Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्रथम अध्ययन : सूत्र ११२-११४
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नायाधम्मकहाओ
नहीं हो। इसलिए जात! तुम पहले मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों का भोग करो। उसके बाद भुक्त भोगी बन, श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रवजित हो जाना।"
११३. तए णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरं
एवं वयासी--तहेव णं तं अम्मयाओ! जं णं तुब्भे ममं एवं वयह--"एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए पडिपुण्णे नेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे निव्वाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, अहीव एगंतदिट्ठिए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया इव जवा चावयव्वा, वालुयाकवले इव निरस्साए, गंगा इव महानई पडिसोयगमणाए, महासमुद्दो इव भूयाहिं दुत्तरे, तिक्खं कमियव्वं, गरुअं लंबेयव्वं, असिधारव्वयं चरियव्वं । नो खलु कप्पइ जाया! समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा कोयगडे वा ठविए वा रहिए वा दुब्भिक्खभत्ते वा कतारभत्ते वा वद्दलियाभत्ते वा गिलाणभत्ते वा मूलभोयणे वा कंदभोयणे वा फलभोयणे वा बीयभोयणे वा हरियभोयणे वा भोत्तए वा पायए वा।
तुमं च णं जाया! सुहसमुचिए नो चेव णं दुहसमुचिए, नालं सीयं नालं उण्हं नालं खुहं नालं पिवासं नालं वाइय-पित्तियसिंभिय-सन्निवाइए विविहे रोगायंके, उच्चावए गामकंटए बावीसं परीसहोवसग्गे उदिण्णे सम्मं अहियासित्तए। भुजाहि ताव जाया! माणुस्सए कामभोगे। तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्ससि।" एवं खलु अम्मयाओ! निग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबद्धाणं परलोगनिप्पिवासाणं दुरणुचरे पाययजणस्स, नो चेव णं धीरस्स निच्छियववसियस्स एत्थ किं दुक्करं करणयाए?
तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए।।
११३. माता-पिता द्वारा ऐसा कहने पर कुमार मेघ ने उनसे इस प्रकार
कहा--'माता-पिता!' यह वैसा ही है, जैसा तुम मुझसे कह रहे हो--“जात! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य, अनुत्तर, अद्वितीय, प्रतिपूर्ण, नैर्यात्रिक, संशुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धि का मार्ग, मुक्ति का मार्ग, मोक्ष का मार्ग, शांति का मार्ग और समस्त दुःखों को क्षीण करने का मार्ग है। किन्तु यह सांप की भांति एकान्त दृष्टि द्वारा साध्य है। क्षुर की भान्ति एकान्त धार द्वारा साध्य है। इसमें लोह के यव चबाने होते हैं। यह बालु के कोर की तरह नि:स्वाद है। यह महानदी गंगा में प्रतिस्रोत गमन जैसा है। यह महासमुद्र को भुजाओं से तैरने जैसा दुस्तर है। यह तीखे कांटो पर चंक्रमण करने, भारी भरकम वस्तु को उठाने और तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने जैसा है।
जात! श्रमण-निग्रन्थों को आधाकर्मिक, औद्देशिक, क्रीतकृत, स्थापित, रचित, दुर्भिक्ष-भक्त, कान्तार-भक्त, वालिका-भक्त, ग्लान-भक्त, मूल-भोजन, कन्द-भोजन, फल-भोजन, बीज-भोजन अथवा हरित-भोजन खाना व पीना नहीं कल्पता।
जात! तुम सुख भोगने योग्य हो, दुःख भोगने योग्य नहीं। तुम सर्दी, गर्मी, भूख और प्यास, वात्तिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक तथा सान्निपातिक विविध प्रकार के रोग और आतंक, उच्चावच इन्द्रियों के विषय तथा उदीर्ण बाईस परीषह और उपसर्ग-इन सब को सहन करने में समर्थ नहीं हो।
इसलिए जात! तुम पहले मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों का भोग करो। उसके बाद भुक्त भोगी बन श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रवजित हो जाना।" ___माता-पिता! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन क्लीब, कायर, कापुरुष, इहलोक से प्रतिबद्ध, परलोक से पराड्.मुख, प्राकृत--साधारण मनुष्य के लिए इसका आचरण करना दुष्कर है। धीर, कृत-निश्चय और व्यवसाय सम्पन्न (उपाय-प्रवृत्त) व्यक्तियों के लिए संयम का आचरण किञ्चित भी दुष्कर नहीं है। ___इसलिए माता-पिता! मैं चाहता हूं, तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात हो कर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाऊँ।१०५
मेहस्स एगदिवसरज्ज-पदं ११४. तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति बहूहिं विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा सण्णवित्तए वा विण्णवित्तए वा ताहे अकामकाईचेव मेहं कुमारं एवं वयासी--इच्छामो ताव जाया! एगदिवसमवि ते रायसिरिंपासित्तए।।
मेघ का एक दिवसीय-राज्य पद ११४. कुमार मेघ के माता-पिता विषय के प्रति अनुरक्त बनाने वाले और विषयों से विरक्त करने वाले बहुत आख्यान, प्रज्ञापन, संज्ञापन और विज्ञापनों के द्वारा उसे आख्यात, प्रज्ञप्त, संज्ञप्त और विज्ञप्त करने में समर्थ नहीं हुए, तब अनिच्छा पूर्वक उन्होंने कुमार मेघ को कहा--जात! हम तुम्हें एक दिन के लिए राज्यश्री से संपन्न देखना चाहते हैं।
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