Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
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प्रथम अध्ययन : टिप्पण १७-२१ १७. ज्ञाता (जिणाणं)
___ कश्मीर के उत्तर में एक ही स्थान या बिन्दु से पर्वतों की छह जिन शब्द सामान्यतया जि-जये धातु से निष्पन्न प्रतीत होता है श्रेणियां निकलती हैं। उनके नाम हैं--हिमालय, काराकोरम, कुबेनलुम, जिससे इसका अर्थ 'विजेता' गम्य होता है। इसका मूल चिन' होनाहियेनशान, हिन्दुकुश और सुलेमान। इनमें जो केन्द्र बिन्दु है, उसे पुराणों चाहिए, जो चिति-संज्ञाने से सम्बन्धित है।
में मेरु पर्वत कहा गया है। यह पर्वत भूपद्म की कर्णिका जैसा है। प्राकृत में च के स्थान पर ज के प्रयोग का प्रचलन रहा है। जैसे चम्पा के दक्षिण में १६ कोस की दूरी पर मंदारगिरि नाम का एक धर्म्यध्यान के चार प्रकार आणा विजए, अवाय विजये आदि। वैसे ही यहां जैन तीर्थ है। वह आजकल मंदारहिल के नाम से प्रसिद्ध है। कुछ विद्वानों चिन शब्द से जिन बन गया। इसका अर्थ है-ज्ञाता, जानने वाला। के अभिमत से यही प्राचीन मंदर पर्वत हो सकता है। सूत्र १२
४. महेन्द्र--टीकाकार ने महेन्द्र का अर्थ देवराज इन्द्र किया है।" १८. राजगृह (राजगिहे)
किन्तु यह विमर्शनीय है क्योंकि हिमालय आदि तीन पर्वतों के साथ इन्द्र यह मगध जनपद की राजधानी थी। महाभारत के सभा पर्व में का प्रयोग संगत नहीं लगता। पर्वतवाची शब्दों के साहचर्य से महेन्द्र शब्द इसका नाम गिरिव्रज भी है। महाभारतकार तथा जैन ग्रन्थकार यहां पांच भी पर्वतवाची होना चाहिए। पर्वतों का उल्लेख करते हैं। दोनों में पर्वतों के नामों में कुछ अन्तर अवश्य
सूत्र १६ है। सम्भव है इन पर्वतों के कारण ही इसे गिरिव्रज कहा गया हो।
२०. उसका शरीर अहीन और प्रतिपूर्ण पांच इन्द्रियों वाला वर्तमान में इसका नाम राजगिर है। आवश्यक चूर्णि में राजगृह
(अहीणपडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरे) के इतिहास के साथ-साथ समय-समय पर होने वाले नए नामकरण का भी
वृत्तिकार ने अहीण पंचिंदियसरीरे पाठ मानकर व्याख्या की है। उल्लेख है। उसके अनुसार इस नगर के क्रमश: ये नाम रहे हैं क्षितिप्रतिष्ठित,
उसके अनुसार इसका अर्थ होता है--जिसमें पांचों ही इन्द्रियां लक्षण और चनकपुर, ऋषभपुर, कुशाग्रपुर और राजगृह । राजगृह में एक उष्ण झरने
स्वरूप की दृष्टि से अन्यून हो ऐसे शरीर वाला ।' का उल्लेख मिलता है। उसका नाम महातपोपतीरप्रभ है। चीनी प्रवासी फाहियान और हेनसांग अपनी डायरी में इस उष्ण झरने को देखने का २१. लक्षण और व्यंजन की विशेषता से युक्त (लक्खणवंजणगुणोववेए) उल्लेख करते हैं। बौद्ध ग्रन्थों में इस उष्ण झरने को तपोद कहा गया है। लक्षण--शरीरगत स्वस्तिक, चक्र आदि चिह्न । विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य - ठाणं १०/२७ का टिप्पण
व्यंजन--मष, तिल. आदि
ये दोनों ही प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते हैं। प्रशस्त १९. (सूत्र १४)
चिह्न प्रशस्त व्यक्तित्व के सूचक होते हैं। निशीथ भाष्य में लक्षण और प्रस्तुत सूत्र में हिमवान्, मलय, मन्दर और महेन्द्र-इन चार व्यंजन की व्यवस्थित जानकारी मिलती है। लक्षण के दो प्रकार पर्वतों का उल्लेख है--
हैं--बाह्य-स्वर, वर्ण आदि । अन्तरंग-स्वभाव, सत्य आदि। १.हिमवान्--हिमालय।
बाह्य लक्षण--साधारण व्यक्ति के शरीर में ३२, बलदेव-वासुदेव २. मलय--मलय पर्वत।
के शरीर में १०८ और चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर के शरीर में १००८ लक्षण ३. मन्दर--मेरु पर्वत । यह सबसे ऊंचा पर्वत है। यहां से दिशाओं होते हैं। ये लक्षण शुभ कर्मोदय जनित हैं।१० का प्रारम्भ होता है। इसे नाना प्रकार की औषधियों एवं वनस्पतियों से अन्तरंग लक्षण अनेक होते हैं। प्रज्ज्वलित कहा गया है। यहां विशिष्ट औषधियां होती हैं। उनमें कुछ प्रकाश लक्षण-व्यंजन का भेद-- करने वाली होती हैं। उनके योग से मंदर पर्वत भी प्रकाशित होता है।' शरीर के मान-उन्मान, प्रमाण आदि लक्षण होते हैं और तिल-मषक सूत्रकृतांग में भी मेरु पर्वत को अनेक विशेषताओं से युक्त बताया गया है।' आदि व्यंजन होते हैं। अथवा जो शरीर के साथ उत्पन्न होता है, वह ज्ञाता में भी मेरु को दिव्य औषधियों से प्रज्ज्वलित कहा गया है। लक्षण है और जो बाद में उत्पन्न होता है वह व्यंजन है।" १. ठाणं ४/६५
९. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१३ २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २००
१०. निशीथ भाष्य, गाथा ४२९२-९३ ३. उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति, पत्र-३५२
दुविहा य लक्खणा खलु, अभिंतरबाहिरा उ देहीणं। ४. सूत्रकृतांग १/६/१२ वृत्ति
बहिया सर-वण्णाई, अंतो सब्भावसत्ताई।। ५. नायाधम्मकहाओ १/१/५६
बत्तीसा अट्ठसयं अट्ठसहस्साई च बहुतराइं च । ६. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ. १६४
देहेसु देहीण लक्खणाणि सुहकम्मजणियाई ।। ७, ज्ञातावृत्ति, पत्र-७--महेन्द्र शक्रादिदेवराजस्तद्वत् सार: प्रधानः। ११. वही, गाथा ४२९४ ८. वही १३--अहीनानि-अन्यूनानि लक्षणतः स्वरूपतो वा, पञ्चापीन्द्रियाणि माणुम्माणप्पमाणादि लक्खणं वंजणं तु मसगादी। यस्मिंस्तत्तथाविधं शरीरं यस्य स।
सहजं च लक्खणं वंजणं तु पच्छा समुप्पन्नं ।।
सूत्र १४
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