष्य है इसलिए यह व्यतिरेक (निषेध) धर्म है । "
२६. अर्थशास्त्र में विशारद मतिवाला (अत्यसत्य-मविसारए)
यहां अर्थशास्त्र से कौटिलीय अर्थशास्त्र आदि गृहीत हैं ऐसा वृत्तिकार ने लिखा है ।" भगवान महावीर के समय में कौटिलीय अर्थशास्त्र की रचना नहीं हुई इसलिए यहां कोई प्राचीन अर्थशास्त्र विवक्षित होना चाहिए।
२७. सामुदायिक कर्त्तव्यों (कुटुंबेसु)
कुटुम्ब का सामान्य अर्थ होता है परिवार। वृत्तिकार ने यही अर्थ स्वीकृत किया है। किन्तु यह विमर्शनीय है। उक्त वाक्यांश में सात पद हैं-- राजा श्रेणिक के बहुत से कार्यों (कारणों) कुटुम्बों, मंत्रणाओं, गोपनीय कार्यों, रहस्यों और निर्णयों में अभयकुमार का मत पूछा जाता था । ये सारे शब्द तुल्य विभक्ति, वचन एवं कारक वाले हैं। सभी प्रशासन सम्बन्धी विशिष्ट प्रवृत्तियों के सूचक हैं।
जैसे 'कुटुंब' से पूर्ववर्ती शब्द 'कज्जेसु य कारणेसु य' तथा उत्तरवर्ती शब्द 'मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य' ये सारे प्रशासकीय प्रवृत्तियों के अंगभूत शब्द हैं, तो 'कुटुंबेसु य' यह भी किसी वैसी प्रवृत्ति का सूचक होना चाहिए। किन्तु वृत्तिकार ने मात्र एक 'कुटुम्ब'
९. वही गृहीतधनप्रदानादिकमुपप्रधानम् ।
१०. वही -- 'नयानां नैगमादीनां उक्तलक्षणनीतिनां च ।
११. व्ही हा च स्थाणुरयं पुरुषो वेत्येव सदर्धलोचनाभिमुखा गतिः येष्टा । १२. ही स्थाणुरेवायमित्यादिरूपो निश्वयः ।
मार्गणं च-इह वल्लयुत्सर्प्पणादय: स्थाणुधर्मा एवं प्रायो घटन्ते इत्याद्यन्वयधर्मालोचनरूपम्।
१३. वही गवेषणं च शरीरकण्डूयनादयः पुरुषधर्माः प्रायो न घटत इह इति व्यतिरेणधर्मालोचनरूपम् ।
१४. वही--अर्थशास्त्रे अर्थोपायव्युत्पादग्रन्थे कौटिल्यराजनीत्यादौ या मतिर्बोधस्तया विशारदः ।
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