Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्रथम अध्ययन : सूत्र १४३-१४५
४२ पूसमाणया खंडियगणा ताहिं इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं मणाभिरामाहिं हिययगमणिज्जाहिं वग्गूहिं जयविजयमंगलसएहिं अणवरयं अभिनंदंता य अभिथुणंता य एवं वयासी--
जय-जय नंदा! जय-जय भद्दा! जय-जय नंदा! भदं ते। अजियं जिणाहि इंदियाइं, जियं च पालेहि समणधम्मं, जियविग्धो वि य वसाहि तं देव! सिद्धिमज्झे, निहणाहि रागदोसमल्ले तवेण धिइ-धणिय-बद्धकच्छो, मदाहि य अट्ठकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तो, पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलं नाणं, गच्छ य मोक्खं परमं पयं सासयं च अयलं, हंता परीसहचमूणं, अभीओ परीसहोवसग्गाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउ त्ति कटु पुणो-पुणो मंगल-जयसदं पउंति ॥
नायाधम्मकहाओ मंगल-पाठक, विशिष्ट प्रकार का नृत्य करने वाले, घोषणा करने वाले और छात्रगण इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, मनोभिराम और हृदय का स्पर्श करने वाली वाणी के द्वारा और जय-विजय के मंगल शब्दों से अनवरत अभिनन्दन और अभिस्तवन करते हुए इस प्रकार बोले--
हे नन्द पुरुष! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे कल्याण कारक! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे नन्द पुरुष! तुम्हारी जय-जय हो, कल्याण हो।
इन्द्रियां अजित हैं, उन्हें जीतो। श्रमणधर्म जित हैं उसकी पालना करो। हे देव! विघ्नों को जीत कर सिद्धि मध्य में निवास करो। धृति का सुदृढ़ कच्छा बांधकर तप के द्वारा राग द्वेष रूपी मल्लों का हनन करो। अप्रमत्त हो उत्तम शुक्ल ध्यान के द्वारा अष्ट कर्म शत्रुओं का मर्दन करो। तमरहित अनुत्तर केवलज्ञान को प्राप्त करो। शाश्वत, अचल, परमपद मोक्ष का वरण करो। परीषह की सेना को हत-प्रहत करो। परीषह और उपसर्गों से अभय बनो। तुम्हारी धर्म की आराधना निर्विन हो। इस प्रकार उन्होंने पुन: पुन: मंगल-जय ध्वनि का प्रयोग किया।
१४४. तए णं से मेहे कुमारे रायगिहस्स नगरस्स मज्झमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ताजेणेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुहइ।।
१४४, कुमार मेघ ने राजगृह नगर के बीचों बीच से होकर निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर जहां गुणशिलक चैत्य था, वहां आया। वहां आकर हजारों पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका से नीचे उतरा।
सिस्सभिक्खादाण-पदं
शिष्य-भिक्षा-दान-पद १४५. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ १४५. कुमार मेघ के माता-पिता कुमार मेघ को आगे कर जहां श्रमण कटु जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छंति, भगवान महावीर थे, वहां आए। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं को दांयी ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर करेंति, करेत्ता वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--एस वन्दना-नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार णं देवाणुप्पिया! मेहे कुमारे अम्हं एगे पुत्ते इटे कंते पिए मणुण्णे कहा--देवानुप्रिय! यह कुमार मेघ हमारा एकमात्र पुत्र, इष्ट, कान्त, मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय सम्मत, बहुमत, अनुमत, रयणे रयणभूए जीवियऊसासए हिययणंदिजणए उंबरपुष्फ पिव आभरण करण्डक के समान, रत्न, रत्नभूत, जीवन, उच्छ्वास (प्राण) दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण दरिसणयाए?
और हृदय को आनन्दित करने वाला है। यह उदुम्बर पुष्प के समान से जहानामए उप्पले ति वा पउमे ति वा कुमुदे ति वा पंके श्रवण-दुर्लभ है। फिर दर्शन का तो कहना ही क्या? जाए जले संवड्ढिए नोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं, जैसे उत्पल, पद्म अथवा कमल पंक में उत्पन्न जल में संवर्धित एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेसु संवड्ढिए नोवलिप्पइ होता है, किन्तु पंक-रज और जलरज से उपलिप्त नहीं होता, वैसे ही कामरएणं नोवलिप्पइ भोगरएणं। एस णं देवाणुप्पिया! कुमार मेघ कामों में उत्पन्न हुआ, भोगों में संवर्धित हुआ, किन्तु वह संसारभउव्विग्गे भीए जम्मण-जर-मरणाणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं काम-रज और भोग-रज से उपलिप्त नहीं है। अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। अम्हे णं देवानुप्रिय ! यह संसार भय से उद्विग्न है। जन्म, जरा और मृत्यु देवाणुप्पियाणं सिस्सभिक्खं दलयामो। पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! से भीत है। यह देवानुप्रिय के पास मुण्ड होकर, अगार से अनगारता सिस्सभिक्खं ।
में प्रव्रजित होना चाहता है। इसलिए हम इसे देवानुप्रिय को शिष्य की भिक्षा के रूप में देना चाहते हैं।
देवानुप्रिय! शिष्या की भिक्षा को स्वीकार करो।
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