Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
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पगामं भोत्तुं पगामं परिभाएउं । तं अणुहोही ताव जाया! विपुलं माणुसगं इसिक्कारसमुदयं तओ पच्छा अनुभूयकाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए मुटे भविता अगाराओ अणमारिय पम्वइस्ससि ।"
एवं खलु अम्मयाओ! हिरण्णे य जाव सावएज्जे य अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए दाइयसाहिए मन्चुसाहिए अग्गितामण्णे चोरसामण्णे रायसामण्णे दाइयसामण्णे मच्चुसामण्णे सडण- पडणविद्धंसणघम्मे पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जे से के गं जाणइ अम्मयाओ के पुब्विं यमणाए के पच्छा गमणाए ? तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुम्भेहिं अम्भणुष्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारिय पव्वइत्तए ।
११२. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति मेहं कुमारं बहूहिं विसयाणुलोमाहिं आघवणाहि व पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विष्णवणाहि य आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा सणवित्तए वा विण्णवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभउब्वेय कारियाहिं पण्णवणाहि पण्णवेमाणा एवं वयासी -- एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए पडिपुणे नेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे निव्वाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमणे, अहीव एतदिट्ठिए, खुरो इव गंतधाराए, लोहमया इव जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव निरस्साए, गंगा इव महानई पडिसोयगमणाए महासमुद्र इव भुयाहिं दुत्तरे, तिवखं कमियव्वं, गरुजं बेप असिधारब्वयं चरियन्वं नो खलु कप्पड़ जाया! समणानं निग्गंधाण आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा कीमगडे वा उविए वा रइए वा भिक्खभते वा कंतारभते वा बलियाभले वा गिलाणभत्ते वा मूलभोवणे वा कंदभोवणे वा फलभोषणे वा बीयभोयणे वा हरियभोयणे वा भोत्तए वा पायए वा ।
तुमं च णं जाया! सुहसमुचिए नो चेव गं दुहसमुचिए, नातं सीयं नालं उन्हं नालं खुहं नालं पिवासं नालं वाइय-पित्तिय-सिंभिय- सन्निवाइए विविहे रोगायंके, उच्चावए गामकंटए, बावीस परीसहोवसग्गे
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उदि सम्म अहियासित्तए । भुंजाहि ताव जाया! माणुस्सए कामभोगे। तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्ससि ।।
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प्रथम अध्ययन : सूत्र १११-११२ पीढ़ी तक प्रचुर मात्रा में देने, प्रचुर मात्रा में भोगने और प्रचुर मात्रा में बांटने के लिए पर्याप्त है अतः जात! तुम इस मनुष्य सम्बन्धी विपुल ऋद्धि, सत्कार और समुदय का अनुभव करो उसके अनन्तर कल्याण का अनुभव कर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाना।"
माता-पिता! हिरण्य यावत् स्वापतेय अग्नि साधित है--अग्नि जला सकती है। चोर साधित है--चोर चुरा सकते हैं। राज साधित है--राजा अधिकृत कर सकता है। दायाद साधित है--भागीदार विभाजित कर सकते हैं। और मृत्यु साधित है --मृत्यु उससे वंचित कर सकती है। अग्नि सामान्य- अग्नि का स्वामित्व है। चोर सामान्य चोर का स्वामित्व है। राज सामान्य - राजा का स्वमित्व
है । दायाद सामान्य- भागीदार का स्वामित्व है। और मृत्यु सामान्य मृत्यु का स्वामित्व है। यह सड़ने, गिरने और विध्वस्त हो जाने वाला है। उसे पहले या पीछे अवश्य छोटा है। माता-पिता कौन जानता है, कौन पहले जाएगा? कौन पीछे जाएगा? अतएव माता-पिता! मैं तुमसे अनुज्ञात होकर, श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाऊं ।
११२. कुमार मेघ के माता-पिता जब बहुत सारे विषयों के प्रति अनुकूल बनाने वाले बहुत आख्यान, प्रज्ञापन, संज्ञापन और विज्ञापनों के द्वारा उसे आस्थात, प्रज्ञप्त, संज्ञप्त और विज्ञप्त करने में समर्थ नहीं हुए, तब वे विषय से विरक्त किन्तु संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाले, प्रज्ञापन के द्वारा प्रज्ञापना करते हुए इस प्रकार बोले- "जात! यह निन्य-प्रवचन सत्य अनुत्तर, अद्वितीय प्रतिपूर्ण, नैयत्रिक (मोक्ष तक पहुंचाने वाला) संशुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धि का मार्ग, मुक्ति का मार्ग, मोक्ष का मार्ग, शांति का मार्ग और समस्त दुःखों के क्षय का मार्ग है। किन्तु यह सांप की भाँति एकान्त दृष्टि (एकाग्र दृष्टि) द्वारा साध्य है, क्षुर की भांति एकान्त धार द्वारा साध्य है, इसमें लोहे के यव चबाने होते हैं। यह बालु के कोर की तरह नि:स्वाद है । यह महानदी गंगा में प्रतिस्रोत-गमन जैसा है यह महासमुद्र को भुजाओं से तैरने जैसा दुस्तर है यह तीक्ष्ण काँटो पर चंक्रमण करने, भारी भरकम वस्तु को उठाने और तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने जैसा है।
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! श्रमण-निर्ग्रन्थों को आधाकर्मिक, औद्देशिक, क्रीतकृत, स्थापित, रचित, दुर्भिक्ष - भक्त, कान्तार-भक्त, वार्दलिका भक्त, ग्लान- भक्त, " मूल-भोजन, कन्द-भोजन, फल- भोजन, बीज भोजन और हरित भोजन खाना व पीना नहीं कल्पता ।
जात! तुम सुख भोगने योग्य हो, दुःख भोगने योग्य नहीं हो। तुम सर्दी, गर्मी, भूख प्यास, वात्तिक, पैतिक, श्लेष्मिक तथा सान्निपातिक विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा उच्चावच इन्द्रियों के विषय, उदीर्ण बाईस परीषह और उपसर्ग-इन सबको सहन करने में समर्थ
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