Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्रथम अध्ययन : सूत्र २०१-२०४
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नायाधम्मकहाओ २०१. तए णं से मेहे अणगारे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुत्तं २०१. अनगार मेघ ने गुणरत्न संवत्सर नामक तप:कर्म का यथासूत्र,
अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं काएणं फासेइ पालेइ सोभेइ तीरेइ यथाकल्प और यथामार्ग, काया से सम्यक् स्पर्श किया, पालन किया, किट्टेइ अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं काएणं फासेत्ता पालेता शोधन किया, पारित किया और उसका कीर्तन किया। उसको यथासूत्र, सोभेत्ता तीरेत्ता किमुत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, यथाकल्प और यथामार्ग काया से सम्यक् स्पर्श करके, पालन करके, वंदित्ता नमंसित्ता बहूहिं छट्ठट्ठमदसमवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं शोधन करके, पारित करके, कीर्तन करके श्रमण भगवान महावीर को विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।।
वंदना-नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर अनेक प्रकार के षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त और द्वादश भक्त तथा पाक्षिक और मासिक तप--इस प्रकार विचित्र तप:कर्म के द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ विहार करने लगा।
मेहस्स-सरीरदसा-पदं २०२. तए णं से मेहे अणगारे तेणं ओरालेणं विपुलेणं सस्सिरीएणं
पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारेणं उत्तमेणं महाणुभावेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मसे किडिकिडियाभूए अट्ठिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्था--जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भासिस्सामि त्ति गिलाइ।
से जहानामए इंगालसगडिया इ वा कट्ठसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा तिलंडासगडिया इ वा एरंडसगडिया इवा--उण्हे दिण्ण सुक्का समाणी ससदं गच्छइ, ससई चिट्ठइ, एवामेव मेहे अणगारे ससदं गच्छइ, संसद्द चिट्ठइ, उवचिए तवेणं, अवचिए मंससोणिएणं, हुयासणे इव भासरासिपरिच्छन्ने तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अईव-अईव उवसोभेमाणे-उवसोभेमाणे चिट्ठइ।।
मेघ की शरीर-दशा का वर्णन-पद २०२. मेघ उस प्रधान, विपुल, शोभायित, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव,
धन्य, मंगलमय, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदार, उत्तम और महान प्रभावी तप:कर्म से सूखा, रूखा और मांसरहित हो गया। उठते-बैठते समय किट-किट शब्द से युक्त, चर्मविष्टित अस्थिवाला, कृश और धमनियों का जाल मात्र हो गया। वह प्राणबल से चलता और प्राणबल से ठहरता। बोलने के पश्चात ग्लानि का अनुभव करता, बोलने के समय भी ग्लानि का अनुभव करता और बोलूंगा--ऐसा सोचकर भी ग्लानि का अनुभव करता।
जैसे कोई कोयलों से भरी हुई गाड़ी, ईंधन से भरी हुई गाड़ी, पत्तों से भरी हुई गाड़ी, तिलदंडों से भरी हुई गाड़ी अथवा ऐरण्ड की लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी ताप लगने से सूखी हुई सशब्द चलती है, सशब्द ठहरती है, वैसे ही अनगार मेघ सशब्द (किट-किट की ध्वनि सहित) चलता और सशब्द ठहरता। वह तप से उपचित, मांस शोणित से अपचित हो गया। वह राख के ढेर से ढकी हुई आग की भांति तप, तेज तथा तपस्तेज की श्री से अतीव-अतीव उपशोभित होता हुआ, उपशोभित होता हुआ रहने लगा।
मेहस्स विपुलपव्वए अणसण-पदं २०३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे जाव पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नयरे जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गह ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।।
मेघ का विपुल पर्वत पर अनशन-पद २०३. उस काल और उस समय में धर्म के आदिकर्ता तीर्थकर यावत् श्रमण
भगवान महावीर क्रमश: विहरण करते हुए, ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए और सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां राजगृह नगर और गुणशिलक चैत्य था, वहां आए। वहां आकर उन्होंने प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली। अनुमति लेकर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे।
२०४. तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि
धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं विपुलेणं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेगं उदग्गेणं उदारेणं उत्तमेणं महाणुभावणं
२०४. किसी समय मध्य रात्रि में धर्मजागरिका करते हुए अनगार मेघ के
मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत, संकल्प उत्पन्न हुआ--“मैं इस प्रधान, विपुल, शोभायित, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदार, उत्तम और महान प्रभावी तप:कर्म से सूखा, रूखा, मांस रहित
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