Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ मेहस्स समप्पणपुव्वं पुणो पव्वज्जा-पदं १९१. तएणं से मेहे कुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुत्वभवे
दुगुणाणीयसवेगे आणंदअंसुपुण्णमुहे हरिसवस-विसप्पमाणहियए धाराहयकलंबकं पिव समूससियरोमकूवे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--
अज्जप्पभिती णं भंते! मम दो अच्छीणि मोत्तूणं अवसेसे काए समणाणं निग्गंथाणं निसट्टे त्ति कटु पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--
इच्छामिणं भंते! इयाणिं दोच्चंपि सयमेव पव्वावियं सयमेव मुंडावियं सयमेव सेहावियं सयमेव सिक्खावियं सयमेव आयार-गोयरं जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं ।।
प्रथम अध्ययन : सूत्र १९१-१९४ मेघ का समर्पणपूर्वक पुन: प्रव्रज्या-पद १९१. श्रमण भगवान महावीर द्वारा पूर्व जन्म की स्मृति कराने पर कुमार मेघ का संवेग द्विगुणित हो गया। उसके मुंह पर आनन्द के आंसू ढल आए। हर्ष से हृदय उल्लसित हो गया। धारा से आहत कदम्ब कुसुम की भांति उसके रोमकूप उच्छ्वसित हो उठे। उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार कहा
भंते! आज से इन दो आंखों को छोड़कर मेरा अवशेष शरीर श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए समर्पित है--ऐसा कहकर, उसने पुन: श्रमण-महावीर को वन्दना-नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला--
भंते! मैं चाहता हूं, इस समय, दूसरी बार भी देवानुप्रिय स्वयं मुझे प्रव्रजित करें, स्वयं मुण्डित करें, स्वयं शैक्ष बनाए स्वयं अभ्यास करायें और स्वयं ही आचार-गोचर यात्रा-मात्रा मूलक धर्म का आख्यान करें।
१९२. तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेइ
सयमेव मुंडावेइ सयमेव सेहावेइ सयमेव सिक्खावेइ सयमेव आयार- गोयर-विणय-वेणइय-चरण-करण-जायामायावत्तिय धम्ममाइक्खइ--एवं देवाणुप्पिया! गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं, एवं निसीयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं, एवं भुजियव्वं, एवं भासियव्वं एवं उट्ठाए उट्ठाय पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमियव्वं॥
१९२. तब श्रमण भगवान महावीर ने कुमार मेघ को स्वयं प्रव्रजित किया, स्वयं ही मुण्डित किया, स्वयं ही शैक्ष बनाया, स्वयं ही अभ्यास कराया और स्वयं ही आचार, गोचर, विनय, वैनयिक चरण, करण और यात्रा-मात्रा मूलक धर्म का आख्यान किया--देवानुप्रिय! संयमपूर्वक चलो, संयमपूर्वकं खड़े रहो, संयम पूर्वक बैठो, संयमपूर्वक लेटो, संयमपूर्वक खाओ, संयमपूर्वक बोलो। इस प्रकार जागरूक भाव से जागृत रह कर, प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयमपूर्ण प्रवृत्ति करो।
१९३. तए णं से मेहे समणस्स भगवओ महावीरस्स अयमेयारूवं
धम्मियं उवएसं सम्म पडिच्छइ, पडिच्छित्ता तह गच्छइ तह चिट्ठइ तह निसीयइ तह तुयट्टइ तह भुंजइ तह भासइ तह उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमइ।।
१९३. मेघ ने श्रमण भगवान महावीर के इस विशिष्ट धार्मिक आख्यान को
सम्यक् स्वीकार किया। स्वीकार कर वह संयम पूर्वक चलता, संयमपूर्वक खड़ा रहता, संयमपूर्वक बैठता, संयमपूर्वक सोता, संयमपूर्वक खाता, संयमपूर्वक बोलता और वैसे ही जागरूक भाव से जागृत रहकर प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयमपूर्ण प्रवृत्ति करने लगा।
मेहस्स निग्गंठचरिया-पदं १९४. तए णं मेहे अणगारे जाए--इरियासमिए भासासमिए
एसणासमिए आयाणभंड-मत्त-णिक्खेवणासमिए उच्चार- पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावणिआसमिए मणसमिए वइसमिए कायसमिए मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी चाई लज्जू धन्ने खंतिखमे जिइंदिए सोहिए अणियाणे अप्पुस्सुए अबहिल्लेसे सुसामण्णरए दंते इणमेव निग्गंथं पावयण पुरओ काउं विहरति॥
मेघ की निर्ग्रन्थचर्या पद १९४. अब मेघ अनगार हो गया--वह विवेकपूर्वक चलता। विवेकपूर्वक
बोलता, विवेकपूर्वक आहार की एषणा करता, विवेकपूर्वक वस्त्र, पात्र आदि को लेता और रखता, विवेक पूर्वक मल, मूत्र, श्लेष्म, नाक ने मैल शरीर के गाढ़े मैल का परिष्ठापन (विसर्जन) करता, मन का संगत प्रवृति करता, वचन की संगत प्रवृति करता, शरीर की संगत प्रवृत्ति करता, मन का निरोध करता, वचन का निरोध करता, शरीर का निरोध करता, अपने आपको सुरक्षित रखता, इन्द्रियों को सुरक्षित रखता, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखता, संग का त्याग करता, अनाचरण करने में लज्जा करता, कृतार्थता का त्याग करता, समर्थ होने पर भी क्षमा करता, इन्द्रिय जयी था, अतिचार की विशुद्धि
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