Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
प्रथम अध्ययन : सूत्र १५५-१५८
४६ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमझे आवसित्तए त्ति कटु एवं संपेहेसि, संपेहेत्ता अट्ट-दुहट्टवसट्ट-माणसगए निरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेसि, खवेत्ता जेणामेव अहं तेणामेव हव्वमागए।
से नूणं मेहा! एस अत्थे समत्थे? हंता अत्थे समत्थे।
नायाधम्मकहाओ को छू जाते हैं, यावत् कुछेक अपने पैरों की रजों से मुझे धूलि-लिप्त कर जाते हैं। अत: मेरे लिए उचित है, मैं उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर श्रमण भगवान महावीर को पूछ पुन: घर में चला जाऊं--तूं ऐसी संप्रेक्षा करने लगा। ऐसी संप्रेक्षा कर आर्त, दु:ख से आर्त और कामना से आर्त मानस वाले तूने नरक के समान उस रात को बिताया। रात बिताकर जहां मैं हूं वहां शीघ्र आ गया।
मेघ यह बात सही है?' "हां भन्ते ! सही है।"
भगवया सुमेरुप्पभ-भवनिरूवण-पदं १५६. एवं खलु मेहा! तुम इओतच्चे अईए भवग्गहणे क्यड्ढगिरिपायमूले
वणयरेहिं निव्वत्तियनामधेज्जे सेए संख-उज्जल-विमल-निम्मलदहिघण-गोखीर-फेण-रयणियरप्पयासे सत्तुस्सेहे नवायए दसपरिणाहे सत्तंगपइट्ठिए सोम-सम्मिए सुरूवे पुरओ उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिट्ठओ वराहे अइयाकुच्छी अच्छिद्दकुच्छी अलंबकुच्छी पलंबलंबोदराहरकरे धणुपट्टागिति-विसिट्टपुढे अल्लीणपमाणजुत्त-वट्टिय-पीवर-गत्तावरे अल्लीण-पमाणजुत्तपुच्छे पडिपुण्ण-सुचारुकुम्मचलणे पंडुर-सुविसुद्ध-निद्ध-निरुवहयविसतिनहे छदंते सुमेरुप्पभे नाम हत्थिराया होत्था ।।
भगवान द्वारा सुमेरुप्रभ-भव का निरूपण-पद १५६. 'मेघ! तू अतीत में इससे पूर्व तीसरे जन्म में, वैताढ्य पर्वत की
तलहटी में सुमेरुप्रभ नाम का हस्तिराज था। तेरा यह नाम वनवासी लोगों ने रखा था। तूं शंख की भांति उज्ज्वल, विमल और निर्मल प्रभा वाला, दही के चक्के, गोक्षीर, फेन और चन्द्रमा जैसा श्वेत, सात हाथ ऊंचा, नौ हाथ लम्बा, दस हाथ चौड़ा, सात अंगों से प्रतिष्ठित सौम्य,१२२ प्रमाणोपेत अंगों वाला, सुरूप, आगे से ऊंचा, उन्नत सिर वाला बैठने में सुखकर, सूअर के समान झुके हुए पृष्ठ भाग वाला और बकरी की भांति उन्नत पेट वाला था। पेट में सलवटें नहीं थी। वह लटक नहीं रहा था। गणेश की भांति अधर और शुण्डादण्ड लम्बे थे। पीठ विशिष्ट धनुषपृष्ठ के आकार जैसी थी। शरीर का अपर भाग सुव्यवस्थित, प्रमाण युक्त, वर्तुल और पुष्ट था। पूंछ सुव्यवस्थित और प्रमाणयुक्त थी। चरण प्रतिपूर्ण, सुन्दर और कछुए की भांति उभरे हुए थे। बीसों नख श्वेत, साफ, चिकने और निरुपहत थे और दांत छह थे।
१५७. तत्थ णं तुम मेहा! बहूहिं हत्थीहि य हस्थिणियाहि य लोट्टएहि
य लोट्टियाहि य कलभएहि य कलभियाहि य सद्धिं संपरिवुडे हत्थिसहस्सनायए देसए पागड्ढी पट्ठवए जूहवई वंदपरिवड्ढए, अण्णेसिं च बहूणं एकल्लाणं हत्थिकलभाण आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा-ईसर-सेणावच्चंकारेमाणे पालेमाणे विहरसि॥
१५७. मेघ! वहां तूं अनेक हाथियों, हथिनियों, छोटे-शिशुओं और वयः प्राप्त
कलभों के साथ, उनसे संपरिवृत रहता था। तूं हजार हाथियों का नायक, निदेशक, अग्रगामी, कार्य नियोजका२३, यूथपति और अपने यूथ का संवर्द्धन करने वाला था। तूं अन्य भी बहुत सारे एकाकी हस्तिकलभों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व, आज्ञा, ऐश्वर्य और सेनापतित्व करता हुआ, उनका पालन करता हुआ विहार कर रहा था।
१५८. तएणं तुम मेहा! निच्चप्पमत्ते सई पललिए कंदप्परई मोहणसीले
अवितण्हे कामभोगतिसिए बहूहिं हत्थीहि य हत्थिणियाहि य लोट्टएहि य लोट्टियाहि य कलभएहि य कलभियाहि य सद्धिं संपरिवुडे वेयड्दगिरिपायमूले गिरीसु य दरीसु य कुहरेसु य कंदरासु य उज्झरेसु य निझरेसु य वियरएसु य गड्डासु य पल्ललेसु य चिल्ललेसु य कडगेसु य कडयपल्ललेसु य तडीसु य वियडीसु य टंकेसु य कूडेसु सिहरेसु य पन्भारेसु य मंचेसु य मालेसु य काणणेसु
१५८. मेघ! उस समय तूं नित्य प्रमत्त, सदा क्रीड़ासक्त, कामप्रिय, कामरुचि,
अतृप्त और काम भोगों का प्यासा होकर, बहुत से हाथियों, हथिनियों, छोटे शिशुओं और वय प्राप्त कलभों के साथ, उनसे संपरिवृत हो, वैताढयपर्वत की तलहटियों, दरियों, खोह, कन्दराओं, जल-प्रपातों, झरनों, नालों, गड्ढों, तलाइयों छोटे-छोटे जलस्रोतों, मेखलाओं, मेखलाओं में स्थित तटीय प्रदेश, तराइयों, तराई के जंगलों, पर्वत की घाटियों वृत्त-पर्वतों, शिखरों, ढलानों, पुलियों, मालों, काननों, वनों, वनषण्डों,
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org