Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्रथम अध्ययन : टिप्पण ७३-७९
७६
भेद से इन में किचित् अर्थ भेद है। यहां साक्षात् सम्बन्धित व्यक्ति को देने के अर्थ में "दा" और उससे सम्बन्धित किसी अन्य व्यक्ति को देने के अर्थ में "प्रयच्छ" का प्रयोग हुआ है।'
सूत्र ५९
७४. विश्वस्त (वीसत्थे )
यहां विश्वस्त का अर्थ है -- उत्सुकता रहित ।
सूत्र ६७
७५. आराम.......... वनषंडों (आरामेसु..
वणसडेसु)
१. आराम -- ऐसे बगीचे जिनमें माधवी लता आदि के मण्डप हों
और जहां दम्पति रमण करते हों।
२. उद्यान -- ऐसे बगीचे, जो फूलों से लदे वृक्षों से संकुल हों और उत्सव आदि के समय बहुजन भोग्य होते हों । *
३. कानन--सामान्य वृक्ष समूह से युक्त नगर के निकटवर्ती वन विभाग
४. वन-नगर से दूरवर्ती वन विभाग।'
५. वनषण्ड -- एक जातीय वृक्ष समूह से शोभित वन प्रदेश। ७ विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य--ठाणं २ / १२५ पृ. १४५ सूत्र १५८ की वृत्ति में वन और वनषण्ड के अर्थ में कुछ भिन्नता है । देखें सूत्र १५८ का टिप्पण |
सूत्र ७२
७६. हित, मित और पथ्यकर होगा (हिय, मिय, पत्थयं)
एक ही प्रकार का भोजन सब ऋतुओं और सब क्षेत्रों में अनुकूल नहीं होता। अतः प्रत्येक ऋतु और प्रदेश की दृष्टि से आहार का आवश्यक होता है।
हित वह आहार जो मेधावर्धक और आयुवर्धक हो। मित-परिमित वृत्तिकार ने इसका अर्थ इन्द्रियों के लिए अनुकूल किया है।
।
पथ्य-वह आहार जो रोग पैदा करने का कारण न बने।" निशीथ भाष्य के अनुसार स्निग्ध और मधुर भोजन आम आयुष्य को पुष्ट करता है, शरीर और इन्द्रियों की पटुता तथा मेधा का विकास
करता है।
इसका विश्लेषण करते हुए चूर्णिकार लिखते हैं-- देवकुरु और उत्तरकुरु- ये क्षेत्र सहजतया स्निग्धता प्रधान होते हैं। इसीलिए वहां के
१. ज्ञातावृत्ति, पत्र-३९ दलयामि तुभ्यं ददामि किंवा प्रयच्छामिभवत्संगतायान्यस्मै ।
२. वही विश्वातो विश्वासवान् निरुत्सुको वा ।
३. वही-आरभन्ति येषु माधवीलतागृहादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामाः । ४. वही - पुष्पादिमवृक्षसंकुलानि उत्सवादी बहुजन - भोग्यानि उद्यानानि । ५. वही सामान्ययुक्तानि नगरासन्नानि काननानि ।
६. वही - नगरविप्रकृष्टानि वनानि ।
नायाधम्मकहाओ
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व्यक्ति दीर्घायु होते हैं सुषमा सुषमा काल विभाग में पृथ्वी और वायु स्निग्धता प्रधान होते हैं, वहां भी प्राणी दीर्घजीवी होते हैं। वैसे ही यहां भी स्निग्ध और मधुर आहार से आयुष्य और देह की पुष्टि होती है। इन्द्रियां पटु होती हैं। दुग्ध आदि के सेवन से मेधा का विकास होता है।"
इससे यह स्पष्ट है कि आहार हमारे व्यक्तित्व के समस्त अंगों को प्रभावित करता है ।
वर्तमान में आहार चिकित्सा नाम से स्वतन्त्र चिकित्सा पद्धति विकसित हो रही है। उसके द्वारा आहार परिवर्तन के आधार पर अनेक दुःसाध्य रोगों का उपचार किया जाता है।
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७७. (सूत्र ७२)
प्रस्तुत सूत्र में गर्भवती स्त्री की चर्या का संक्षिप्त किन्तु महत्त्वपूर्ण दिशा निर्देश है।
भावी शिशु के सही निर्माण के लिए मां का खड़ा रहना, बैठना और सोना किस प्रकार का हो? उसकी विभिन्न मुद्राओं का डिम्ब पर सूक्ष्म प्रभाव पड़ता है।
भोजन की दृष्टि से अति तीखा, अति कडुआ, अति कषैला, अति खट्टा और अति मीठा आहार उसके लिए वर्जनीय होता है ।
भावनाओं की दृष्टि से अतिशोक, अतिमोह, अतिभय, अति परित्रास का वर्जन करना शिशु के लिए हितकर होता है ।
गर्भिणी स्त्री के निवास स्थान, उसके वस्त्र, मालाएं और अलंकार-इन सबका भी शिशु पर अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। दृष्टियों से प्रस्तुत सूत्र के संकेत मननीय और अन्वेषणीय है।
मां के लाल रंग के वस्त्र शिशु की उद्विग्नता और रोग के निमित्त बन जाते हैं। वस्त्रों का परिवर्तन करते हो वे पुनः संतुलित हो जाते हैं। ऐसा प्रयोग के आधार पर जाना जा सकता है। गर्भावस्था में आहार, विहार, वस्त्र परिधान आदि सबका विदेक किया जाता है।
सूत्र ७५
७८. उनके मस्तक पर से दासत्व-- दासचिह्न को धो डाला । ( मत्थयधोयाओ करेइ)
इसका अर्थ है-जीवन पर्यन्त दास कर्म से मुक्त करना।
सूत्र ७६ ७९. पुष्पमालाओं के समूह (मल्लदामकलावं)
सामान्यतः मल्लदाम का अर्थ पुष्पमाला किया जाता है। वस्तुतः
७. वही वनखण्डेषु च एकजातीयवृक्षसमूहेषु ।
८. वही, पात्र ४०-- हितं मेघायुरादिवृद्धिकारणत्वात्। मितमिन्द्रियानुकूलत्वात्। पध्यमरोगकारणत्वात् ।
९. निशीय भाष्य गावा ३५४१-पुरे आऊं पुरसति देहिंदिपाडवं मेहा। १०. वही, पृ. २३६
११. ज्ञातावृत्ति, पत्र - ४३ - - मत्ययधोयाउत्ति धौतमस्तका: करोति अपनीतदासत्वा इत्यर्थः ।
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