Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा ११ . ALLIL * IIIII -51-03 CCC मुनि किशन लाल : , Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की इस परिक्रमा में केवल श्रुत अथवा अनुमान की यात्रा नहीं है । "प्रज्ञा के अस्तित्व को स्पर्श करने का प्रयत्न किया गया कि स्मृतियां विलीन होने लगीं। कल्पनाएं काल-कवलित हो गईं। अनुभूतियां मिटने लगीं। जब अनुभूतियां विलीन होने लगती है, तब प्रज्ञा की यात्रा प्रारम्भ होती है। प्रज्ञा सत्य का साक्षात् है। उसको जिया जा सकता है, किन्तु कहा नहीं जा सकता ।" हम कैसे पागल है, दुनियां को बदलने में लगे हैं, स्वयं के अतिरिक्त सब कुछ बदल देना चाहते हैं। संसार का प्रत्येक व्यक्ति पवित्र बन जाए। आदमी देवता बन जाए। व्यक्ति की यह जबरदस्त पीड़ा है कि वह दूसरों को बदलने की सोचता है जो दुनियां की असम्भव घटना है। वह न हुई है और न कभी होगी। अतः यही श्रेयस्कर है कि व्यक्ति स्वयं को बदलने के लिए साधना का प्रयोग करे। D प्रेक्षा-ध्यान जीवन का विज्ञान है। व्यक्ति को श्वास लेने की क्रिया से लेकर जीवन की समस्त समस्याओं पर रचनात्मक ढंग से समाधान देता है। प्रेक्षा ध्यान मिथ्या मान्यताओं से और साम्प्रदायिक कट्टरताओं से व्यक्ति को बचाता है। प्रेक्षा-पद्धति में मानने का आग्रह नहीं है, केवल जानने की बात है। जानो और करो। प्रेक्षा-ध्यान शुद्ध प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक वैज्ञानिक की तरह प्रयोग में उतरता है, उसके परिणामों का साक्षात्कार करता है, चाहे वह व्यक्ति किसी मजहब, परम्परा और पूजा-उपासना में विश्वास करने वाला क्यों न हो। हर व्यक्ति दूसरों के सम्बन्ध में जितना जानने का प्रयत्न करता है, भूल से ही अपने बारे में उसके मानस में किञ्चित् जिज्ञासा नहीं उभरती । धर्म की दयनीय स्थिति इसलिए हो रही है कि उसकी तेजस्विता आचरण एवं जीवन-व्यवहार में प्रगट नहीं हो रही है और न ही इस संदर्भ में शौध कार्य हो रहा है। - प्रज्ञा की परिक्रमा से For Povate & Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा मुनि किशनलाल जैन विश्व भारती प्रकाशन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौजन्य : तनसुख, धनराज, मदन, पन्नालाल, ईचु देवी, भंवरलाल सुपुत्र संचेती (मोमासर) मेसर्स : संचेती पोलीमर्स दिल्ली - ३५, दूरभाष : 7100488,7100496 प्रथम संस्करण : जनवरी, १९८५ द्वितीय संस्करण : अगस्त, १९६६ मूल्य : ५० रुपये प्रकाशक : जैन विश्व भारती लाडनूं, नागौर (राजस्थान) मुद्रक : फिंगर प्रिंटस, फोन न० : ३६५८६४२, २६३०४८० PRAJNA KI PARIKARMA Muni Kishanlal Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न प्रज्ञा की परिक्रमा - (जिनके प्राणों से HAL प्रेरित हुआ समर्पित है उस महाप्राण, युग प्रधान गुरुदेव को अमृत महोत्सव अवसर पर ---- - me Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीवर्चन मनुष्य बुद्धि की परिक्रमा बहुत करता है पर उससे इष्ट उपलब्ध नहीं होता। देवता भीतर बैठा है उसकी उपलब्धि प्रज्ञा की परिक्रमा द्वारा ही संभव हो सकती है। वह आन्तरिक चेतना है। जो परम है या इष्ट है वह बाहर नहीं हैं इस विवेक चेतना को जगाने के लिए मुनि किशनलाल जी ने एक उपक्रम किया है। उसमें क्या धर्म है पंगु? "चैतन्य का स्फुरण एवं भौतिक विस्फोट" "अस्तित्व की अन्त हीन परिक्रमा", मन के सांप जो ध्यान से भागे, "भय मुक्त कैसे हो", शान्ति की खोज, "प्रेक्षा जागरूकता की प्रक्रिया।" आदि शीर्षकों में विषय को बांधा है। घाट और तटबन्ध दोनों का अपना-अपना मल्य है। घाट शून्य तट बन्ध बहुत अर्थवान नहीं होते और तट शून्य धारा छितर जाती है। सत्य की अभिव्यक्ति में भाव की धारा और शब्दों का तट बन्ध दोनों उपयुक्त होते हैं तभी सार्थकता जन्म लेती है। मुनीजी ने इन दोनों को एक साथ रखने का प्रयत्न किया है। इसलिए प्रस्तुत पुस्तक जनता के लिए उपयोगी बनेगी। यह सहज प्रतीति प्रेक्षा-ध्यान के संदर्भ में की जा सकती है। इसमें जो नए-नए उन्मेष सामने आ रहे हैं उन्हें समझने का एक अवसर मिलेगा। कृति के प्रति शुभाशंषा। जोधपुर आचार्य महाप्रज्ञ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका पुस्तक में संगृहीत लेखों में प्रेक्षा-ध्यान के प्रायः सभी पक्ष सुचारू रूप से लिपिबद्ध हो गए हैं। सभी लेख अपने आप में स्पष्ट और विशद हैं। अतः उनमें चर्चित विषयों पर पुनः प्रकाश डालना पुनरुक्ति मात्र होगी। इस भूमिका में मैं पाठकों का ध्यान कुछ ऐसे तत्त्वों पर केन्द्रित करना पसंद करूंगा, जो प्रेक्षाध्यान के अंतरंग तत्त्व हैं। प्रज्ञा का विकास करना ही प्रेक्षा-ध्यान का मूल ध्येय है। इस ध्येय की परिपूर्ति के लिए ध्यान की प्रक्रिया में कुछ ऐसे विषय सम्मिलित किए गए जिन पर प्रकाश डालना यहां अभीष्ट हैं। पहली बात तो यह है, प्रेक्षा-ध्यान में कोई धर्म विशेष का आधार नहीं लिया गया है। मानव हित के लिए यथा व्यक्ति के विकास के लिए जिन तत्त्वों का अभ्यास आवश्यक है उन्हें ही इस ध्यान प्रक्रिया में उपयुक्त स्थान दिया गया है। उदाहरणार्थ-विद्या की साधना एवं सद् आचरण का अभ्यास ही दुःखों से विमुक्ति का एकमात्र मार्ग है । उस पक्ष को इस घोष द्वारा उजागर किया गया है-"आहंसु विज्जा चरणं पमोक्खं"। हमारे सारे दुःखो के कर्ता हम स्वयं ही है, कोई दूसरे व्यक्ति नहीं है। "सयंकडं णण्ण कडं च दुक्खं"। अतः इस तत्त्व को सही ढंग से समझ कर ही हम अपने आचरणों को संयत बनाएं। स्वयं को सारे दुःखों की जड़ मानकर ही हम अपने आचरणों में विशुद्धि ला सकते हैं। प्रेक्षा-ध्यान के अभ्यासियों के लिए एक महत्वपूर्ण ध्येय सूत्र हैं "संपिक्खए अप्पगमप्पएणं" अर्थात् स्वयं-स्वयं का आचरण देखें। इस प्रसंग में इस संदर्भ को सूक्ष्मता से देंखे तो यह स्पष्ट हो जाता है कि साधक अपनी सारी प्रवृत्तियों को सही प्रकार से अवलोकन करें और यह देखने का प्रयत्न करें कि उसने अपने कर्तव्यों का पालन यथाविधि किया है या नहीं ? जीवन की शुद्धि में अवश्य करणीय विधानों का पालन किया है या नहीं ? कोई ऐसे शेष तो नहीं रह गए हैं जिन्हें वह पालन कर सकता था, परन्तु किया नहीं। साधक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ II इस बात का भी ख्याल रखे कि उसके आचरण दूसरों की निगाह में किस प्रकार प्रतीत होते हैं। वह स्वयं को भी देखें कि आवश्यक निर्देशों की अवहेलना तो नहीं कर रहा है। भविष्य की प्रवृतियों के बारे में भी वह सावधान रहे ताकि किसी प्रकार की स्खलना उसके आचरण में नहीं आ जाए। उसे यदि तनिक भी कायिक, वाचिक, व मानसिक दुष्प्रवृत्ति परिलक्षित हो उसे वह तुरन्त छोड़ दे । वह साधक प्रतिबुद्ध-जीवी कहलाता है जो असंवर से सदा मुक्त रहता है और अपने संयम से कभी च्युत नहीं होता। इस प्रसंग में सर्वदुःखों से मुक्ति पाने के लिए संविधान किया गया है अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं अरक्खिओ जाइपहं उवेह सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चई ! सब इन्द्रियों को सुसमाहित कर आत्मा की सतत् रक्षा करनी चाहिए। अरक्षित आत्मा जन्म-मरण को सतत् प्राप्त होता रहता है, जबकि सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। उपर्युक्त उद्घोष में आत्म-निरीक्षण की जो बात कही गई है वह सर्वजन मान्य है। अपने दैनन्दिन प्रवृत्तियों का सही विश्लेषण करके ही व्यक्ति अपने को सुधार सकता है, स्वयं द्वारा निर्मित दुःखी जीवन से छुटकारा पा सकता है । जिस क्षण व्यक्ति मान लेता है कि अपने सुख-दुःखों का कारण वह स्वयं ही हैं, उसी क्षण वह अपने दुःखों से मुक्त होने के पथ पर आ जाता है । प्रेक्षा अभ्यास के अन्तर्गत एक और उद्घोष है जिसमें कहा गया है कि स्वयं सत्य का अन्वेषण करो एवं सर्वभूतों के प्रति मैत्री की भावना का संकल्प करो । यह उद्घोष जिस संदर्भ से किया गया है वह निम्न प्रकार है जावंत विज्जा पुरिसा, सव्वे ते दुःख - संभवा । लुप्पंति बहु सो मूढ़ा, संसारम्मि अनंत ।। सम्मिक्ख पंडिए तम्हा, पासजाइपहे बहू । अप्पणा सच मेसेज्जा, मेत्तिं भूएसुकप्पए ।। इन श्लोकों में कहा गया है, सारे दुःखों का मूल अविद्या या अज्ञान हैं। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक जब इस सत्य को जान लेता है तो वह दुःख-मुक्ति के मार्ग में प्रवेश कर जाता है, एवं क्रमशः उस मार्ग की प्रतीति उसे स्पष्ट रूप से होने लगती है। साधक अब समझ लेता है कि सत्य का अन्वेषण मुझे स्वयं ही करना है, एवं सर्वभूतों के प्रति मैत्री भावना के अभ्यास से वैराग्य सुदृढ़ बनता है एवं वैराग्य के साथ-साथ प्रज्ञा विकसित होती है, जो साधक को तत्त्व साक्षात्कार कराती है। प्रेक्षा-ध्यान का अन्तिम ध्येय तत्त्व साक्षात्कार ही है, जिसकी सिद्धि मैत्री एवं वैराग्य भावनाओं के द्वारा संपन्न होती है। प्रस्तुत संकलन 'प्रज्ञा की परिक्रमा' के अध्ययन से प्रज्ञा और प्रेक्षा के विषय में कई नवीन तत्त्व मेरे ध्यान में आए हैं। मेरे उपर्युक्त कथनों के आधार ये तत्त्व ही हैं। प्रेक्षा अभ्यास के कई पहलू ऐसे हैं जो आसानी से अभ्यासियों के समझ में नहीं आते। प्रस्तुत संकलन के अध्ययन से यह पहलू सहज ही स्पष्ट हो जाते हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि प्रेक्षा शिविरार्थी इस पुस्तक के अध्ययन से लाभान्वित होंगे। अपने पथ में उनकी रूचि बढ़ेगी। ध्यानाभ्यासियों के लिए अपने मार्ग पर विश्वास होना अत्यन्त आवश्यक है। आलोच्य संकलन इस दिशा में निर्देशन करने में सफल होगा यह मेरी सुदृढ़ धारणा है। ___अन्त में रचनाकार मुनिश्री किशनलाल जी के बारे में कुछ कहना अप्रासंगिक नहीं होगा। आप ३० सालों से साधना मार्ग में लगे हुए हैं। युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी तथा युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का अनुग्रह ही उनकी साधना का सम्बल रहा है, एवं कई विश्वविख्यात साधकों से इनका संपर्क हुआ है, जिनमें उल्लेखनीय है-जे० कृष्ण मूर्ति, माताजी, अरविंद आश्रम महेश योगी, स्वामी मुक्ता नन्द आदि। इन सम्पर्कों का लाभ आपने विवेक पूर्वक उठाया। आपने विपश्यना का अभ्यास भी विशेष रूप से किया। अब प्रेक्षाध्यान के अन्तर्गत जिन-जिन विशिष्ट विद्याओं का संयोजन किया गया है उन सभी का सूक्ष्म अनुशीलन कर के सही प्रकार साधकों को प्रशिक्षित करने में आपने सफलता प्राप्त की हैं। भविष्य में प्रेक्षा-ध्यान के विकास में आपका सहयोग अभ्यार्थियों को सतत मिलता रहेगा ऐसी मेरी शुभ कामना हैं। जोधपुर ता० ७-११-८४ नथमल टाटिया अनेकान्त शोघ पीठ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि स्वर प्रज्ञा की परिक्रमा करते हुए एक विचित्र स्थिति उद्भूत हुईं। प्रज्ञा की कोई परिक्रमा की जा सकती है ? प्रज्ञा क्या कोई अनुभूति है ? प्रवृत्ति है? प्रज्ञा के अस्तित्व को स्पर्श करने का प्रयत्न किया गया कि स्मृत्तियां विलीन होने लगीं। कल्पनाएं काल कवलित हो गईं। अनुभूतियां मिटने लगीं। बोध बिना किसी संकेत के स्पष्ट होने लगा। प्रज्ञा पुरुष महावीर ने इसे "अरूविसत्ता" कह कर संबोधित किया है। उपनिषद् का ऋषि भी नेति नेति कहकर उस परम सत्य की ओर इंगित करता है। वस्तुतः जब अनुभूति विलीन होने लगती है तब प्रज्ञा की यात्रा प्रारंभ होती है। प्रज्ञा कोई अनुभव का विश्लेषण नहीं है। प्रज्ञा स्मृति का कोई अंकन नहीं है। प्रज्ञा कल्पना का कोई कवच नहीं है। प्रज्ञा को इन सब मानकों से मापने की कोशिश स्वयं की अज्ञता का ही द्योतक है। प्रज्ञा कोई परम्परा का परिचय नहीं है। प्रज्ञा किसी विषय का अनुबन्ध नहीं है। प्रज्ञा कोई दर्शन नहीं है। प्रज्ञा सत्य का साक्षात है। उसको जिया जा सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता । कहने का यत् किंचित प्रयत्न किया जाता है वह मात्र प्रज्ञा के प्रकाश की ओर संकेत ही है। इशारा कर भी अन्त में यह अनुभव होता है। प्रज्ञा के संबंध में मौन ही सशक्त संकेत है फिर भी मनुष्य का अपना स्वभाव है कि वह सत्य के संबन्ध में वक्तव्य दिए बिना नहीं रहता है। उसे दूसरों तक पहुंचाने का सफलअसफल प्रयास करता है, किन्तु प्रज्ञा शील व्यक्तित्व इसे स्पष्ट अनुभव करता है। प्रज्ञा को पहचानने के लिए हमारे पास जो भी साधन हैं वे बहुत पीछे रह जाते हैं चाहे फिर वे सत्य का साक्षात्, अनुभव की स्पष्टता, आत्मानुभव आदि शब्दों के द्वारा ही क्यों न अभिव्यक्त किए गए हों। मनुष्य जाति के पास इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं कि वह अपनी अनुभूतियों को संकेतों द्वारा स्पष्ट करें। अनुभव में सदैव द्वैत रहता है लेकिन प्रज्ञा में कोई Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V द्वैत नहीं होता। वहां अस्तित्व के साथ एकत्व हो जाता है अर्थात् अद्वैत फलित हो जाता है। "प्रज्ञा की परिक्रमा " आचार्य श्री महाप्रज्ञ के उपपात का परिणाम है। महाप्रज्ञ के श्वास-प्रश्वास के साथ प्रज्ञा का निर्भर निरन्तर बहता रहता है। उनकी सन्निधि अनायास प्रज्ञा में उतार देती है। उनके प्राणों से गूंजा हुआ एक-एक बोल हृदय को आन्दोलित कर देता है । युवाचार्य श्री को महाप्रज्ञ की उपाधि से अलंकृत करते हुए युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने आशीर्वचन में कहा "महाप्रज्ञ ! संघ को प्रज्ञा का अनुदान करो। जन-जन में प्रज्ञा के बीज बिखेरो" युवाचार्य श्री ने अपनी प्रज्ञा को प्रेक्षा के द्वारा जन-जन के हृदय में स्थापित किया है और कर रहे हैं, सौभाग्य से प्रेक्षा ध्यान शिविरों में, उनके निर्देशन में साधना की विभिन्न पद्धतियों से गुजरने एवं प्रशिक्षण देने का अवसर प्राप्त होता रहता हैं। सचमुच महाप्रज्ञ के प्राणवान आभामंडल का ही परिणाम है कि स्वल्प समय में प्रेक्षा जन जीवन को परिष्कृत करके अपनी महत्ता को प्रस्तुत कर रही है। प्रेक्षा का पुरुषार्थ करके प्रज्ञा के अस्तित्व का स्पर्श हुआ हैं उसमें से जो सार निकला उसे प्रज्ञा और प्रेक्षा दो विभागों में ग्रंथित किया गया है। प्रज्ञा और प्रेक्षा के ये निबन्ध समय - समय पर ऑल इण्डिया रेडियो एवं देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं नवभारत टाइम्स, दैनिक जागरण, तीर्थंकर, प्रेक्षा-ध्यान, अणुव्रत, जैन भारती, जलते दीप, युवादृष्टि आदि में प्रसारित एवं प्रकाशित हुए हैं। श्रोताओं एवं पाठकों ने इन्हें पसंद किया। इस संकलन में मुनि धर्मेन्द्र कुमार जी का शारीरिक, मानसिक योगदान सदैव रहा है। उनके श्रम और सेवा को विस्मृत नहीं किया जा सकता। समणी स्थित प्रज्ञा ने पुस्तक की पांडुलिपि को व्यवस्थित करने एवं प्रूफ देखने में अपना समय लगाया उनके प्रति मंगल भाव ही कर सकता हूँ । आचार्य श्री तुलसी युग प्रवर्त्तक महर्षि हैं उन्होंने अपने जीवन को नव निर्माण के लिए समर्पित किया है। उनके तेजस्वी अनुष्ठान की अर्ध शताब्दी पूर्ण होने जा रही है। जन-जन उनके गौरव पूर्णं पचास वर्षों की गरिमा को अमृत - महोत्वस के रूप में अभिवंदित कर रहा है। यह कृति "वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो" से प्रेरित है। आचार्य प्रवर के अमृत महोत्सव में मंगलमय बेला में दो मांगलिक पुष्प प्रज्ञा और प्रेक्षा से ग्रंथित नव्य पुष्पहार Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VI प्रज्ञा की परिक्रमा उपहृत कर रहा हूँ। यह उपहार मेरे और सबके लिए मंगल मय होगा। गुरुदेव का अनंत अनुग्रह मेरे पर सदा अकारण बरसता रहता है। इसे मैं अपनी थाती मानता हूँ। आशा करता हूँ उनके अनुग्रह का प्रसाद मेरी साधना को सिद्धि तक पहुंचाने में सहयोगी बनेगा। ऐसा भाव मेरे अन्तःकरण में स्फूर्त हो रहा है। “सर्वे सन्तु निरामयाः" । तेरा पंथ समवसरण १८ अक्टूबर १९८४ -मुनि किशनलाल Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ६. १०. ११. १२. १३. प्रेक्षा १. २. ३. ४. ५. ६. 19. ८. ६. १०. अनुक्रम व्यक्तित्व का अंकन सुधार की आकांक्षा क्या पंगु है धर्म ? चैतन्य का स्फुरण एवं भौतिक विस्फोट अस्तित्व की अंतहीन परिक्रमा सन्तों ! सहज समाधि भली ! समस्या का मूल - समाधान का फूल स्वाध्याय - ज्ञान की गंगोत्री मन के सांप जो ध्यान से भागे भय मुक्त कैसे हों अनुत्तरित प्रश्न मांसाहार बनाम शाकाहार प्रज्ञा की परिक्रमा प्रेक्षा जीवन का विज्ञान प्रेक्षा की अर्थ यात्रा स्वास्थ्य, प्रसन्नता और प्रेक्षा स्वयं से पर को देखें । जीवन-विज्ञान शिक्षा का अभिनव आयाम प्रेक्षा- ध्यान- मनोविज्ञान शांति की खोज क्रोध शमन के प्रयोग प्रेक्षा-जागरूकता की प्रक्रिया शक्ति जागरण की प्रक्रिया y w m এs २० २३ २६ ४५ ५५ ६१ ६६ ६८ ७१ ७५ το ८३ ८८ ६४ १०२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १६. २०. २१. VIII स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग अभिनव सामायिक अनुष्ठान आलोक स्वतन्त्रता के बदलते मूल्य सत्ता, शासन और अनुशासन संस्कार प्रवृत्ति या संस्कार मुक्ति भ्रष्टाचार का भूत तनाव : कारण और निवारण स्वस्थ जीवन की पद्धति - प्रेक्षा- ध्यान जप, तप और ध्यान के चमत्कार मुक्ति के सूत्र १०७ १२३ १२८ १३० १३६ १४० १४५ १४८ १५२ १५४ १६० Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ עדיאלוג לה מלאל' אר שג5 מי אינם .ראים מילי4*4* * * * ישיר ירדני :בא גאמיד מן m מנגמנ טכננס מתכת מלאה mercromo עססמתעסDbם Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व का अंकन करें आप कौन है ? कहां से आए हैं ? क्या करते हैं ? प्रश्नों की एक लम्बी श्रृंखला निरन्तर दूसरों के परिचय के लिए निकलती रहती है। हर व्यक्ति दूसरों के सम्बन्ध में जितना जानने का प्रयत्न करता है। भूल से भी अपने बारे में उसके मानस में किंचित् जिज्ञासा नहीं उभरती। यह कैसी विडंबना है ? मनुष्य का व्यक्तित्व किन घटकों से निर्मित हैं कि उसकी दृष्टि बाहर की ओर रहती है। आभ्यन्तर की ओर उसे ख्याल भी नहीं आता कि कोई अस्तित्व निरन्तर क्रियाशील है, जिसकी सक्रियता ही ज्ञान-विज्ञान को उत्पन्न कर रही है। शान्ति की अमिट अभीप्सा शान्ति और मुक्ति की निरन्तर अभीप्सा इस तथ्य का साक्षी है कि हमारा अस्तित्व केवल पदार्थ को उपलब्ध होने के लिए ही नहीं है। अस्तित्व की धारा पदार्थ एवं बाहिर को पाकर भी अतृप्त और अशान्त बनी रहती है। इस जगत् में प्राणी शान्ति और सुख के लिए पदार्थ की ओर यात्रा करता है। पदार्थ से शान्ति और सुख की उपलब्धि नहीं होती, अपितु प्राणी की सक्रियता इससे भरने लगती है। तब उसे ऐसा एहसास होने लगता है कि कुछ तो हो रहा है। यह होना ही उसमें मिथ्या भ्रम पैदा कर देता है। जो अंहकार और ममकार को उत्पन्न करता है। ममकार जब अन्य पर अधिकार जमाने लगता है तब विद्वेष और क्रोध उत्पन्न होता है। विद्वेष से कलह और अशान्ति उत्पन्न होती है। अशान्ति हिंसा का प्रतिबिम्ब है। हिंसा से प्रतिहिंसा, प्रतिहिंसा से युद्ध फिर इसका वृत्त बन जाता है। जिसका कहीं कभी अन्त नहीं होता। अंकन में बाधक मान्यता मान्यता मान्यता ही होती है। वह कैसी, किस सम्बन्ध में ही क्यों न की गई हो। मान्यता का अपना मूल्य होता है, किन्तु अन्त तक वह मान्यता ही रहती है जब तक वह यथार्थ को उद्घाटित नहीं कर पाती । यथार्थ की यात्रा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा के लिए प्रारम्भ में मान्यता की नौका पर चढ़ना होता है। परिणाम से पूर्व दूसरों के अनुभूत यथार्थ को स्वीकार करना ही पूर्व मान्यता है । व्यक्ति यथार्थ में कम जीता है मान्यता में ज्यादा । यथार्थ में जीने का तात्पर्य है अनुभव में जीना । अनुभव में जीने वाला वर्तमान में जीता है। वर्तमान में जीने की कला ही प्रेक्षा है । प्रेक्षा करने वाला ही अपना अंकन कर सकता है । व्यक्ति की सबसे बड़ी पीड़ा यही है कि वह अपने आपका साक्षात् नहीं करता, अपितु दूसरे उसके सम्बन्ध में क्या कहते हैं, क्या मानते हैं, उसके अनुसार अपना निर्णय करता है। दूसरे उसके सम्बन्ध में क्या जानेंगे? क्योंकि स्वयं का स्वयं के द्वारा साक्षात् कर पाना कठिन होता है तब भला दूसरा उसके बारे में कैसे अंकन करेंगा ? जो अंकन करेगा वह कितना यथार्थ होगा यह विचारणीय प्रश्न है । व्यक्ति के तीन चित्र व्यक्ति अपने आपको समाज के सम्मुख जो नहीं है, उसे दिखाने की कोशिश करता है । व्यक्ति के तीन चित्र हैं- लोग उसे किसी रूप में समझते हैं, दूसरे में वह किस रूप में जीता है, तीसरे में वह अपने आपको प्रस्तुत करता हैं। अधिक लोग दूसरों की धारणाओं से ही अपने आपका अंकन करते हैं, या फिर समाज, धर्म अथवा आदर्श के अनुरूप अपने आपको प्रस्तुत करते हैं जिससे लोग उसे उस रूप में समझें। जब स्वयं ही स्वयं को उस आदर्श के अनुरूप नहीं समझता हैं, तब दूसरे उसको उस रूप में कैसे समझेंगे ? मनुष्य की यह आत्म वंचना ही है कि वह जिस रूप में जी रहा है, उस रूप को स्वीकार न कर, आदर्श चित्र को प्रस्तुत करता है। तीनों चित्रों में पहला मान्यता है, तो दूसरा यथार्थ और तीसरा अयथार्थ । बाह्य व्यक्तित्व का अंकन प्रथम दर्शन में व्यक्ति का बाह्य व्यक्तित्व ही अभिव्यक्त होता है। लोग उसके आकार-प्रकार वेशभूषा से आकर्षित होते हैं। वेशभूषा, आकार-प्रकार कोई महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं हैं, फिर भी यह निश्चित सत्य है कि व्यक्ति का इन्द्रिय गुणों की ओर चित्त आकर्षित होता है। व्यक्ति का गमनागमन, क्रियाप्रतिक्रिया, हाव-भाव आदि भी दूसरों को प्रभावित करते हैं। शरीर की मुद्राएं भी भाषा की तरह दर्शक को खींचती हैं। शरीर की आकृतियां मूक भाषा है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व का अंकन करें ३ भाषा स्थूल होने से जहां बाहर से प्रियता - अप्रियता उत्पन्न करती है। वैसे ही मुद्राएं भी अपना प्रभाव छोड़ती हैं। भाषा की एक स्वरता से संगीत उत्पन्न हो जाता है, जिसे सुनकर व्यक्ति मुग्ध बन जाता है। मुद्राएं भी अन्तर की समलयता का प्रतीक है। मुद्राओं की समलयता से अन्तरंग भी सम होने लगता है । बाह्य व्यक्ति प्रारम्भ में आकर्षण उत्पन्न करता है । यदि अन्तरंग भी वैसा ही पावन होता है तब तो सोने में सुगन्ध उत्पन्न हो जाती है । राजा भोज की राज्य सभा जुड़ी हुईं थी। बड़े-बड़े विद्वान् आसानों पर विराजमान थे। एक पुरुष सुन्दर आभूषणों से विभूषित राज सभा में उपस्थित हुआ। राजा भोज सिंहासन से उठे और पुरुष का अभिवादन कर सम्मान किया। ऊंचे आसन बैठाया। उस समय फिर एक व्यक्ति फटे-पुराने कपड़े पहने हुए सभा में आया । राजा ने कोई ध्यान नहीं दिया। वह एक किनारे बैठ गया। सभा की कार्यवाही चलने लगी । विद्वानों के वक्तव्य हुए, चर्चा - परिचर्चा चली। फटे कपड़े पहने हुए जो व्यक्ति था, वह व्यक्ति प्रभावशाली वक्ता एवं विद्वान था। सभा विसर्जित हुईं सुन्दर कपड़े वाला व्यक्ति भी चला । भोज वैसे ही बैठे रहे । फटे कपड़ों में लिपटा व्यक्ति जब उठकर चलने लगा। राजा भोज स्वयं उसके साथ दरवाजे तक गए । विविध तरह के वस्त्राभूषण से सम्मानित किया । वापिस लौटने पर विद्वानों ने पूछा- राजन् ! आते समय विभूषित व्यक्ति को सम्मानित किया और जाते समय फटे-पुराने वस्त्र वाले को । आते समय सम्मान बाह्य व्यक्तित्व का था और जाते समय I विद्वान् और अन्तरंग व्यक्तित्व का था । अन्तरंग व्यक्तित्व का स्वरूप अन्तरंग व्यक्तित्व का अनुभव विचारों के सिलसिले से होने लगता है। विचार व्यक्ति के चित्त से उठने वाला संकेत है कि वह कैसा जीवन जी रहा है । रचनात्मक और विध्वंसात्मक विचारों के दो विभाग कर व्यक्तित्व को सम्यक् प्रकार से समझ सकते हैं। रचनात्मक विचार समता, प्रेम और करूणा से प्रस्फुटित होते हैं । विध्वंसात्मक विचार विषमता, घृणा और विद्वेष से प्रस्फुटित होते हैं । व्यक्ति में निर्माण और विध्वंस दोनों शक्तियां हैं। उसका उपयोग वह किसमें करता हैं, यह उसके व्यवहार पर निर्भर है। व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। समाज Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा की अपनी एक व्यवस्था होती है। उसका अनुपालन करने वाला व्यक्ति समाज में सभ्य कहलाता है। समता, प्रेम और करूणा अन्तरंग स्थिति है। समानार्थ नहीं होते हुए भी तीनों एक ही स्थिति के ही परिणाम हैं। समता के परिणाम को प्राप्त करने के लिए पहला सूत्र है-आत्म-निरीक्षण, दूसरा है आत्म-विश्लेषण तथा तीसरा सूत्र है आत्म-साक्षात्कार। आत्म-निरीक्षण से चैतन्य में उठने वाले आवेग और उद्वेगों की स्थिति का अनुभव किया जा सकता है। आवेग और उद्वेग किस तरह उठकर चैतन्य पर आच्छादित होते हैं। जिससे व्यक्ति काम क्रोध आदि में प्रवृत्त होता है। काम-क्रोध से व्यक्ति विमूढ़ बनता है। विमूढ़ता ही समस्त दुःखों की जननी है। विमूढ़ता तोड़ने का पहला प्रकार आत्म-निरीक्षण है। आत्म-निरीक्षण से जहां वस्तु स्थिति का अनुभव हो जाता है वहां आत्मविश्लेषण से उसका निराकरण होता है। दोष एवं कमियों को विश्लेषित करने से उनकी पकड़ छूटने लगती है। यह दोष अथवा आदत किस तरह कहां से आई जिसने मेरे जीवन को प्रभावित किया है। इस प्रकार गुण-दोष की स्पष्टता से ही व्यक्ति दोष एवं दुर्गुण से निवृत्त होता है। ___ दोष की निवृत्ति से शेष केवल अस्तित्व ही रहता है। अस्तित्व का साक्षात्कार स्वरूप का साक्षात्कार है, वह प्रेक्षा से उपलब्ध होता है। प्रेक्षा क्षणप्रतिक्षण अन्तरंग व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करती है। ०००० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ सुधार की आकांक्षा हम भी कैसे पागल हैं, दुनिया को बदलने में लगे हैं। स्वयं के अतिरिक्त सब कुछ बदल देना चाहते हैं। संसार का प्रत्येक व्यक्ति पवित्र बन जाए। आदमी देवता बन जाए। परमात्मा बन जाए। शब्द का आलाप शाब्दिक ही रह जाता है, जीवन का रूपान्तरण नहीं होता। रूपान्तरण साधना से फलित होता है। उपदेश से नहीं । अन्धेरा बात से नहीं, प्रकाश से मिटता है। बदलाहट का सूत्र दूसरों के लिए नहीं, प्रयोग के लिए है। प्रयोग ही परिणाम लाता है। प्रयोग की प्रक्रियाओं से जीवन बदलता है किन्तु कोई जीवन बदलना नहीं चाहता, केवल बदलने की चर्चा करता है। ऊपर के मुखौटे, मुखौटे ही होते हैं, उससे वृत्तियां नहीं बदलती। वृत्तियों को बदलने के लिए स्वयं को बदलने के लिए स्वयं को बदलना होता है। स्वयं को बदलने के लिए स्वयं को जानना आवश्यक होता है। स्वयं को जानने की प्रक्रिया ही प्रेक्षा' है। प्रेक्षा का सूत्र है 'संपिक्खए अप्पगमप्पएण' स्वयं से स्वयं को देखें । अपने से अपने को देखें। आत्मा से आत्मा को देखें। बड़ा विचित्र लगता है, यह कैसे संभव है ? स्वयं से स्वयं को, अपने से अपने रूपांतरण को, आत्मा से आत्मा को देखो। स्वयं के अस्तित्व का बोध हो, तभी अगले चरण के उठने की संभावना हो सकती है। जब स्वयं के अस्वित्व या स्वयं के बोध का अनुभव न हो, तब कैसे आशा करें आत्मा से आत्मा को देखने की, स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार की, अपने से अपने को जानने की ? । आत्मा को देखने की, स्वयं को बदलने की, अपने आप को रूपान्तरित करने की घटना के लिए सबसे पहले खोजना होगा कि हम अपने आपको कैसे विस्मृत करते हैं ? किस कारण से मूर्छित होकर विमूढ़ बनते हैं ? अपने आपकी विस्मृति को एक शब्द में अज्ञान या अविद्या कहा जा सकता है। अविद्या मूर्छा से ही फलित होती है। मूर्छा को परिपुष्ट करने वाले हैं-राग और द्वेष के विभिन्न परिणमन। राग-द्वेष का यह परिणमन चेतना में वस्तु एवं घटना के प्रति प्रिय-अप्रिय भाव से उत्पन्न होता है। वस्तु और घटना से जब चैतन्य Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा संपृक्त होता है, तब उसमें पूर्वकषाय के कारण प्रिय-अप्रिय भाव उत्पन्न होते हैं। प्रिय-अप्रिय भाव का ही परिणाम है कि चेतना राग-द्वेष में परिणित हो जाती है। राग-द्वेष का यह परिणमन ही कषाय को प्रगाढ़ बनाता है। कषाय की प्रगाढ़ता ही आश्रव को प्रेरित करती है। आश्रव ही कर्मों को आकृष्ट करता है। कर्म ही पुनः-पुनः जन्म और मृत्यु का कारण है। कर्म ही दुःख का मूल है। कर्म के उन्मूलन की प्रक्रिया का नाम साधना है। मूलतः जो साधना चित्त को निर्मल बनाती हो, कषाय को उपशान्त बनाती हो, वही वस्तुतः साधना प्रेक्षा-ध्यान-साधना का महत्त्व इसलिए दिन-प्रतिदिन उजागर होता जा रहा है कि उससे व्यक्ति का जीवन रूपांतरित होता है। जीवन को रूपांतरित करना सामान्य घटना नहीं है। वह व्यक्ति के विवेक से फलित होता है। विवेक ध्यान से प्रस्फुटित होता है। इसका तात्पर्य यह कभी नहीं है कि अन्य साधना मार्ग से जीवन रूपांतरित नहीं होता है। जिस साधना मार्ग से चित्त रूपांतरित होता है वही साधना उपयोगी व कल्याणकारी है। प्रेक्षा-ध्यान-साधना किसी सम्प्रदाय एवं मजहब की पद्धति नहीं है। प्रेक्षा स्वयं के साक्षात्कार की प्रक्रिया है। उसे किसी नाम से पुकारे उसका परिणाम समान आता है। समाज में भिन्न नाम से प्रचलित प्रक्रियाओं का विज्ञापन तो बहुत अधिक है, किन्तु अभीष्ट परिणाम जीवन में दिखाई नहीं देता। व्यक्ति का रूपांतरण परिवार को प्रभावित करता है। परिवार से समाज, राष्ट्र और विश्व की स्थितियां बदलती हैं। विश्व अथवा राष्ट्र, समाज या परिवार को बदलने के लिए उसकी इकाई व्यक्ति को बदलने का पुरुषार्थ करना होता है । स्वयं के पुरुषार्थ के बिना किसी को कोई भी दुनिया की ताकत नहीं बदल सकती, चाहे वह कोई भी महापुरुष क्यों न हो ? ___ महावीर का दामाद जमाली था। महावीर के कल्याणकारी मार्ग से हटकर विषयगामी बन गया। करुणा से प्रेरित होकर भगवान् महावीर ने गोशालक को बचाया, फिर भी उसने भगवान् महावीर पर भयंकर तेजोलब्धि का प्रयोग कर भगवान् के शिष्यों को भस्म कर उन्हें पीड़ित किया। हरिजनों के उद्धारक राष्ट्रपिता महात्मागांधी ने राष्ट्र में छुआछूत को दूर करने के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके विचारों से सवर्ण व अन्य For Private Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधार की आकांक्षा लोग हरिजनों के साथ मानवीय व्यवहार करने लगे। किन्तु उनकी धर्मपत्नी कस्तुरबा अपने पुराने विचारों पर सुदृढ़ थी। वह हरिजनों को अपने निकट फटकने तक नहीं देती थी। गांधीजी उसकी इस प्रवृत्ति से झुंझला उठते थे। वे कहते-सारी दुनिया को समझाना सरल हैं, किन्तु कस्तुरबा को समझाना महान् दुष्कर है। इतना सब होते हुए भी गांधीजी व्यक्ति की स्वतन्त्रता के पूरे हामी थे। बा पर अपने विचार बलात् थोपने की कोशिश नहीं की। न इनसे उनके पारस्परिक व्यवहार में अन्तर आया। मनुष्य चिंतनशील व्यक्तित्व का धनी है। उसकी अपनी एक विशेष क्षमता है कि वह चाहे तो ऊर्ध्वारोहण कर सकता हैं, चाहे तो अधोगमन कर सकता है, यह व्यक्ति की अपनी विलक्षणता है। दूसरा व्यक्ति उसके व्यक्तिगत निर्माण में हस्तक्षेप करें, यह कहां का न्याय है ? व्यक्ति जिस मार्ग को श्रेष्ठ समझ रहा है, उसके अनुसार स्वयं के आचरण की उसे सम्पूर्ण स्वतंत्रता है, किन्तु इस विचार के अनुसार सभी निर्मित हो, यह कैसी विडम्बना है ? साथ ही दूसरे व्यक्तित्व की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप भी है। किसी राष्ट्र के संचालन में अन्य राष्ट्र अपनी शक्ति और चिन्तन का योग उसकी सहमति के बिना करता है, तो वह उचित नहीं कहा जा सकता है। उसी प्रकार किसी के व्यक्तित्व निर्माण में यदि कोई किसी प्रकार का हस्तक्षेप करता है, यह कैसे स्वीकृत हो सकता है। हर व्यक्ति स्वतंत्र इकाई है। सबको अपने व्यक्तित्व के निर्माण का अधिकार है। साधना के क्षेत्र में भगवान महावीर ने प्रत्येक प्राणी को पूर्ण स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। स्वतंत्रता ही साधना की प्रथम और अन्तिम सीढ़ी है। महावीर ने साधना का उल्लेख करते हुए सबसे पहले इच्छाकार समाचारी का निरुपण किया। आचार्य भी शिष्य को सीधा आदेश नहीं देते। उसे साधना के लिए इच्छाकार समाचारी का निर्देश करते हैं। तुम्हारी इच्छा हो तो यह करो। साधना वैयक्तिक कार्य है। साधक उसे स्वयं इच्छा से कर सकता है, दूसरों के आरोपण अथवा दवाब से वह फलित नहीं होती। साधना करने वाला कैसा है, वह कौन-सी प्रवृत्ति करता है, उसके आचरण की सीमाएं क्या हैं ? साधना के अनुभव से ही उसे अगला कदम उठाना चाहिए। साधना की प्रवृत्तियों के लिए मार्ग-दर्शक केवल मार्ग के अवरोधों से अवगत करा सकता है अथवा अपने अनुभव से वह साधक में आत्म-विश्वास उत्पन्न कर सकता है। बाकी समस्त प्रवृत्ति का आधार तो स्वयं ही है। साधक साधना Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा पथ पर द्रुतगति से बढ़ सके उसके लिए उसे स्वयं अपने प्रयोगों के परिणाम से कदम बढ़ाना होता है। बाहर से समान दिखाई देने वाली प्रवृत्ति भी साधक के अन्तरंग व्यक्तित्व के कारण भिन्न-भिन्न परिणाम लाने वाली होती है। उसका कारण साधक का अपना अन्तर संस्कार और व्यक्तित्व ही है। किसी व्यक्तित्व के निर्माण और परिष्कार में दूसरा तो केवल सुझाव अथवा अपना अनुभव ही प्रस्तुत कर सकता है, यह उसके अधिकार की सीमा है। दूसरे को बदलने और रूपांतरण की जिम्मेदारी स्वयं पर न ओढ़ना ही साधना की श्रेष्ठता है। व्यक्ति की यह जबरदस्त पीड़ा है कि वह दूसरों को बदलने की सोचता है, जो दुनिया की असंभव घटना है। वह न कभी हुई और न कभी होगी। अतः यहीं श्रेयस्कर पथ है कि व्यक्ति स्वयं को बदलने के लिए साधना का प्रयोग करे, दूसरों को बदलने के दुरूह झंझट में न उलझे। ०००० Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या पंगु है धर्म ? धर्म को सहारा चाहिए। धर्म को चलाने वाला चाहिए। धर्म के प्रति श्रद्धा रखो। धर्म को चलाने वालों के मुख से जब यह सुनता हूं तब बड़ा अजीब लगता है। मन नाना प्रकार के प्रश्नों से भर जाता है। धर्म का अनुपालन कर, क्या धर्म पर अहसान किया जा रहा है ? धर्म के लिए सहारे की मांग से उसकी महत्ता प्रदर्शित हो रही है ? या धर्म को सहारा देने वाले व्यक्ति से कृपा की याचना की जा रही है ? धर्म को चलाने वाला चाहिए। क्या धर्म में स्वयं चलने का सामर्थ्य नहीं ? क्या धर्म में स्वयं खड़े रहने की क्षमता नहीं ? क्या धर्म का अपना व्यक्तिव नहीं ? उसे क्या श्रद्धा से ही मानना होता है ? धर्म की इस दयनीय स्थिति से चित्त चिन्तन में डूब गया। एक चोर था। चौर्य कर्म में अत्यन्त कुशल, किन्तु चोरी करते हुए एक चौकीदार के ध्यान में आ गया। अपने आपको बचाने के लिए अब भागने के सिवाय कोई चारा नहीं था। वह दौड़ा जा रहा था, पथ में देवी का विशाल मन्दिर आया। उसके चरण रुके। वह मां के चरणों में गिर गया गिड़गिड़ा कर प्रार्थना करने लगा। ___ "मां ! मुझे बचाओ। तुम ही मेरी रक्षिका हो। चौकीदार पीछे आ रहा है।" उसकी दयनीय स्थिति से देवी करुणा से भर गयी और प्रकट हो कर बोली-“भद्र उसका मुकाबला करो, तुम विजयी बन जाओगे।" मां ! विजयी तो बन जाऊंगा लेकिन सामना करने की क्षमता मेरे में नहीं है। पांव लड़खड़ा रहे हैं, शरीर सत्वहीन हो गया है। तुम ही कृपा करो। इस संकट से उबारो। तुम ही त्रायी और रक्षिका हो। __ "अच्छा कोई बात नहीं। तुम मुकाबला नहीं कर सकते हो, तो चलो मन्दिर के दरवाजे बन्द कर चुपचाप बैठ जाओ।" ___ "मां तुमने बड़ा सुन्दर उपाय सुझाया, परन्तु दरवाजे को बन्द करने का सामर्थ्य नहीं है। सारा शरीर निःसत्व हो गया, तुम ही दया करो संकट से Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा बचाओ। तुम्हारी शरण में आ गया हूं। अब तुम ही मेरे लिए... शरणागति । " सुन सामना नहीं कर सकता, दरवाजा भी बन्द नहीं होता, उठ, मेरी प्रतिमा के पीछे छुप जा किसी को कुछ पता नहीं चलेगा ।" १० जगदम्बे ! मेरी धड़कन तेज हो गयी है । चक्कर आने लगे हैं, मेरे से कुछ नहीं हो सकता, तारो अथवा मारो, अब तुम ही कल्याणी हो । देवी रोष से भरी हुयी बोली - "पुरुषत्वहीन, अकर्मण्य, दुष्ट इतना भी नहीं कर सकते, तो तेरी रक्षा कौन करेगा ? अणु को महान् बनाया जा सकता है, लेकिन जो व्यक्ति कुछ भी पुरुषार्थ नहीं करना चाहता, उसका सहयोग • कौन कर सकता है ? स्वयं पुरुषार्थ करें तो साथ में दूसरों की शक्ति सहयोगी बन सकती है । पागल, हट, मेरे मन्दिर से, मैं ऐसे अकर्मण्य का सहयोग कभी नहीं कर सकती ।" चोर ने देवी से प्रार्थना की अथवा नहीं की, किन्तु धर्म की दयनीय स्थिति देखकर लगता है वह दूसरों के सहारे जीना चाहते हैं। सहारे के बिना मानों वह खड़ा भी नहीं रह सकता । जो दूसरों के सहारे अथवा कृपा पर खड़ा रहता है। वह कब कितने समय तक खड़ा रहेगा ? यह विचारणीय प्रश्न है। धर्म की आज राष्ट्र, समाज और परिवार में अवहेलना हो रही है। वह उसकी अपनी अक्षमता है, असामर्थ्य है, अपौरुष है । धर्म की तेजस्विता और शक्ति ने ही उसे सर्वप्रथम समाज में प्रतिष्ठित किया । भगवान् ऋषभ ने स्वच्छन्द आदिवासी संस्कृति को परिवार, समाज व राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठा दी । व्यक्ति समृद्ध और शान्ति सम्पन्न बना । भगवान् ऋषभ का साम्राज्य दूर-दूर तक फैल गया । ऋषभ को सब कुछ उपलब्ध था। उसके बाद भी एक सत्य उनके सम्मुख था । वस्तु एवं जीवन की नश्वरता स्पष्ट थी । वस्तुएं प्रतिक्षण परिवर्तित होती जा रही हैं, मनुष्य जीवन भी इसी तरह नश्वर है। युवा शरीर जीर्णता में बदलता जा रहा है। जीवन मृत्यु में विलीन हो रहा है, ऋषभ प्रतिक्षण विनश्वर जगत में एक अविनश्वर सत्य का अनुभव निरन्तर कर रहे थे, जो सुख-दुख, लाभ-अलाभ, प्रिय-अप्रिय से मुक्त प्रतिक्षण आनन्द स्वरूप में आन्दोलित हो रहा था । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या पंगु है धर्म ? उसकी प्रेरणा से ऋषभ-साम्राज्य से विरत हो गये। परिवार के ममत्व से मुक्त हो गये। उनके लिये अपने और पराए की रेखा न रही। महल और जंगल की सीमाओं को पार कर गये। मेरा कहने के लिए उनके पास कुछ नहीं था। वे मौन, खाली हाथ, नंगे बदन, अपनी मस्ती से निकल पड़े। प्रफुल्लित, आनन्दित भाव से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे। अद्भुत घटना थी विश्व की। विराट् वैभव का स्वामी सब कुछ परित्याग कर मस्ती से मानों कोई राजमुकुट पहने अपने राज्य का संचालन कर रहा हो। ऋषभ के अन्तःकरण में धर्म का अंकुर फूट रहा था। यह सब उसका ही परिणाम और रूपान्तरण था। भगवान् ऋषभ कोई अन्य कारण से यह नहीं कर रहे थे। धर्म जागरण का परिणाम है-श्रद्धा, सहनशीलता, आनन्द और ज्ञान । भगवान् ऋषभ को खाना नहीं मिल रहा था, क्योंकि भिक्षा की व्यवस्था को कोई जानता ही नहीं था। वे इस स्थिति में भी समता में थे, शान्ति में थे। भगवान् ऋषभ ने साधना पथ को स्वीकार किया। उनकी इस मूक चर्या को देख चार हजार सामन्त, मंत्री आदि राजपुरुषों ने ऋषभ का अनुकरण किया । वे भी मूक ऋषभ का अनुकरण करते जा रहे थे। ऋषभ कहीं रुकते, वे भी रुक जाते। ऋषभ खड़े रहते, वे भी खड़े रह जाते। वे चलते, वे भी चल पड़ते। जब ऋषभ आंखे बन्द कर श्वास-प्रेक्षा करते अथवा शरीरप्रेक्षा, चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा, वे सब भी आंखें बन्द कर लेते । भगवान् ऋषभ आनन्दित थे। उनकी आंखों की रोशनी से करुणा प्रस्फुटित हो रही थी, लेकिन ऋषभ का अनुकरण करने वाले सामन्त, मंत्रीगण, ऊपर से भगवान् ऋषभ की तरह करते, किन्तु अन्तःकरण में आनन्द नहीं। शान्ति नहीं । ज्ञान नहीं। बेचैनी, क्लेश और नाना संकल्पविकल्प आन्दोलित हो रहे थे। कुछ दिन तो अन्धानुकरण श्रद्धावश चलता रहा, लेकिन अन्धानुकरण ज्यादा चल नहीं सकता, क्योंकि अन्दर से आन्दोलित होने वाली अशान्ति, क्लेश बाहर फूटे बिना नहीं रह सकते। उनमें से अनेकों विद्वेष से भर गये और साथ छोड़कर नदियों के किनारे पहाड़ों की गुफाओं में अपने आश्रम बनाकर रहने लगे। जो पास आते, उन्हें क्रियाकाण्ड एवं बाह्य-उपासनाएं सिखाते। भगवान् ऋषभ अपनी अन्तःसाधना में विलीन हो गये। उनको कैवल्य उपलब्ध हो गया। कैवल्य की उपलब्धि के पश्चात् उन्होंने अपना मौन खोला, साधना के विभिन्न आयामों का निरूपण किया। धर्म का यह निरूपण आध्यात्म की उपलब्धि का संकेत मात्र था। जिससे व्यक्ति अध्यात्म के स्वरूप को Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रज्ञा की परिक्रमा उपलब्ध हो सके। जिन व्यक्तियों ने सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप का अनुशरण किया उनको भी आनन्द, शान्ति और ज्ञान की उपलब्धि हुईं । वे भी ऋषभ की तरह शान्त और ममता से परिपूर्ण हो गये । धर्म जीवन का विज्ञान है। धर्म को जीना होता है। जिसको जी कर ही अनुभव किया जा सकता हो, वह चर्चा अथवा बाह्य उपचार विधियों से कैसे उपलब्ध हो सकता है। आज धर्म की दयनीय स्थिति इसलिए हो रही है कि धर्म की तेजस्विता आचरण एवं जीवन व्यवहार में प्रकट नहीं हो रही है। धर्म की तेजस्विता को प्रकट करने का एक ही मार्ग है-धर्म का जीवन व्यवहार में प्रयोग | प्रयोग ही निश्चित परिणाम लाता है, प्रयोग के बिना धर्म की तेजस्विता न आज प्रगट हुई न भविष्य में होगी । धर्म के प्रयोग से अनुभव स्वयं होने लगता है। जिसे अनुभव होता है फिर दुनिया की कोई भी शक्ति उस मार्ग से वंचित नहीं कर सकती। जो उस मार्ग से हट जाता है, निश्चित रूप से उसे धर्म का कोई अनुभव नहीं हुआ । उसने केवल अनुकरण किया है। अनुकरणधर्मी को सहारे की आवश्यकता सदैव होती है। उसे चलाने वाले की आवश्यकता होती है। उसके लिए श्रद्धा के उपदेश की बातें ही कर्ण प्रिय होती है। उससे दर्शन एवं वाचना के सिवाय कुछ भी उपलब्ध नहीं हो सकता है । भोजन करने से क्षुधा शान्त और शरीर पुष्ट होता है। पानी पीने से प्यास शान्त और गर्मी उपशान्त होती है। वैसे ही धर्म के प्रयोग से अध्यात्म का जागरण, शान्ति और ज्ञान प्राप्त होता है। निश्चित ही उसका अध्यात्म जागृत हो गया, उसका धर्म जागृत हो गया। उसे न किसी पर श्रद्धा की अपेक्षा होती है, उसके लिए स्वयं का सहारा काफी है । उससे ही उसके धर्म की अखंड लौ, स्वयं आलोकित होगी। उसका धर्म न पंगु रहेगा और न क्लीव होगा, बल्कि अनन्त शक्ति सम्पन्न बन जीवन धर्म होगा । ०००० Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य का स्फुरण एवं भौतिक विस्फोट ध्यान आज राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर चर्चनीय विषय है। विज्ञान ने अपने प्रयोग पदार्थ पर बहुत किए। उसके परिणाम भी सबके समक्ष हैं। विज्ञान के विकास से जहां मानव जाति बाहर से एक दूसरे के समीप आई है, वहां उसके अन्तःकरण एक दूसरे से दूर हो गए हैं। विज्ञान पदार्थ की खोज करते-करते अध्यात्म के उन तथ्यों की ओर अग्रसर हो गया है। उसे विवश होकर पदार्थ के पार तथ्यों पर खोज करना प्रारम्भ कर दिया है। जड़ पदार्थ ही सब कुछ नहीं है। चैतन्य सत्ता के सामर्थ्य को जानना आवश्यक है। उसके बिना जड़ का महत्त्व ही क्या है ? उसका उपयोग किसके लिए है ? जड़ और चेतन दोनों ही महत्वपूर्ण इकाई हैं, दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। वर्तमान क्षण का अनुसंधान प्रेक्षा जगत् में जो उपलब्ध है, वह शुद्ध चैतन्य नहीं है, जड़ से संयुक्त है। जड़ से संयुक्त चेतना ही संसारी आत्मा है। उसमें ही क्रोध, मान, माया, लोभ उपलब्ध होते हैं। यह कषाय चतुष्क ही सारी प्रवृत्तियों का मूल है। कषाय के उपशम करने की साधना के लिए प्रवृत्त व्यक्ति महात्मा कहलाता है । कषाय (राग-द्वेष) के संपूर्ण विलय की स्थिति ही परमात्मा परम अस्तित्व है। प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया में रागद्वेष रहित वर्तमान क्षण का अनुसंधान है। केवल . ज्ञानोपयोग ही प्रेक्षा है। प्रेक्षा की स्थिरता के लिए अनुप्रेक्षा का अभ्यास आवश्यक है। अनुप्रेक्षा से भावित चित्त में प्रेक्षा और अधिक स्पष्ट होती है। प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा की पुष्टि के लिए उपसम्पदा (ध्यान-दीक्षा) स्वीकार की जाती है। उपसम्पदा के मुख्य पांच तत्त्व हैं-भावक्रिया, प्रतिक्रिया विरति, मैत्री, मिताहार, मौन। भावक्रिया का तात्पर्य है-सतत जागरुक रहना। कोई भी कार्य जानते हुए करना होश पूर्वक करना। भावक्रिया से वर्तमान में आ जाते हैं, वर्तमान में राग-द्वेष रहित निरन्तर रहना ही भावक्रिया है। सामान्यतः साधक अक्रिय Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१४ प्रज्ञा की परिक्रमा नहीं रह सकता। अन्तःस्फूर्त कर्म ही क्रिया है। अक्सर क्रिया की प्रतिक्रिया ही कार्य में अभिव्यक्त होती है। प्रतिक्रिया विरति के लिए मैत्री परम आवश्यक है। मैत्री के विकास में ही प्रतिक्रिया विरति हो सकती है। हिंसा की प्रतिक्रिया में भोजन और भाषण की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भोजन और भाषण का असंयम क्रूरता प्रतिक्रिया और मूढ़ता को उत्पन्न करता है। भावनाओं की कर्मभूमि-शरीर मूढ़ता से शस्त्र, युद्ध और विनाश की लीला खेली जाती है। प्रतिक्रिया, क्रूरता का चक्का अपना कार्य करने लगता है। इस चक्र का साक्षात किए बिना तोड़ नहीं सकतें। शरीर मनुज के पास एक ऐसा महत्त्वपूर्ण संस्थान हैं, जिसमें हजारों कर्म हो रहे हैं दर्शन, श्रवण और इन्द्रियों की क्रियाएं श्वास, पाचन, सर्जन-विसर्जन आदि स्वतः संचालित क्रियाएं भी हो रही हैं। इनसे भावना, कर्म शरीर कैसे प्रभावित हो रहे हैं, यह भी एक रहस्य है। मानव शरीर पर शरीर शास्त्रियों ने महत्त्वपूर्ण खोजें की हैं। आज मनुष्य के एक-एक अवयव का इस प्रकार वैज्ञानिक विश्लेषण उपलब्ध हैं, जिससे हम जान सकते हैं किस अवयव पर काम क्रोध आदि की वृत्ति उभरती है। कहां पर इनका ज्ञान होता है और किस प्रकार इनसे मुक्त हुआ जा सकता शरीर केवल अस्थि, मांस का ढांचा ही नहीं है, साधना की दृष्टि से इसका बड़ा महत्त्व हैं। चैतन्य की छिपी हुई शक्ति इसके माध्यम से ही अभिव्यक्त होती है। शरीर को केवल इच्छा और कामना की संपूर्ति का माध्यम मानना मूढ़ता के अतिरिक्त कुछ नहीं है। विश्व के रहस्यों का केन्द्र-शरीर शरीर विश्व के समस्त रहस्यों को पिण्डीभूत किए हुए है। इन रहस्यों का पता बहुत कम लोगों को है। जिनको इनके रहस्यों का ज्ञान है, वे ही नर से नारायण की, आत्मा से परमात्मा की यात्रा कर सकते हैं। आज भी साधक व्यक्ति से अतिरिक्त विशिष्टता लिए हुए हैं। शिक्षा के विकास से मनुष्य की प्रवृत्तियां व्यवस्थित बनी हैं। इस व्यवस्था का लाभ आने वाली पीढ़ी को मिलता है। परमाणु की ऊर्जा का जब तक वैज्ञानिकों को पता नहीं था, तब | Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ चैतन्य का स्फुरण एवं भौतिक विस्फोट तक उसका उपयोग नहीं हो सका। परमाणु की शक्ति से जब परिचय हुआ उसका सामाजिक, राष्ट्रीय एवं दैनंदिन जीवन में उपयोग बढ़ता जा रहा है। वैज्ञानिकों ने उस शक्ति के दोहन के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया। शरीर में स्थित चैतन्य ऊर्जा का अनुभव ज्यों-ज्यों समाज को होगा, एक आध्यात्मिक क्रान्ति घटित होगी। प्राण और चैतन्य की ऊर्जा इतनी प्रचण्ड और विश्व कल्याणकारी है, जिसकी कल्पना सामान्य मानव नहीं कर सकता। परमाणु बमों की भयानकता से तो सभी परिचित हैं, उसके विस्फोट से किस प्रकार जन-जीवन तहस-नहस किया जा सकता है। लेकिन उससे विद्युत उत्पन्न कर निर्माण का विराट कार्य भी पूर्ण किया जा सकता है। तेजस के विस्फोट का परिणाम प्राण और तैजस की शक्ति के विस्फोट का परिणाम नाकासाकी हीरोशिमा की तरह प्रत्यक्ष नहीं है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि उसमें शक्ति और सामर्थ्य नहीं। नाकासाकी पर विस्फोट से पूर्व क्या परमाणु शक्ति नहीं थी ? आज भी प्राण और तैजस शक्ति के विस्फोट की यदा-कदा संक्षिप्त सूचनाएं मिलती हैं, जो इस विराट सत्य को उद्बोधित करती है। जिसको ऋषियों ने साक्षात् किया। भगवान महावीर के जीवन की घटना है-उन्होंने मंखलीपुत्र गोशालक को साधनाकाल में शिष्य बनाया, उसे शिक्षा दी। महावीर अपनी साधना में लीन थे, गोशालक के पास एक ऋषि खड़े थे जो शरीर से कुरूप, गन्दे और जीर्ण-शीर्ण वस्त्र पहने अपनी साधना में लगे हुए थे। गोशालक ने उसको तंग करना शुरु कर किया। वे कुपित हो उठे। उनके शरीर से भयंकर ज्वाला फूटी और गोशालक को जलाने के लिए उस पर छाने लगी। गोशालक चिल्लाता हुआ महावीर की शरण में दौड़ा-महावीर ! मुझे बचाओ, बचाओ, यह ऋषि मुझे जला रहा है। महावीर ने उस पर ध्यान दिया और उनके शरीर से शीतल तेजोलब्धि फूटी और भयंकर उठ रही ज्वाला शांत होकर लौट गई। गोशालक इस दुर्घटना से बाल-बाल बच गया। तेजस् लब्धि का प्रशिक्षण गोशालक ने महावीर के सामर्थ्य को देखा। भाव विभोर हो गया। उनके निकट आग्रह पूर्वक अनुयय-विनय करने लगा। मुझे तैजस् लब्धि के प्रयोग Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा को सिखाएं । महावीर उसके आग्रह और अनुरोध से पिघले । उन्होंने इस तैजस् लब्धि का प्रशिक्षण दिया। गोशालक ने उड़द का स्वरूप भोजन खुली धूप में प्राण एवं तैजस् को जागृत करने का उपक्रम प्रारम्भ किया। समय की पूर्ति से तेजोलब्धि प्रकट हुईं । गोशालक प्रफुल्लित हो उठा। एक समय आया, गोशालक भगवान् का विद्वेषी बन गया। महावीर का अपलाप करने लगा। गुस्से में आकर यत्र-तत्र महावीर के सम्बन्ध में लोगों के सम्मुख निन्दा करने लगा। उसकी इस वृत्ति को देख महावीर ने अपने शिष्य परिवार से कहाआज कोई गोशालक से चर्चा न करें, बात-चीत न करें। वह उन्मत्त और क्रोधित हो गया है। गोशालक महावीर के सामने आया और कहने लगा-महावीर तुम इन्द्रजालिक हो । पहले कैसी साधना करते थे। आज केवल सुख-सुविधावादी हो गए हो। मेरे संबंध में किसी से कुछ कहा तो मैं तुम्हें भस्म कर दूंगा। महावीर पर तेजस्लब्धि का प्रयोग गोशालक अपने आपको तीर्थंकर कहने लगा। लेकिन उसे कमजोरियां ज्ञात थीं। महावीर के साथ पूर्व संबंधों को वह जनता तक पहुंचने देना नहीं चाहता था। इससे उसे अपने तीर्थंकरत्व की प्रतिमा धूमिल दिखाई देती थी। वह दो टूक निर्णय करना चाहता था कि कोई मुझे यह न कहे कि मैं कभी महावीर का शिष्य था। महावीर की सभा में आकर उसने स्पष्ट रूप से उद्घोषित किया-मैं भगवान् का शिष्य नहीं हूं। जो शिष्य था, वह मर चुका है। मैं सात शरीर प्रवेश कर चुका हूं| भगवान् महावीर ने कहा-गोशालक ! तू वहीं मंखलीपुत्र गोशालक है, जिसको मैंने शिक्षित और दीक्षित किया। गोशालक इस बात को सुनकर क्रोध से तमतमा उठा और कहा-आज तुम्हारा मेरे हाथों अप्रिय होने वाला है। मैं तुम्हें नष्ट और विनष्ट कर दूंगा। __ गोशालक की यह बात सुनकर पूर्वदेशीय शिष्य सर्वानुभूति उठा ओर गोशालक के पास जाकर बोला-तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए, जिससे एक भी पद सीखते है। उनके प्रति विनम्र रहना सामान्य मनुष्य का कर्तव्य है। तुम्हें इस प्रकार के अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। गोशालक उसकी बात से उत्तेजित हो उठा और तेजोलब्धि का प्रयोग कर सर्वानुभूति को भगवान् के समक्ष ही भस्म कर दिया। सर्वानुभूति को भस्म Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ चैतन्य का स्फुरण एवं भौतिक विस्फोट देखकर अयोध्या से प्रवर्जित सुनक्षत्र नाम का अणागार उठा, उसको भी गोशालक ने भस्म कर दिया। भगवान् महावीर ने गोशालक के इस कृत्य को देखकर कहा-गोशालक! तेरे लिए इस प्रकार का व्यवहार उचित नहीं। मैंने तुझे शिक्षित किया, दीक्षित किया, फिर भी तू ऐसा व्यवहार कर रहा है। गोशालक उत्तेजित होकर पांच-छह कदम पीछे हटा और भगवान् पर तैजस्लब्धि का प्रयोग कर दिया। तेजस्लब्धि भंयकर आग की लपटें छोड़ती हुई भगवान् के शरीर के चारों ओर घूमने लगी। सारी सभा भयभीत और संत्रस्त हो उठी। महावीर अविचल अपने स्थान पर ठहरे हुए थे, तेजोलब्धि ने आकाश मार्ग से लौटकर गोशालक के शरीर में प्रविष्टि कर गई । गोशालक ने कहा-महावीर ! तुम मेरे तपःतेज से दग्ध हो चुके हो, छ: महीने में पित्तज्वर से आक्रान्त हो मृत्यु को वरोगे । भगवान् बोले-मैं छ: मास के भीतर नहीं मरूंगा, अभी सोलह वर्ष जीवित रहूंगा। लेकिन तुम सात दिनों के भीतर मृत्यु का वरण करोगे। महावीर की यह घोषणा सत्य सिद्ध हुईं। गोशालक की मृत्यु महावीर के कथनानुसार हुई। तेजस्लब्धि की क्षमता तेजस् लब्धि (कुंडलिनी शक्ति) एक विशेष प्रकार की प्राणशक्ति है। जो रुक्ष भोजन, तपस्या और सूर्य की आतप शक्ति के साथ ध्यान के प्रयोगों से उपलब्ध होती है। ठाणं, भगवती एवं आचारांग में इस संबंध में विस्तृत चर्चा है। तैजस्लब्धि से सम्पन्न व्यक्ति अपने स्थान पर खड़ा-खड़ा अंगअंग जैसे विशाल प्रान्तों को कुछ क्षणों में भस्म कर सकता है। आज के आयुद्धों से भी यह भयानक शक्ति है। यह शक्ति नष्ट करने की ही नहीं, अपितु सुरक्षा के उपयोग की भी है। जिसे शीतल तैजोलब्धि कहा जाता है, जो भयानक आग को शान्त कर सकती है। जिस व्यक्ति के पास तैजोलब्धि उपलब्ध है, उस व्यक्ति का भी इस लब्धि से कोई अहित नहीं किया जा सकता। ठाणं सूत्र में दसवें स्थान के एक सौ उनसठवें पद में तैजोलब्धि सम्पन्न साधक के बारे में चर्चा करते हुए लिखा है-कोई व्यक्ति तैजोलब्धि सम्पन्न श्रमण महान् की आशातना करता हुआ, उस पर कोई लब्धि का प्रयोग करता है तो वह लब्धि उस मुनि के शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती। मार नहीं सकती। उसके शरीर के ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं प्रदक्षिणा देती हुई आकाश मार्ग से वापिस लौटकर जिसने लब्धि का प्रयोग किया, उसी के शरीर में प्रविष्ट हो Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. प्रज्ञा की परिक्रमा जाती है। गोशालक ने भगवान् महावीर पर लब्धि का प्रयोग किया, वह लब्धि पुनः उसके शरीर में प्रविष्ट हुई और उसको ही प्रतिहत किया। जिससे उसकी मृत्यु हो गई । तैजोलब्धि से जैसे उष्ण विस्फोट होता है, वैसे ही शीतल विस्फोट भी किया जाता है। अणु वैज्ञानिकों ने परमाणु के विस्फोट से जो उष्ण ऊर्जा उत्पन्न की, क्या वैसे ही शीतल ऊर्जा भी उत्पन्न की जा सकती है ? परमाणु स्कन्ध में आठ स्पर्श होते हैं, उष्ण, शीत, रुक्ष, स्निग्ध, मृदु, कर्कश, लघु, गुरु । उष्णता के साथ शीतलता भी परमाणु में विद्यमान है। शीतलता का विस्फोट कर उष्णता की विभीषिका से मानव जाति को सुरक्षित किया जा सकता है। चैतन्य की अपनी विशेष क्षमता होती है, उस शक्ति को जागृत कर सृजन की नई दिशा को गतिशील बनाया जा सकता है। आकस्मिक ऊर्जा से शरीर भस्म ५ दिसंबर १६६६ की घटना है । काउडर स्पोर्ट पेंसिल वानिया में डा० जान हर्षित अपने मकान पर लेटे हुए थे । अकस्मात् शरीर से आग भभकी और वे भस्म हो गए। डॉ० जान डर्विन वेन्टले दरवाजे पर आए और पुकारा । कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला। पाइप के सहारे कमरे में प्रवेश किया । दृश्य देख दंग रह गए। ऐसा विभत्स दृश्य था, जिसे वे देख नहीं सके। डॉ० जान का पूरा शरीर जलकर राख हो गया। विशेषज्ञों ने घटना क्रम का भलीभांति अध्ययन किया । अन्ततः स्वतः जलने की संज्ञा दी। ऐसा ही एक घटना सेन्ट पीटर्स वर्ग प्लोरिडा में घटी। मेरीरिजर नामक एक अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट महिला कुर्सी पर बैठे-बैठे जल गई। इस कायिक दहन की विशेषता यह थी कि यह भयंकर आग एक मीटर के घेरे तक सीमित रही। जिससे मेरी का ८० किलो वजनी शरीर जलकर राख हो गया । शरीर को कोशिकाओं में इस प्रकार की प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती । किन्तु मनुष्य चेतना की अपनी अद्भुत शक्ति है । उसमें अनन्त शक्ति विद्यमान है। भगवान् महावीर ने संकल्प और प्राण को सक्रिय करने की प्रक्रिया गोशालक को सिखाई । उस तैजोलब्धि से ही उसने उनके शिष्यों को जला डाला ! यह शरीर की अग्नि नहीं, अपितु चेतना के संकल्प और प्राण की शक्ति है । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य का स्फुरण एवं भौतिक विस्फोट १६ सम्मोहन के प्रयोग के समय अगर प्रयोक्ता पर कंकर रखते हुए यह निर्देश दे कि यह आग का भयंकर गोला आपके हाथ पर रखा गया है। हाथ में भयंकर गर्मी और जलन बढ़ रही है, वह तत्काल अपने आपको बचाने के लिए उसको फेंक देगा । उस स्थान पर कई बार जलन से फफोले हो जाते हैं । सम्मोहन में केवल धारणा ही तो होती है। धारणा ही जब ऐसा कर सकती है तो संकल्प से प्राण और तैजस् शरीर को जगाने से क्या भयंकर विस्फोट नहीं हो सकता । ०००० Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व की अन्तहीन परिक्रमा आचार्य श्री तुलसी दक्षिण भारत की पदयात्रा पर थे। महाराष्ट्र की राजधानी बम्बई से थाना होते हुए पूना की ओर बढ़ रहे थे। थाना से प्रस्थान कर सड़क के किनारे बसे ग्राम में पहुंचे। गुजराती भाई की एक पुरानी कोठी थी। रात्रि का विश्राम स्थल यहीं था। संध्या का समय था। सामने खाड़ी का छितरा हुआ पानी था। मैं लकड़ी के पात्र को हाथ में थामे हुए सीढ़ियां उतर रहा था। लोहे के खम्भे के सहारे कटावदार पट्टियों से बनी सीढ़ियों को पार कर रहा था, कि अकस्मात् मेरी कुहनी का कोना लोहे के खम्भे से ऐसे टकराया मुझे मानो करेंट ने छ दिया हो। मस्तक चक्कर खाने लगा। शरीर पूरी तरह से शिथिल हो गया। मैं पीठ के बल सीढ़ियों में गिर गया। सामने से संत आ रहे थे। मुझे ऐसे गिरते देख तत्काल संभालने लगे। मुझे टक्कर का स्मरण अच्छी तरह था। पात्र हाथ से लुढ़क रहा था। मैं शान्त, शून्य किसी एक विशेष स्थिति में पहुंच रहा था, ऐसा मुझे अनुभव हो रहा था। कोई इसे ट्रांस कहता है, कोई सतौरी, कोई समाधि की झलक । कोई टक्कर से चक्कर और बेहोशी। कुछ मिनट का वह अनुभव आज भी स्मृति पटल पर सुरक्षित है। वह घटना भुलाए भी नहीं भूली जा रही है। सचमुच वे क्षण मेरी समाधि की खोज के प्रेरक बनें। समाधि साधना का आदि बिन्दु भी है और अन्तिम छोर भी। समाधि भारतीय साधना पद्धति का विशिष्ट शब्द बन गया, जिसका लाक्षणिक अर्थ हो गया है ऐसा आनन्द, शक्ति और ज्ञानमयी अवस्था जिसमें व्यक्ति दीन और दुनिया को भुलकर अपने स्वरूप में लीन बना रहता है। समाधि का सरल अर्थ है समाधान। जब व्यक्ति किसी समस्या का समाधान पा लेता है वह अपने आप में समाहित हो जोता है। समाधि को उपलब्ध हो जाता है। समस्याओं के समाधान का नाम समाधि है। इसका निर्णय कौन करे ? जो समाधान मिला क्या वह यथार्थ के धरातल पर उतरा है या कल्पना के रंगों से रंगा हुआ काल्पनिक भाव है ? समाधि की स्थिति Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व की अंतहीन परिक्रमा तो वैयक्तिक है उसे वह अनुभव के स्तर पर अनुभूत कर सकता है। उसे दुहराया जा सकता है। कल्पना जनित समाधि कभी स्थिर नहीं रह सकती। उसकी झलक अस्पष्ट होती है और उसे दुहराया नहीं जा सकता। ऐसे इस जगत् की कोई भी घटना दुहराई नहीं जा सकती। इसका दूसरा पक्ष भी है। कोई घटना नवीन नहीं होती। यहां सब घटनाएं वर्तुल में चल रही हैं। जब घटनाओं का वर्तल है तब कौन घटना नवीन और कौन घटना प्राचीन। इस जगत् में नये का द्योतक नहीं है क्या। प्रातःकाल का समय था। सूरज पूर्व दिशा में ऊपर उठ रहा था। खुले मैदान के पास धर्मशाला थी। जिसमें आंखों के ऑपरेशन का शिविर लगा हुआ था। माताजी के साथ मुझे ऑपरेशन थियेटर में जाना पड़ा। कम्पाउडर रोगी की आंखों में औषध डाल रहा था। पलकें खुली थीं, औषध से मोतिया इकट्ठा हो पत्थर के टुकड़े जैसा हो गया। मेरी आंखें उस टुकड़े पर एकाग्र हो गई, डॉक्टर औजार से ऑपरेशन कर रहा था। पत्थर का सा टुकड़ा बाहर निकालने में वह संलग्न था। मेरी आंखें एकाग्र बन गई। मन स्थिर हो गया। मस्तिष्क विचार-शून्य और चित्त समाधिस्थ हो गया। उस क्षण क्या घटित हुआ वह आज भी स्मृति पटल पर अंकित है। क्या यह भी बेहोशी थी ? होश में गया था या समाधि की कोई झलक थी। सावन का महीना था। आकाश-बादलों से आछन्न था। पवन की ' अनुकूलता से रिमझिम-रिमझिम वर्षा होने लगी। साथियों के साथ मैं वर्षा का मजा ले रहा था। भीगे बदन, गीले कपड़े दो-दो के ग्रुप में एक दूसरे के हाथ को पकड़े "घूमर" का खेल खेल रहे थे। जिसमें घूमा जाता है। घूमर का चक्कर इतना तेज चला कि धरती, आकाश और आस-पास का पूरा वातावरण घूमने लगा। तेज धुमाव में मैं ज्यों ही ठहरा, चित्त शून्य हो गया। शरीर शिथिल, मन शान्त, श्वास मंद मैं ऐसी शान्त समाहित स्थिति में पहुंच गया, तीन घंटे के बाद लौटा। ये आकस्मिक घटनाएं थीं। मेरी चेतना को इन अनुभवों ने झंकृत कर दिया। क्या ये स्थितियां आकस्मिक थीं। इनको दुहराया जा सकता है ? सीढ़ियों की टक्कर और ऑपेरशन की स्थिति में जो घटा वह आकस्मिक अवश्य थी, लेकिन उसमें भी कोई व्यवस्था और नियम अवश्य काम करता होगा, लेकिन दुबारा दोहराया नहीं जा सका। तीसरी घटना का उपयोग Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा निर्विचारता के लिए किया जा सकता है। किसी व्यक्ति को गहरी समाधि में ले जाया सकता है ? प्रश्नचिन्ह मस्तिष्क में जिज्ञासा बन कर उभर रहा था। सभी स्थितियों में शरीर का शिथिलीकरण निश्चित था। शिथिलीकरण समाधि (समाधान) को पूर्व अवस्था है। शिथिलीकरण को साधने कायोत्सर्ग का अभ्यास कर रहा था । कायोत्सर्ग में एक-एक मांसपेशी, कोशिका पर चित्त को एकाग्र कर शिथिलता का सुझाव दे रहा था। शरीर को शव की तरह छोड़ उसमें उभर रही चैतन्य धारा का अनुभव कर रहा था। शरीर पत्थर की तरह कड़ा हुआ और दूसरे क्षण ही शिथिल और हल्का अनुभव होने लगा। शरीर के गहरे शिथिलीकरण से श्वास मंद, विचार शान्त और चित्त समाधिस्थ हो गया। क्या यह भी कोई बेहोशी ट्रांस या समाधि की झलक. थी। गहरे शिथिलीकरण के समय न बेहोशी थी, न ट्रांस था, किन्तु शरीर एक खोल के सदृश, टूटे वृक्ष की डाल की तरह पड़ा था। समाधि की सजगता में अनिर्वचनीय शान्ति और आनन्द का अनुभव हुआ। कायोत्सर्ग की गहराई व्यक्ति को समाहित बना देती है। समाधि की स्थिति में जागरूकता के जो क्षण गुजरे तब पता लगा कि अस्तित्व क्या है? आकांक्षा क्या है ? अस्तित्व की अनुभूति ही समाधि है ? आकांक्षा की पकड़ में आकर ही चित्त परिभ्रमण करता है। समाधि का तात्पर्य है आकांक्षा रहित अस्तित्व में विलीन रहना। प्रेक्षा की स्थिति में शरीर के एक-एक अणु (प्रदेश) में चैतन्य जागरण, प्रस्फुटित होने लगता है। प्रेक्षा की स्थितियों में घटित समाधि में निरन्तर अस्तित्व की झलक फैलती अनुभव होती है। चेतना किसी विराट अस्तित्व में परिणित हो रही थी। न विचार, न विकार, न अहंकार, न आकांक्षा क्षणप्रतिक्षण उभर रही लहरों से ऐसा लगता था कि अस्तित्व सागर बनता जा रहा है। जहां मैं और तूं का कोई भेद अनुभव नहीं हो रहा था। केवल अस्तित्व की अनुभूति का स्पष्ट आभास था। इसे समाधि ट्रांस या बेहोशी कहें ? कैसे कहूं बेहोशी, होश निरन्तर था। कैसे कहूं ट्रांस ? चित्त जागता था। तब समाधि कहूं ? कैसे कहा जाए समाधि, हर क्षण जीवन्त चैतन्य धारा अतीत को छोड़, वर्तमान का स्पर्श कर, भविष्य से विराम लिए आगे से आगे गतिमान बन रही थी। देखू कहां है-वह सागर ? कहां है उजागर ? कहां है यायावर? जो अस्तित्व की अन्तहीन परिक्रमा कर रहा है। ०००० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतो ! सहज समाधि भली मैं जानता हूं अपने चित्त को, वह वर्षों खोजता रहा गुरु को, सिद्ध पुरुष को, समाधि के रहस्य को। पता नहीं कहां से कहां पदयात्राएं कीं। रेतीले टीलों में फैली धूप, छाया के बीच लहराती सागर की लहरियों में, मृग की तरह दौड़-दौड़ अपनी प्यास को बुझाने की कोशिश में यौवन लुटा दिया। कहां पानी ? कहां पानी पिलाने वाला? क्या प्यासा ही मरेगा बेचारा । झाड़ियों के बीच जंगलों में भटका, पहाड़ियों की चोटियों पर बनी कुटियों की खाक छानी। खाक ही खाक थी, चिनगारी कहीं उपलब्ध नहीं हुई। गुफाओं में खोजा, बरफ की दरारों में दिवाना बना फिरा कि कोई गुरु मिल जाए। शरद रात की शीतल समीर शरीर में सनसनाहट पैदा कर रही थी। बरफ से घिरी घाटी के मध्य मील के पत्थर की तरह मैं अकेला खड़ा था। आकाश में टिमटिमाते तारों की झिलमिलाती रोशनी के बीच चांद की शांत निर्मल चांदनी की चादर पूरी घाटी पर बिछी हुई थी। बाहर के विराट फैलाव की ओर आंखें जाती तब अपने अस्तित्व की लघिमा का पता चलता। ना तुच्छ, ना चीज, हवा का एक झौंका लगा कि पता ही नहीं मिलेगा कि कोई मनुज यहां से गुजरा था। चिन्तन मात्र से शरीर प्रकंपित हो उठा। पसीना रोम-रोम से चू पड़ा। सिर चकराने लगा। धरती और आकाश घूमने लगा। शरीर भी जैसे चाक पर चक्कर काट रहा हो। सब कुछ धूम रहा था लेकिन चैतन्य का एक केन्द्र अब भी स्थिर था। उसकी स्थिरता और अस्थिरता के विस्फोट से चैतन्य का एक-एक प्रदेश झंकृत हो गया। बाहर की घाटी की तरह, अन्दर भी विराट अस्तित्व हिलोरे ले रहा था। "अकथ कहानी अस्तित्व की मुख से कही न जाए" उक्ति चरितार्थ हो रही थी। आकाश की तरह विशाल, तारों की तरह चमकते प्राण के बिन्दु, चांद की तरह चैतन्य की उज्ज्वल रश्मियां फूटने लगीं । मानो हजारों-हजारों सूरज एक साथ रोशनी बिखेर रहे थे । आंखें चुधिया गईं। अपूर्व घटना थी। अश्रुत थी। अदृश्य थी। कल्पना के पंखों पर भी उतारी नहीं जा सकती। न सर्दी, न गर्मी, न भय, न मूर्छा, न काम, न Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा क्रोध, न मोह, न लोभ, ना माया, न इच्छा, न बुभुक्षा, न मुमुक्षा केवल अस्तित्व की विराट शक्ति का लहराता दरिया जिसमें न अहंकार, न ममकार, न आधि न व्याधि और न उपाधि केवल कलौले भरता शांत स्वर मुखरित हो रहा था, चले आओ, बढ़ें आओ, लक्ष्य के प्रति समर्पण ही, सच्ची खोज और सच्चा सद्गुरु है। गुरु अस्तित्व का अनुभव है। गुरु विराट का अनुभव है। गुरु साकार का साक्षात् है। गुरु निराकार का अनुभव है। गुरु गुरु है। गुरु प्यास है। गुरु अभिप्सा ही है। गुरु अन्तर् की पुनरावृत्ति हैं। गुरु स्वप्न की अभिव्यक्ति है। गुरु तो केवल बहाना है, चैतन्य के अस्तित्व की स्वीकृति और प्रगटीकरण विस्तार के लिए। व्यक्ति की अपनी दुर्बलता है कि स्वयं की स्वीकृति को भी दूसरों को सहमति से पहचानता है। किसी अनुभूति को अभिव्यक्ति देते समय तीन बार दाएं-बाएं झांकता है। स्वयं को स्वयं पर जब विश्वास नहीं तब निर्णय कैसे ले सकता है ? सत्य की अभिव्यक्ति और अनुभूति के लिए साधना से गुजरना होता है। साधना से गुजर कर सत्य का अनुभव किया जा सकता है। व्यक्ति साधना का पुरुषार्थ करना नहीं चाहता। गुरु के अनुभव से लाभान्वित होना चाहता है। कोई भी व्यक्ति स्वयं की साधना का अनुभव दूसरो को नहीं दे सकता। प्रत्येक व्यक्ति को साधना द्वारा उन अनुभवों का साक्षात् करना होता है, जिनका गुरुजनों ने अनुभव किया उसका अनुभव व्यक्ति स्वयं भी साधना द्वारा कर सकता है। कुछ अनुभव ऐसे आकस्मिक होते हैं कि उनका विश्लेषण करना अत्यन्त दुरूह है। ये अनुभव कोई पूर्व नियोजित अथवा कल्पित नहीं होते। जो अनुभूति के तल पर उतरता है उससे इन्कार भी नहीं किया जा सकता। पूर्णिमा की रात्रि थी। आकाश प्रशांत था। तारे दूर-दूर फैले टिमटिमा रहे थें । रोशनी की श्वेत धारा आकाशगंगा में परिणित हो रही थी। मन श्वास पर केन्द्रित था। श्वास-प्रश्वास की एकलयता से जागरूकता बढ़ रही थी। जागरूक वृत्ति में मन खोता जा रहा था। यह अजीब सा अनुभव था। फिर भी चित्त क्षण प्रतिक्षण परिवर्तन होने वाली पर्यायों (अवस्थाओं) का साक्षी भाव से निरीक्षण कर रहा था। न कोई स्मृति थी, न कोई कल्पना थी। न कोई विचार उभर रहा था। चित्त निर्विचारता के गहन बोध में उतर रहा था। एक नया अनुभव, एक नई दिशा, एक-एक परत खुल-खुल कर, अस्तित्व की अतल Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्तों ! सहज समाधि भूली ! गहराई में उतरे जा रही थी। अजीब था वह क्षण । शरीर की कोशिकाओं से प्रतिभासित होने वाला ज्ञान, प्रकाश, शब्द संकेत उसके लिए असमर्थ है। शब्दाभिव्यक्ति अनुभूति को सिमेटने में कितनी असफल लग रही थी। अनेक बार चिन्तन के बावजूद मानस को हार कर उस लड़खड़ाते अनुवाद को स्वीकृत करने के सिवाय कोई पथ सूझ नहीं रहा था। शरीर के कण-कण में विचित्र स्फुरणा की एक सुखद प्रतीति में प्राण इतना आनन्द विहल हो रहा था। जिसकी शब्द सूचना और पहिचान करते कठिनाई हो रही थी। फिर भी चेतना अत्यन्त जागरूक थी। अकस्मात् शरीर में करेंट का झटका सा लगा। शरीर के आकार का सुन्दर दिव्य रूप ध्यानस्थ व पद्मासन आकाश में तैर रहा था। समाधि की यह व्यवस्था थी या सूक्ष्म शरीर की यात्रा (एष्ट्रल ट्रेवलिंग) अथवा स्वप्निल मानसिक चिन्तन, यह खोज का ही विषय हो सकता है। घंटों तक ध्यान की यह यात्रा चलती रही। अनुभव की अमिट गाथा चेतना के तल पर अंकित हो गई। वह आज भी स्मृति पटल पर उभर-उभर कर तैरने लगती है। सोचता हु आखिर यह सब क्या थी। कबीर की उलट वासियां सामने कौंध गई। सन्तो! आनन्द की वर्षा हो रही है। बूंद समानी समंद में' 'गंगे केरी सरकरां' । अनुभूति को गूंगे का गुडं कह कर अभिव्यक्ति की असमर्थता बता रहे हैं। नानक तेरा....तेरा....तेरा.....तेरा कहते विराट में एक लय हो गए। बुद्ध वृद्ध रोगी, मृतक को देख जाग गए यथार्थ के अनुभव के लिए गतिशील बन गए। आचार्य भिक्षु ज्वर से पीड़ित आसन पर रात्रि में विश्राम कर रहे थे। सत्य के स्वर, चिंतन और चैतन्य पर चोट कर रहे थे। आखिर सत्य विजयी हुआ, आचार्य भिक्षु ने अपने आप को सत्य के प्रति समर्पित कर दिया। जिसका परिणाम तेरापंथ का उद्भव हुआ। गुरु के सम्मुख एक झेन सन्यासी पहुंचा । बोधि के उपाय के लिए पुनः पुनः प्रार्थना कर रहा था। गुरु ने कहा-अभी नहीं, चले जाओ। एक हाथ की ताली की आवाज सुनोः तब मेरे पास आना; बोधि की शिक्षा तब दूंगा। शिष्य कितनी बार लौटा मिलने के लिए। एक दिन अचानक वह एक हाथ की ताली की आवाज को उपलब्ध हो गया। झेन गुरु इसको सतौरी कहते हैं क्या यह वैसी ही घटना थी। ०००० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्या का मूल : समाधान का फूल "क्रोध क्यों करते हो ? माया के चक्कर में कैसे आ गए ? तुझे शर्म नहीं आई ? तू स्वाद लोलुप कैसे हो गया ? तू घमण्डी कैसे हो गया ? तुझे ज्ञान इसीलिए सिखाया था ? शिष्य को गुरु बड़ी बेखूबी से डांट रहे थे। बेचारा शिष्य बिना कुछ बोले चुपचाप सुन रहा था। मेरा अन्तर चित्त आन्दोलित होने लगा। प्रश्नों की लम्बी श्रृंखला उभर आई। क्या वह क्रोध करता है ? माया के चक्कर में वह आ रहा है ? क्या स्वाद लोलुप बन रहा है ? क्या धमंड वह करता है ? मेरा चिन्तन इन सभी प्रश्नों में उलझ रहा था कि पड़ोस के घर से ऊंची आवाज गूंज उठी। बेवकूफ कहीं का तूने मेरे व्यापार को ही चौपट कर दिया। मेरे कुल को कलंकित कर दिया। पिता के सन्मुख बेटा क्या बोलता? ___मैं हैरान था, बेचारे ने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया, जिसके लिए उसे इतनी लताड़ मिल रही है। पास खड़ी सास अपनी बहू को कोस रही थी-दुष्टा ! तूने हमारे वंश का ही नाम मिटा दिया। मेरे बेटे के पश्चात् इस घर का आधार कौन होगा ? तू निपूति ही रही। बहू मौन, सब कुछ सहे जा रही थी, बोले भी तो क्या बोले। ____ कारखाने में मजदूर को मालिक आंख दिखा रहा है। उत्पादन गिर रहा है। ग्राहकों की आवश्यकता पूरी नहीं हो पा रही है। कल तक १३ ग्रूस सामान नहीं बना तो फैक्ट्री से बरखास्त । मजदूर मिमियाते स्वर में हां, बाबूजी, बिना आंख उठाये अपने काम में जुट गये हैं। __ मैं मन ही मन चिन्तन कर रहा था कि मजदूर काम पूरा करे भी तो कैसे करें ? विद्युत उसे पूरा मिलता ही नहीं। ___ आज शिष्य के सन्मुख समस्या है कि वह गुरुजी की बात कैसे पूरी करें? बेटा सोचता है कि पिता की आज्ञा का कैसे अनुपालन करें ? बहू सास की भावना कैसे पूरा करें ? मजदूर मालिक के आदेश की पूर्ति कैसे करें ? समस्या सभी के सन्मुख है। उसके समाधान के सूत्रों का अन्वेषण अनिवार्य है। शिष्य क्रोध का उपशम कैसे करें ? आखिर यह कब तक ऐसे Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्या का मूल-समाधान का फूल २७ चलता रहेगा ? शिष्य की अपनी समस्या है कि हजार कसम और उपालम्भ खाने के बाद भी वह समझ नहीं पा रहा है। आखिर यह सब अनचाहे क्रोध में कैसे प्रवृत्त हो जाता है, काम में आसक्त हो जाता है गुरु की अपनी कठिनाई है, इसको इतना समझाया, पढ़ाया, परिश्रम किया, उपदेश दिया, सब गुड़गोबर कर दिया ऐसे ढीठ शिष्य को अपने पास रखना तो सर पर बला मोल लेना है। पिता के लिए पुत्र, सास के लिए बहू, मालिक के लिए मजदूर समस्या बन गया है। समस्या के समाधान का सूत्र एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप से नहीं मिल सकता। आरोप-प्रत्यारोप से केवल कटुता ही बढ़ सकती है। वह फिर एक नवीन समस्या का रूप धारणा कर लेती है। जब इस समस्या का समाधान खोजा गया तो एक नई दृष्टि उपलब्ध हई । समस्या कहीं है, समाधान कहीं, खोजा जा रहा है। केवल उपदेश देकर शिष्य के मानस में जमे संस्कारों को कैसे बदला जा सकता है ? उपदेश श्रवण करने वाला व बदलने वाला दोनों एक नहीं होते। इसका अलग स्थान और क्षेत्र है। उपदेश सुनने से मस्तिष्क के श्रवण और स्मृति कोष्ठक सक्रिय होते हैं, उससे शब्दकोष की क्षमता का विकास होता है। चेतना के स्तर पर वह ऐसा एहसास करने लगता है कि मुझे सब कुछ ज्ञात है, किन्तु ज्ञान आचरण की भूमि पर उतर नहीं पाता। __ हजारों साल होने जा रहे हैं-उपदेश और सत्संग के मंच से आदमी रूपान्तरित नहीं हुआ। प्रत्युत् उपदेश और सत्संग में जाने से अंहकार का अनुभव होने लगता है कि मैं सत्संगी और सद्शास्त्रों का ज्ञाता हूं। निरन्तर सत्संग और उपदेश के बावजूद भय, आवेश, ईर्ष्या, घृणा आदि तो वैसे के वैसे ही हैं। तब व्यक्ति को सोचने को विवश होना पड़ता है कि हम परस्पर एक-दूसरे की समस्या से पीड़ित हैं। आखिर समाधान का सूत्र कहां उपलब्ध होगा ? हर समस्या अन्तरंग होती है। हमें समस्या का विस्तार बाहर फैला दिखाई देता है। बाहर परिधि है और केन्द्र भीतर है। इसलिए समस्या का समाधान भीतर खोजना होगा। प्रेक्षा-ध्यान समस्या को भीतर खोजता है, परिणामतः समस्या को स्पष्टतः देखना ही उसके समाधान का आदि बिन्दु बन जाता है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा बाहर जो भी घटना घटित होती है, उसको अन्दर से स्वीकृति नहीं मिलने से उसका कोई प्रभाव व्यक्ति पर नहीं होता, एक ही घटना को सहस्रों व्यक्ति सहस्रों रूप से उसे स्वीकृत या अस्वीकृत करते हैं। स्वीकृति करने वाले प्रभावित होते हैं, अस्वीकृत करने वाले अप्रभावित होते हैं, जबकि तटस्थ रहने वाला तटस्थ ही रहता है। आवेगों अथवा अन्य समस्याओं का समाधान कोई दूसरा नहीं दे सकता उसके लिए स्वयं को पुरुषार्थ करना होता है। प्रेक्षा की प्रक्रियाएं सम्यक् पुरुषार्थ को जागृत कर समाधान प्रस्तुत करती हैं। प्रेक्षा की प्रक्रियाओं में भावक्रिया, प्रतिक्रिया-निवृत्ति, मैत्री, मितहार और मौन फलित होता है। भावक्रिया वर्तमान में जीने की कला है। अतीत और भविष्य से हटकर व्यक्ति का उपयोग (ज्ञान) वर्तमान में उपयुक्त होता है तो समस्याएं स्वयं समाहित हो जाती है। अतीत और भविष्य में उलझकर वर्तमान को खो देना ही समस्या का स्रोत है। उससे क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती रहती है। प्रतिक्रिया की श्रृंखला जीवन में विघटन, निराशा, शक्ति का अपव्यय आदि उत्पन्न करती है। __ प्रतिक्रिया-निवृत्ति प्रेक्षा से आज जन हम केवल वर्तमान में यथार्थ दृष्टि से जीते हैं तब स्वतः उपलब्ध हो जाती है। वस्तु और घटना को यथार्थ दृष्टि देखने मात्र से वीतरागता का पथ उपलब्ध होने लगता है। मैत्री की भावना मिताहार को प्रगट करती है, प्रेक्षक केवल जीवन निर्वाह के लिए मित आहार ग्रहण करेगा। मिताहार से आहार की शुद्धि, आहार की शुद्धि से शरीर की शुद्धि, शरीर से वाक् संयम और मौन होता है। प्रेक्षा में फलित होने वाले पांच तत्व (१) भावक्रिया (२) प्रतिक्रिया-निवृत्ति (३) मैत्री (४) मिताहार (५) मौन Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय ज्ञान की गंगोत्री भगवान् महावीर से शिष्य ने पूछा-भन्ते ! स्वाध्याय से जीव क्या प्राप्त करता है। भगवान् ने प्रत्युत्तर में कहा-ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है। ज्ञानावरणीय चेतना पर आया ऐसा आवरण है, जिससे आत्म-दर्शन से व्यक्ति वंचित रहता है। ज्ञानावरण के क्षय होने से परमात्म स्वरूप उपलब्ध होता है। __ चैतन्य स्वरूप को विस्मृत कर, बहिरात्म भाव में प्रवृत्ति करता है। जिससे उसे पर द्रव्य में स्व का बोध होने लगता है। पर द्रव्य में स्व का बोध ही मिथ्यात्व, मूढ़ता, अविद्या है। मुक्ति की प्रथम झलक-सम्यग् दर्शन __ चैतन्य जब कषाय की मंदता से अंतराभिमुख होता है तब चित्त स्वभाव में प्रवृत्ति करने लगता है। पदार्थ के प्रति उसका दृष्टिकोण यथार्थ होने लगता है। यथार्थ भाव से (सम्यग्-दर्शन) अध्यात्म का प्रथम सोपान प्रारंभ होता है। सम्यग् दर्शन मुक्ति का प्रथम बिन्दु है। परमात्मा की पहली झलक सम्यग् दर्शन में ही उपलब्ध होती है। सम्यग दर्शन को उपलब्ध कर लेने वाला प्राणी निश्चित रूप से परमात्मा पद को प्राप्त करता है। मुमुक्षा ही भव्यत्व है परमात्म पद की उपलब्धि के कई चरण हैं। परमात्म पद की क्षमता समस्त प्राणियों में होते हुए भी अनंतानंत ऐसे प्राणी हैं जो त्रिकाल में भी इस पद को प्राप्त नहीं हो सकते। परमात्म पद की योग्यता का पहला लक्षण मुमुक्षा है जिसमें मैं मुक्त हो सकता हूं क्या ? ऐसी जिज्ञासा ही उसमें भव्यत्व का लक्षण प्रकट करती है। जिनमें ऐसी जिज्ञासा कभी नहीं उभरती वे अभव्य हैं। वे त्रिकाल में भी मुक्त नहीं हो सकते। उनके आवरण की ऐसी सघनता बनी रहती है कि वे इस मार्ग की ओर प्रवृत्त नहीं हो सकते। भव्य व्यक्ति Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा ही सुलभबोधि होता है अर्थात् साधना, सत्संग आदि के निकट आता है। सुलभ बोधि, कषाय की मंदता, स्वाध्याय और प्रेक्षा (साधना) के प्रयोग से सम्यग् दर्शन को उपलब्ध होता है। सम्यग्-दर्शन से आगे देशव्रत (अणुव्रत) महाव्रत, वीतरागता, केवल्य और मुक्ति का पथ उपलब्ध करता है। स्व उपस्थिति स्वाध्याय है "स्वाध्याय" स्व में उपस्थित होना है। अपने आप में ठहरना ही स्वाध्याय है। स्व में केन्द्रित होना स्वाध्याय है। स्व की यात्रा का साधन स्वाध्याय है। ___मनुष्य के पास "मन" एक ऐसा सक्षम साधन है। जिसके द्वारा अतीत की स्मृति, भविष्य की परिकल्पना और वर्तमान का अनुचिन्तन किया जा सकता है। मनुष्य अपने उपलब्ध ज्ञान को दूसरों तक संप्रेषित करता है। यह परम्परा ही ज्ञान के अक्षय भंडार को समृद्ध बनाती है। प्राचीन युग में ज्ञान कंठान रहता था। उस समय स्वाध्याय की महत्ता और अधिक थी। स्वाध्याय में प्रमाद से ज्ञान के विस्मृत होने की संभावना बनी रहती थी। स्वाध्याय ऐसा अमृत है जिसे पीकर ही अमरत्व का अनुभव किया जा सकता है। स्वाध्याय ग्रन्थों के संकलन की तरह मस्तिष्क में उन विचारों का संग्रहीत कर लेना ही नहीं है। स्वाध्याय चैतन्य का जागृत अनुभव हे। यद्यपि यह अनुभव वस्तु अथवा दूसरों द्वारा अनुभूत सत्य को चेतना के स्तर पर विचार, मननपूर्वक आता है। मनन के पश्चात् जब स्व का अनुभव किया जाता है तब सत्य स्वयं घटित होने लगता है। यह अनुभव ही स्वाध्याय है, स्वयं की स्थिति और ज्ञानोदय है। ज्ञानोदय (ज्ञान का प्रकटीकरण) निरन्तर विकसित होकर विराट तल पर फैल जाता है। दर्शन का स्रोत प्रस्फुटित होकर विचार और मनन द्वारा सम्यग्-दर्शन की पुष्टि करता है। सम्यग्-ज्ञान और पुरुषार्थ चारित्र को उत्पन्न करता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है। अनावरण से प्राणी भव-भव में परिभ्रमण करता है। आवरण का विलयकर यह मुक्तावस्था को उपलब्ध होता है। स्वाध्याय के बाधक तत्व स्वाध्याय का प्रथम बाधक तत्व दृष्टिभ्रम है। कुछ लोग समझते हैं स्वाध्याय से क्या ? केवल साधना, (आसन-प्राणायाम) उपासना, जप, तप एवं ध्यान से उस विराट तत्त्व को उपलब्ध हो जाएंगे। यह दृष्टिभ्रम हैं, विषर्यम है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय-ज्ञान की गंगोत्री ३१ स्वाध्याय के बिना सत्य की पहिचान और अभिव्यक्ति कैसे हो सकती है ? दृष्टिभ्रम के कारण ही करोड़ों-करोड़ों लोग शिक्षा में प्रवेश नहीं कर सकें। लड़कियों को पढ़ाया नहीं जाता। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां शिक्षा की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। शिक्षा के विकास के बिना पवित्र वातावरण का निर्माण नहीं हो सकता। शिक्षा तीन प्रकार से होती है शिक्षण, प्रशिक्षण और प्रज्ञा । शिक्षण अपने या दूसरे के अनुभूत तथ्यों को सीखाना और सिखना है। उसका प्रायोगिक शिक्षण-प्रशिक्षण है। अपनी अन्तर्-चेतना से स्फूर्त ज्ञान प्रज्ञा है। उसके लिए शिक्षण और प्रशिक्षण की अपेक्षा नहीं हो सकती। अपनी क्षमता के अनुसार ज्ञात, अज्ञात ज्ञान स्फूर्त होने लगता है, लेकिन प्रज्ञा को जागृत करने के लिए प्रेक्षा की आवश्यकता होती है। __स्वाध्याय का दूसरा बाधक तत्त्व आलस्य है। आलस्य का तात्पर्य सत्य के प्रति अपुरुषार्थ । सत्य को जानने के लिए परम पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। सम्यक् पुरुषार्थ के बिना कोई भी परमार्थ को उपलब्ध नहीं हो सकता। स्वाध्याय का तीसरा बाधक तत्त्व है प्रमाद। सत्य के प्रति विमूढ़ता के कारण व्यक्ति सत्य के प्रति जागृत नहीं रह सकता। मूर्छा व्यक्ति को कहा से कहां धकेल देती है। प्रमाद में साधक हास्य, विनोद, विकथा, क्रीड़ा से समय का दुरुपयोग कर जीवन को. व्यर्थ गंवा देता है। अखाद्य और अपेय के आसेवन से मस्तिष्क मूर्छित हो जाता है। जिससे व्यक्ति स्वाध्याय उन्मुख हो ही नहीं सकता। स्वाध्याय ज्ञान की गंगोत्री अनुभवी पुरुषों ने अपने अनुभवों को लिपिबद्ध कर आने वाली पीढ़ी का महान् उपकार किया है। उस लिपिबद्ध साहित्य के स्वाध्याय के बिना कैसे जाना जा सकता है। स्वाध्याय ही एक ऐसा तत्त्व है जिससे अतीत में हुए अनुभवों को जाना जा सकता है, भविष्य में होने वाले प्रयोगों पर चिंतन-मनन किया जा सकता है। स्वाध्याय की इस परम्परा से ही विज्ञान ने इतनी प्रगति की है। स्वाध्याय केवल ग्रंथों का परायण ही नहीं है, स्वाध्याय सत्य का अनुचिंतन और साक्षात्कार है। स्वाध्याय ज्ञान की गंगोत्री है जो निरन्तर गतिशील हो, ज्ञान Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ प्रज्ञा की परिक्रमा की गंगा बनकर जन-जन का पाप प्रक्षालित करती है। स्वाध्याय से लेखन, वक्तृत्व और नये-नये विज्ञान के उन्मेष प्रस्फुटित होते हैं। स्वाध्याय कैसे करें पुस्तक या किसी ग्रन्थ का पाठ करना ही स्वाध्याय नहीं है। स्वाध्याय का यह साधारण प्रकार है। स्वाध्याय के लिए परम्परा कहती है, वाचना, पृच्छना, पुनःस्मरण, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा, किसी ग्रन्थ का पारायण करना, उसके सम्बन्ध में पूछना, उसका पुनःपुनः स्मरण करना, अर्थ का चिन्तन करना, धर्मकथा करना ये स्वाध्याय के प्रकार हैं। इन सभी प्रकार में से किसी वस्तु एवं घटना विशेष के सम्बन्ध में जानना, पूछना उसे पुनः-पुनः स्मरण करना, उसके अर्थ का चिन्तन करना धर्म को सरलता से समझना। स्वाध्याय के लिए ये प्राचीन परम्परागत विधियां है। साथ ही प्राचीन आचार्यों ने किसी तथ्य या विचार को जानने के लिए अपृथक्त्वानुयोग की पद्धति दी। जिसमें गुरु शिष्य को ग्रंथ या विषय को कंठस्थ करवा देते थे। फिर उसको विभिन्न स्तरों पर वाचना आदि के द्वारा सरलता से व्याख्यायित करते थे। उस समय तक सिद्धान्त एवं प्रयोग दोनों विधियों से शिष्य ज्ञान का नियोग करते थे। ___ मध्यकाल में यह परम्परा लागू हो गई है कि जिस विषय के सम्बन्ध में जानना हो उस सन्दर्भ के ग्रन्थों का पठन पाठन कर लेते, किन्तु प्रायोगिक विधियां लुप्तप्राय हो गई। उसे पुनर्जीवित करना होगा। सिद्धान्तों के साथ प्रयोग को साकार किया जाये। प्रयोग के बिना केवल सिद्धान्त पक्ष का संकल्प ज्ञान भले हो जाए, किन्तु विज्ञान नहीं बन सकता। बिना विज्ञान के कोरा स्वाध्याय, स्वाध्याय नहीं केवल जानकारियों का विश्लेषण मात्र होगा। "स्वाध्याय कैसे करें" का सरल उत्तर होगा-किसी विषय का स्वाध्याय करते समय परिपार्श्व विषयों की पूरी जानकारी एवं प्रयोगों को पूर्ण रूप से स्वीकृति देनी समर्थित होगी। ०००० Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन के सांप, जो ध्यान से भागे श्रीमती जैन ग्रेटर कैलाश में रहती है, उसके पति की एक ट्रांजीस्टर बनाने की फैक्टरी है। दरियागंज में ऑफिस है। उनकी लड़की जिसका नाम मुझे पूरा स्मरण नहीं मैंने अरुणा ही लिखा है। ज्वर के आकस्मिक प्रकोप से उसका मानस विक्षिप्त हो गया। वह खाट पर लेटी छत पर पड़ी सलवटों को देख रही थी। उसके चेहरे की मायूसी अन्तर पीड़ा की कहानी कह रही थी। वह लगातार ज्वर से दुबली और पतझड़ के पीले पत्ते की तरह हो रही थी। डॉ० शर्मा उसका उपचार कर रहे थे, किन्तु ज्वर ने न जाने की कसम ही खा रखी थी। ज्यों-ज्यों समय व्यतीत हो रहा था, उसके स्वभाव में भी परिवर्तन आने लगा। पिछले तीन दिनों से उसमें इतना परिवर्तन आ गया, जिसे देख उसकी मम्मी चिन्तित हो उठी। 'अरुणा ! तुम्हारे लिए चाय बनाऊं, रसोई से मौसी ने पुकारा।' जो चाहो सो बनाओ। कम से कम मुझे पागल तो मत बनाओ। मम्मी ने उसके मुंह पर हाथ देते हुए टोका-"प्यारी बिटिया ! बड़ों को ऐसा बोलते हैं ?" 'तुम जानती नहीं कल उसने मन्दिर वाले बाबा से भस्म ला मेरे सिर में डाली थी, तब से मेरा सिर फटा जा रहा है। देख-देख चाय वाली केटली में सांप को उबाल रही है। री ! यह मेरे पीछे क्यों पड़ी है मम्मी ! तुम तो बड़ी समझदार हो, इसलिए तुम्हारे पर तो इस डाइन का कोई असर नहीं होता। मुझे और डैडी को तंग कर रही हैं।' तुझे हो क्या गया है ? ऐसे विचार कभी बड़ों के प्रति किए जाते हैं ? वह तुम्हारा कितना ख्याल रखती है ? समय पर खाना और अन्य सारी व्यवस्थाएं करती हैं। तुझे व्यवस्था और काम दिखाई दे रहा है। मेरे प्राण घुट रहे हैं। देखों यह केटली से सांप बाहर दौड़ रहे हैं। उबलती हुई चाय के धुएं में उसे सांप दिखाई दे रहे थे। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3४ प्रज्ञा की परिक्रमा ___'पगली ! ये सांप थोड़े हैं। उबलती हुई चाय की भाप है।' मौसी ने चाय का गिलास उसके सम्मुख रखा और चीख पड़ी। मैं यह चाय नहीं पीऊंगी मैं यह चाय नहीं पीऊंगी।' मम्मी ने बहुत समझाया, किन्तु अन्त में हार कर उसको वह चाय का गिलास नाली में डालना ही पड़ा। चाय का ही सवाल नहीं था, मौसी जब भी सब्जी अथवा परावठे बनाती, अरुणा को उन सब में विष ही मिला दिखाई देता। ज्वर के बाद उसका सारा चित्त और व्यवहार ही बदल गया। जो अरूणा स्नेह से भरी और मधुर मुस्कान से सबके साथ व्यवहार करती थी, अब वह सबको काटने आती। बच्चे उसके निकट जाते ही घबराते। उनको वह चाहे जब डांटती रहती। वह अपने डैडी के प्रति इतनी सावधान हो गई है, बार-बार उन्हें सजग करती रहती है-'मौसी आपको और मुझे कुछ करना चाहती है। मम्मी तो बड़ी होशियार है, उसकी चालबाजियों में नहीं आयेगी। मम्मी ! पिताजी को खाना मैं बना के दूंगी। देखना, मौसी के हाथ का खाना उसको मत देना। वह बड़बड़ाती रसोईघर में चली गई। उसने बर्तनों को साफ कर खाना बनाया। जब भी उसके डैडी बाहर जाते, तब वह उनकों बहुत तरह की हिदायतें देती और सावधान करती। उसके उस व्यवहार से सभी तंग आ गये, किन्तु करें तो करें भी क्या ? वह बुरी तरह चीख उठती। घर के पूरे वातावरण में एक मायूसी छाने लगी। __ मौसी को मम्मी खूब समझाती। इस पर जो पागलपन सवार हुआ है, इसको किस प्रकार से हटाया जाए। जो-जो प्रयत्न किया गया, उसका उल्टा ही परिणाम आया। प्रत्युत्त वह मौसी के प्रति और ज्यादा घृणा और रोष से भर गई अब मौसी के लिए इस घर में रहना असह्य हो गया और अन्त में उनको अपने घर जाने का निर्णय लेना पड़ा। टिकट आ गई थी ओर स्टेशन जाने के लिए सब कुछ तैयारी हो चुकी थी। ज्योंही कार रवाना होने वाली थी, अरुणा ने जिद्द प्रारम्भ की कि मैं इसे गाड़ी पर छोड़कर आऊंगी। उसके मन में रह, रहकर आ रही थी, कहीं मेरे डैडी को मौसी साथ न ले जाये और कहीं मौसी आस-पास में छिपकर न रह जाए। वह स्टेशन गई और जब तक गाड़ी रवाना न हुई, तब तक एकटक देखती रही और डैडी को अपने पास कार में बिठा लिया। गाड़ी वहां से रवाना हो गई, फिर भी उसका Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ मन के सांप जो ध्यान से भागे सन्देह वैसा का वैसा बना रहा। डैडी और मम्मी ने सोचा कि मौसी के जाने से यह बला टल जायेगी, लेकिन हुआ उल्टा । सब जगह सांप ही सांप देखने लग गई। कभी वह ड्राइवर को टोकती, देख नहीं रहे हो सामने सांप दौड़ा रहे हैं ? तुम मोटर को सरपट दौडा रहे हो। पास से कोई स्कूटर या टैक्सी गुजरती, उसमें बैठे हुए व्यक्ति के आस-पास में फुंफकारते हुए सांपों को देखती । उसकी इस समस्या के समाधान के लिए जो-जो प्रयत्न करना चाहिए था, वह किया, लेकिन उसके हाथ निराशा के अतिरिक्त कुछ नहीं आया । वह मजारों पर भी गई, मन्दिरों पर भी गई। झाड़ा फूंकने वाले ओझाओं के पास भी गई। जो-जो उसे करना था किया। जब व्यक्ति किसी वेदना से पीड़ित होता है तो वह न मालूम कहां-कहां और किस-किस के द्वार खटखटाता है। आस-पास रहने वाले प्रियजनों के मन में एक भाव रहता है, किसी तरह इस कष्ट से छुटकारा मिले । अरुणा की मम्मी जैन परंपरा पली थी, वह जैन मुनियों के प्रति श्रद्धा व आदर का भाव भी रखती थी । मुनि-दर्शन के लिए जब वह गई, अरुणा भी उसके साथ थी। वहां भी वह फिर बड़बड़ाने लगी । सत्संग में बैठी सन्तोष ने उनकी मम्मी से पूछ ही लिया - अरुणा को यह सब कब से हो गया ? उसने संक्षेप में ज्वर के पश्चात् होने वाली घटनाओं का जिक्र कर औषधि, मंत्र-तंत्र आदि उपचार का विवरण भी बता दिया । सन्तोष सारे घटनाचक्र को सुन उसके मानसिक द्वन्द्व से अपरिचित नहीं रह सकी । सहसा उसकी स्मृति में तुलसी अध्यात्म नीडम् के हिसार शिविर में घटित घटना का स्मरण हो आया यह शिविर वि० सं० २०३० में आचार्यश्री तुलसी के चार्तुमास में आयोजित हुआ था । इसी प्रकार बीकानेर का एक युवा मानसिक पीड़ा से संत्रस्त था । उसे एक विचित्र दृश्य दिखाई देता, उसे देखकर उसका रक्त क्षीण हो जाता और वह अपने आप में दुर्बलता महसूस करता। शरीर में ज्यों ही कुछ रक्त संचार एवं शक्ति अनुभव करता, उसी रात्रि में उसे यह विचित्र दृश्य दिखाई दिया कि कोई हिंस्र पशु उसके शरीर को नोंच रहा है और रक्त पी रहा है। इस पीड़ा में वह काफी समय पीड़ित रहा । उसके किसी साथी ने ध्यान शिविर में जाने की प्रेरणा दी । वह हिंसार शिविर में आया । ध्यान के विभिन्न प्रयोगों से उसकी मानसिक स्थिति में Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा रूपान्तरण हुआ। उसके चित्त पर जमे संस्करणों का विलय हुआ। वह उस वेदना से मुक्त हो स्वस्थ बन गया। अरुणा की मम्मी मेरे पास पहुंची और अपनी पुत्री की दुःख भरी कहानी सुनाने लगी। मैंने कहा-बहिन ! हम लोग कोई चिकित्सक नहीं हैं। किसी मनोचिकित्सक को दिखाया नहीं ? वह और कुछ सुनना ही नहीं चाहती; आप मनोचिकित्सक नहीं तो आत्म-चिकित्सक तो हैं। किसी प्रकार आर्त्त-ध्यान से मुक्त बनें, आप मार्ग दर्शन करें। आप इन्कार भले ही करें, मैंने अभी-अभी हिसार शिविर में उपस्थित उस युवक की घटना सुनी है। जब वह ध्यान से ठीक हो सकता है तो मेरी लड़की ठीक क्यों नहीं हो सकती? उसके तर्क में बल था, भावना में अगाघ श्रद्धा थी। मेरे लिए इन्कार करना कठिन था, फिर भी मैं जानता था, यह मानसिक उद्वेग है उसकी भय-ग्रन्थियों का परिणाम है। उसके अन्तर चित्त पर किसी अज्ञात घटना ने विस्फोट किया है, जिससे यह अवस्था बनी है। संकल्प योग से उसके चित्त को निर्मल बनाकर संस्कारों की ग्रन्थियों का उच्छेद किया जा सकता है। साथ ही यह भी जानता था, ध्यान व्यक्ति के अन्तःकरण से प्रगट होता है, उसमें बाहर का निमित्त केवल दिशा-निर्देशन कर सकता है। अन्तर ग्रन्थियों के उच्छेद के लिए उसे स्वयं यात्रा करनी होती है। __ पास बैठी अरुणा मौन सब कुछ सुन रही थी। उसके मुख से सहसा स्वर फूटे मैं ध्यान के लिए तैयार हूं। आप जैसा निर्देश करेंगे, ईमानदारी से उसका पालन करूंगी। ___ उसकी सहज स्वीकृति पा मैंने ध्यान की प्रारम्भिक स्थितियों को समझाया और प्रयोग की भूमिका बतलाई । अर्हम के दीर्घनाद से ध्यानस्थल का वातावरण गंजित हो उठा। अरुणा की भृकुटि पर टिकी एकटक आंखें कब ध्यान में डूब गई, उसकी मम्मी देखते ही रह गई। ___शब्द-ध्वनि उसके अन्तर्-चित्त पर एक ऐसी चोट कर रही थी कि वह मानो किसी सागर पर आये बर्फ की परत को चीर गहराई में ले जा रही हो। उसके मुख पर तैर रही विभिन्न भावनाओं को स्पष्ट पढ़ा जा सकता था। स्थूल शरीर प्रतिमा की तरह स्थिर हो गया। किन्तु उसकी आंखों की पुतलियां भयभीत चित्त को स्पष्ट अभिव्यक्त कर रही थी। अन्तर्-चित्त में Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ मन के सांप जो ध्यान से भागे प्रविष्ट होते ही अपने भय के संकारों को देख वह स्तब्ध-सी रह गई। उसके होंठ बड़बड़ाने लगे। मौसी के प्रति सोई घृणा विभिन्न शब्दों में प्रगट होने लगी। ध्यान के समय प्रज्ञा को समता में रख वह अप्रमत्त हो गई। सम्पूर्ण अन्तर्-चित्त घटना के प्रति द्रष्टा बन गयी। जागरूकता से लगातार तीन दिन ध्यान के पश्चात् उसका मन सांप की भय ग्रन्थियों से मुक्त हो गया। ०००० Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० भय-मुक्त कैसे हों ? एक था खरगोश | वह अखरोट के पेड़ के नीचे ऊंघ रहा था। एक अखरोट हवा के झोंके के साथ खरगोश के कान के पास गिरा। खरगोश नींद में तो था ही, खड़खड़ाहट की आवाज से वह चौंका। भय से आक्रांत तेजी से गहरे जंगल की ओर दौड़ा। उसकी तेज गति को देख, दूसरे खरगोशों ने प्रश्न किया, 'दादा ! इतनी तेज गति से क्यों दौड़ रहे हो? क्या प्रलय हो रहा है ?' प्रलय क्या ? महाप्रलय होने वाला है। ‘पागलों ! तुम्हें पता नहीं आकाश गिर गया' ! 'आकाश ? हां आकाश.....।' खरगोश बेहताशा दौड़ा जा रहा था। दूसरे खरगोश भी मन ही मन भयभीत बन उसके पीछे दौड़ने लगे। खरगोशों की टोली जंगल में तेजी से दौड़े जा रही थी। पथ में सियाल मिले। वे गमगीन थे कि खरगोश क्यों दौड़े जा रहे हैं ? वे भी उनके साथ दौड़ने लगे। सियालों को देखकर हिरण भी उनके साथ हो गये। हिरणों के साथ-साथ जंगल के जानवर दौड़ने लगें। सारा जंगल ही मानो दौड़ने लगा। शेर ने जब जंगल के अन्य जानवरों को इस तरह देखा, तो आश्चर्याभिभूत हो गया ? क्या मेरे से भी बढ़कर कोई समर्थ पैदा हो गया ? वह तेज ध्वनि के साथ दहाड़ा। उसकी इस गर्जना से सारा जंगल सिहर उठा सारे जानवर जहां के तहां रुक गयें। __ "कौन है वह जो मेरे रहते जंगल में इस तरह की गुस्ताखी करें ?' सब मूक थे। बोलते क्यों नहीं ? क्या हुआ तुम सबको, जो पागलों की तरह दौड़े जा रहे थे ?' हाथी ने कहा, "मुझे पता नहीं घोड़े दौड़े जा रहे थे। उन्हें देखकर हम भी दौड़ने लगे' घोडों से जब पूछा तो उनका भी ऐसा ही उत्तर था, 'हमें पता नहीं, हिरण दौड़े जा रहे थे। इसलिए हम भी दौड़ने लगें ।' हिरणों ने सियालों का, सियालों ने खरगोशों का नाम लिया। खरगोशों ने कहा, हमें तो कुछ पता नहीं, हम सब तो शान्त छुप-छुपे खाना खा रहे थे। इतने में बूढ़ा दादा बड़ी तेजी से दौड़ता हुआ कह रहा था, जंगल के 'जानवरों ! जीवन Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय मुक्त कैसे हों को बचाना हो तो भागो, आकाश गिर गया है। अन्त में शेर के सम्मुख खरगोश आया और बोला, "मैंने देखा है और सुना है आकाश को गिरते हुए। यह मेरी खुश किस्मत थी कि मै बच गया, नहीं तो मेरा निश्चित विनाश था।' 'कहां गिरा है तुम्हारा आकाश बता मुझे......।' 'मैं नहीं जा सकता वहां....।' 'वहां; कहां, मैं चलता हूं तुम्हारे साथ। खरगोश कांपता हुआ बोला, मैं दूर से उस स्थान को दिखा सकता हूं लेकिन.... शेर के साथ खरगोश गया। उसने दूर से उस स्थान की ओर संकेत किया। शेर ने उस स्थान को देखा तो अखरोट का फल पड़ा मिला। उस फल को सबके सामने रखा, तो सब खिलखिलाकर हंसते-हंसते लोटपोट हो गए। खरगोश की तरह ही आज इन्सान भय से भयभीत है। वह स्वयं भय की कल्पना करता है और स्वयं भय से भयभीत बनता है, लेकिन भय क्या उसका साक्षात् उसने कभी किया नहीं और न वह जान पा रहा है कि भय आखिर है क्या ? शेर के शावक को उसकी मां सिखाती है कि तुझे और किसी का भय नहीं, किन्तु एक काले माथे वाले का ध्यान रखना। वह बड़ा ही विचित्र प्राणी है। उससे ही तुझे डर है, भय है, इधर मनुष्य शेर से डरता है। उसका कारण शेर की क्रूरता है, किन्तु वह मनुष्य से डरता है वह मात्र अपनी मां के प्रशिक्षण का परिणाम है। ___भय, चित्त की वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति का शरीर वाक् एवं मानस आन्दोलित हो जाता है। उसका संस्कार सूक्ष्म शरीर से चेतना तक जाता है। चैतन्य का प्रकम्पन संस्कारों को प्रभावित करता है। संस्कारों से मन, वाक और शरीर चंचल बनते हैं। इस चंचलता के भय का निर्माण होता है। भय केवल अन्तरंग घटना ही नहीं है, वह बाहर के वातावरण से भी प्रभावित होता है। भय के निर्माण में बाहर का वातावरण कार्य करता है, वहां अन्तरंग कारण भी है। प्रत्येक प्राणी में आहार-संज्ञा की तरह भय-संज्ञा है। भय मौलिक वृत्ति है। वह प्राणी में है। भय क्यों होता है ? मनोवैज्ञानिक ने इसे Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा खोजने और विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है। भय काम के सदृश ही प्रवृत्ति है। भय के प्रतिफलन का कारण वातावरण एवं तात्कालीन स्थितियां हैं। व्यक्ति आदि-युग में यौगलिक रूप में जीवन व्यतीत करता था। आवश्यकताएं सीमित थीं उसकी पूर्ति सहज साधनों-वृक्षों से पूर्ण हो जाती थीं। जनसंख्या की अधिकता वस्तुओं की कमी से छीना-झपटी होने लगी। एक दूसरे के अधिकार का हनन होने लगा। उस समय जो कुछ होता था, वह निश्चित ज्ञात था। आकस्मिक दुर्घटना घटित नहीं होती थी। कुछ आकस्मिक घटनाओं ने उसके मानस को आन्दोलित किया। एक दूसरे की हत्या और वस्तुओं की छीनाझपटी से भय का संचार हुआ। वे संगठित और शस्त्र से सन्नद्ध रहने लगे। संगठन और शस्त्र ने संघर्ष का रूप लिया। संगठन और शस्त्र के नये-नये रूप सामने आने लगे। भय का साम्राज्य चहुं दिशाओं में व्याप्त होने लगा। अहर्निश भय से भयभीत व्यक्ति प्रतिक्षण संत्रस्त रहता। इस स्थिति से मुक्ति-प्रदाता जो तत्व है, उसे महापुरुषों ने धर्म की संज्ञा से अभिहित किया। भगवान् महावीर ने कहा, 'सव्वतो पमत्तस्स भयं, अपमत्तस्स नत्थि भयं' प्रमादी को भय है। प्रमादी का तात्पर्य है-जो मन और इन्द्रियों के विषय में अनुरक्त रह कर स्वरूप को विस्मृत कर देता है। अपने स्वरूप का विस्मरण ही प्रमाद को उत्पन्न करता है। प्रमाद का तात्पर्य है-अकरणीय कार्य करना। अकरणीय कार्य की ओर प्रवृत्ति से ही भय उत्पन्न होता है वह सोचता है कि मैं जो कुछ कर रहा हूं, वह करणीय नहीं है। किसी ने देख तो नहीं लिया है, इससे वह भयभीत ही चिंतित होता है। चिंता ही पुन:-पुनः भय को उत्पन्न करती है। मान्यताएं और भय भय को उत्पन्न करने में भूत प्रेतों आदि की मान्यताओं का योग है। समाज में प्रचलित मान्यताओं द्वारा व्यक्ति के चित्त में धारणाओं का निर्माण होता है। धारणाओं से उसके चित्त पर संस्कार पड़ते हैं। यह संस्कार ही उसमें भय की स्थिति को बताते है। मनोवैज्ञानिकों ने भय के संबंध में विविध प्रयोग किए। कुछ पिल्लों को ऐसी स्थिति में पाला गया कि उनको किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट एवं भय उत्पन्न न हो। बड़े होने के पश्चात् उनके शरीर में सूइयां चुभोई गईं। दियासलाई को जलाकर जलाने की कोशिश Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ भय मुक्त कैसे हों की गई, किन्तु वे न भयभीत हुए और न उन्होंने कष्ट का अनुभव किया। ऐसी परिस्थितियां भी देखी जाती हैं कि कार्य सामान्य रूप से कष्टप्रद होता है, वही कार्य सुखद अनुभव होने से व्यक्ति करने को उत्सुक होता है। अज्ञात से भय बहुत-सी स्थितियां तब तक भय उत्पन्न करती हैं, जब तक वे अज्ञात होती हैं। अज्ञात स्थिति ही भय का कारण बनती है। ज्ञात होते ही उससे भय निकल जाता है। दुःख मृत्यु और विनाश की उपलब्धि अथवा आकाश से चित्त भयग्रस्त होता है। दुःख-सुख मन की स्थिति पर आधारित है। दुःख, सुख बन जाता है। सुख दुःख में परिवर्तित हो जाता है। मृत्यु और विनाश भय की उत्पत्ति के कारण बनते हैं। मृत्यु का भय भी अज्ञात से जुड़ा है, वह प्राप्त स्थिति को छोड़कर कहां जाएगा? वहां की स्थिति क्या और कैसी होगी? इसके अतिरिक्त मृत्यु की घटना से प्राप्त जगत् और आशाएं समाप्त हो जाती हैं, जिससे उसके प्राप्त योग में अन्तराय आ जाती है। मोहनीय से भय जैन परम्परा के अनुसार भय मोहनीय कर्म प्रकृति के उदय से प्रगट होता है। मोहनीय कर्म व्यक्ति को मूढ़ बनाता है। उसके अभिभव के लिए आचार्य भद्रबाहू ने कायोत्सर्ग का विधान किया है। 'मोहपगड़ी भयं अभिभवितु जो कुणइ काउस्सग' -कायोत्सर्ग शतक। कायोत्सर्ग से शरीर एवं मन के तनाव का विसर्जन होता है। भय-चिकित्सा के लिए कायोत्सर्ग का विधान किया गया है। यह उचित है, क्योंकि तनावग्रस्त व्यक्ति ही भय से भयभीत होता है। स्थानांग में एक प्रसंग पर बताया गया है, भयभीत व्यक्ति में ही यक्ष आदि प्रविष्ट हो जाते हैं। वर्तमान में भूत, यक्ष ही की घटित घटनाओं में जब तलाश की जाती है, तब पाते हैं कि वह व्यक्ति तनावग्रस्त और भयभीत रहता था। भय से व्यक्ति की चेतना सिकुड़ती है, वहीं प्रेम, करुणा और मैत्री से चैतन्य फैलता है। जहां सिकुड़न होती है, रिक्त स्थान में यक्षादि का प्रवेश सहज हो जाता है। भयभीत व्यक्ति को ही मनुष्य तिर्यंच आदि भी पीड़ित करते हैं। प्राचीन उक्ति यथार्थ है कि भय से भय उत्पन्न होता है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ प्रज्ञा की परिक्रमा भय से मुक्ति के उपायों पर जब चर्चा करते हैं, तो सबसे पहले कायोत्सर्ग ही आवश्यक है। कायोत्सर्ग शरीर और मन दोनों के बीच एक सामंजस्य स्थापित करता है। सामंजस्य ही समाधि की ओर चैतन्य को ले जाता है। कायोत्सर्ग से भेद-विज्ञान की स्पष्टता होती है, जिससे व्यक्ति को यह अनुभव होता है कि मैं शरीर नहीं हूं। शरीर में बहने वाली चैतन्य की धारा इस शरीर से भिन्न हैं, जिससे शरीर एवं पदार्थ के प्रति आसक्ति का भाव टूटने लगता है। जागृत चैतन्य से कोई सत्य अज्ञात नहीं रहता, सत्य ज्ञान होने से भय की निवृत्ति सदा-सदा के लिए हो जाती है। भय-मुक्ति और सुझाव भय के कारणों की चर्चा में धारणाओं (भावनाओं) का उल्लेख किया गया। धारणा पहले स्थूल जगत् पर अवतरित होती है। स्थूल मन से सूक्ष्म मन पर और फिर सूक्ष्मतम मन में प्रविष्ट हो जाती है, जिसे मनोविज्ञान ‘कॉन्सस्' (conscious) कहता है। ‘सबकॉन्सस्' (sub conscious) में गई हुई वृत्ति को निर्मल बनाने के लिए सुझाव (suggestion) आवश्यक है। कायोत्सर्ग द्वारा शरीर को योग-निद्रा में ले जाकर भय के संस्कारों को निरसन करने के लिए विधायक सुझावों को अन्तर्मन को दिया जाएं, तो उससे भय के संस्कार निरस्त हो जाते हैं। सुझाव का मार्ग स्वयं अथवा किसी योग्य निर्देशक के माध्यम से किया जाएं, तो सरलता से भय के अनेक संस्कारों से मुक्त हो सकते हैं । सन् १६७४ हिसार साधना-शिविर में बीकानेर का एक हरिजन भाई आया। उसने किसी से सुना कि साधना-शिविर में भय के संस्कारों को दूर करने के प्रयोग होते हैं। वह शिविर में प्रविष्ट हो गया। आसन, प्राणयाम, कायोत्सर्ग एवं ध्यान के प्रयोग चल रहे थे। वह तीसरे दिन मेरे पास आया और कठिनाई को प्रस्तुत करते हुए बोला कि मैं तो अपनी समस्या के समाधान के लिए यहां आया हूं। उसे त्राटक के माध्यम से कायोत्सर्ग में ले जाया गया। कायोत्सर्ग में प्रवेश के साथ ही बुरी तरह छटपटाने लगा, शरीर में ऐंठन-सी होने लगी। अत्यन्त भयभीत हो चिल्लाने लगा। सुझावों के माध्यम से उसके चित्त और शरीर को पूर्ण शैथिल्य एवं विश्राम की सूचना दी गई। अब वह धीरे-धीरे सामान्य स्थिति में आने लगा। उस अवस्था में उसे स्पष्टता से उस दृश्य को दिखाते हुए अभय के सुझाव दिए गए। तीन दिन के प्रयोग से वह उस Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय मुक्त कैसे हों भय ग्रन्थि से मुक्त हो गया और सामान्य अवस्था में आ गया। बाद में पता लगा कि उसे स्वप्न में भयंकर दृश्य दिखाई देता था कि कोई शेर उसके सम्मुख दहाड़ रहा है। वह इतना भयभीत बन जाता था मानो उसके शरीर से किसी ने रक्त को खींच लिया हो। भय-मुक्ति के सुझावों से वह सदा-सदा के लिए स्वस्थ हो गया। ऐसी अन्य अनेकों घटनाएं और प्रयोग हैं। लेकिन भय-मुक्ति के लिए प्रेक्षा-ध्यान अमोघ साधन है, जिससे चेतना का जागरण होता है। जागृत चैतन्य में भय ठहर नहीं सकता। ०००० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ अनुत्तरित प्रश्न जीवन क्या है ? असंख्य समाधान के बावजूद यह अनुत्तरित प्रश्न है। मानस में जब इस प्रश्न का उद्भाव होता है समाधान के बजाय अनेकानेक प्रश्न उभरने लगते हैं। जीवन सब जी रहे हैं-सुखद अथवा दुःखद, प्रिय या अप्रिय, निराश अथवा आशा, स्वप्न संजोकर अथवा खोकर, लाभ अथवा अलाभ, मान अथवा अपमान के वशीभूत हो या यों कहें कि मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जीवन है, इसलिए जीते हैं अथवा जीते हैं इसलिए जीवन है। कितनी बार आत्महत्या से गुजर कर इस जीवन्त लाश को ढोए जा रहे हैं। काश! पता होता हम क्यों जीलाए जा रहे हैं। मरकर भी कौन सा अमृत पीकर लौट आते हैं। जीते हैं क्योंकि जीवन है। मृत्यु इसलिए इन्कार कर देती हैं कि हम अमृत पुत्र हैं। पता नहीं अमरत्व हमारा स्वरूप है या मृत्यु, मर-मर कर भी अमरता की ओर यह रथ क्यों गतिशील हो रहा है ? जी-जी कर यह जीवन क्यों मृत्यु की ओर सरकता जा रहा है ? मृत्यु सत्य है अथवा जीवन। जीवन सत्य है या मृत्यु। जीवन ठहरा हुआ अस्तित्व ___ जीवन और मृत्यु के छोर को खोजने की कोशिश करते हैं, तब एक अजीब तस्वीर नजर आती है, जहां न मृत्यु है न जीवन । ठहरा हुआ अस्तित्व है जिसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जो ठहरा हुआ भी परिणमनशील है, वहां भी घटित हो रहा है। सम्पूर्ण लोकालोक का अवतरण, प्रतिबिम्ब । पता नहीं उस अस्तित्व की परिणति होती है या लोकालोक का परिणमन हो रहा है। परिणति परिणति है उससे चैतन्य पर होने वाला प्रकटीकरण मात्र प्रतिबिम्ब है, ज्ञानात्मक उपयोग है। उपयोग विशुद्ध स्थिति है। उससे पदार्थ आलोकित होता है। इसे अवलोकन, ज्ञान, उपयोग, अस्तित्व कुछ भी कह सकते हैं। उसमें राग-द्वेष अथवा प्रियता-अप्रियता का प्रतिनिधित्व नहीं है, इसलिए बन्धन का अनुबन्ध नहीं होता। जहां ज्ञान और उपयोग में प्रियता-अप्रियता का भाव जुड़ता है वह राग-द्वेष, मोहात्मक स्थिति है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरित प्रश्न राग-द्वेषात्मक स्थिति बन्धन का नया अनुबन्ध करने लगती है। अनुबन्ध ही सृष्टि का संचालन करता है। अनुबन्ध की सृष्टि के मूल, प्रियता-अप्रियता के भावों का उच्छेद करने वाला प्रेक्षा-ध्यान ही है। प्रेक्षा, प्रियता-अप्रियता के चक्रव्यूह को छिन्न कर जागरूकता का धर्म चक्र प्रवर्तित करना है। जागरूकता ही धर्म है, जागरूकता ही ध्यान है। जागरूकता ही जीवन है। जागरूकता ही शक्ति का संचार करती है। जागरूकता ही आनन्द है। जागरूकता ही ज्ञान है। जागरूकता ही अध्यात्म का ध्रुव है। अजागरूकता मूर्छा है, प्रमाद है, क्लेश है, दुःख है, अविद्या है। इस अविद्या से मुक्त होने का मार्ग ही साधना और सिद्धि है। उसे मोक्ष मार्ग या और किसी नाम से संबोधित किया जा सकता है। जीवन की प्रथम आवश्यकता भोजन जीवन की मुक्ति है या नहीं इसे स्वीकार भी नहीं कर सकते तो इन्कार भी कैसे करें? स्वीकृति के लिए अनुभूति चाहिए। जिसका अनुभव नहीं, उसको कैसे स्वीकृत-अस्वीकृत करें ? स्वीकृत किया जा सकता है तो वह मात्र शरीर जो हमें उपलब्ध है। श्वास है जो निरन्तर आता-जाता है। उसके बिना एक क्षण भी रहा नहीं जाता। वह कभी कारणवश कुछ क्षण रुकता है तो लगता है अब जीवित नहीं रह सकते। जिजीविषा इतनी प्रबल होती है कि हर तरह से श्वास-प्रश्वास के लिए शरीर को सक्रिय होना पड़ता है। सक्रियता से शरीर में जो क्षीणता आती है, टूट-फूट होती है उसकी पूर्ति आहार (भोजन) से होती है। आहार जीवन की प्रथम आवश्यकता है। उसके बिना शरीर टिक नहीं सकता। शरीर आहार से संपोषित-संवर्धित होता है। जगत् के प्रत्येक प्राणी की प्रवृत्ति का आधार आहार है। आहार की खोज ही उसे इस छोर से उस छोर तक यात्रा करवाती है। आहार को सुरक्षित रूप में कर सकें, इसमें किसी प्रकार का व्यवधान और बाधा न आये, यह भय ही उसे भयभीत बनाए रखता है। भय के दो कारण है-आहार में बाधा और शरीर की असुरक्षा। शरीर के विकास और शक्ति के उत्पादन में आहार की महती आवश्यकता हैं। जीवन का अस्तित्व भी भोजन से जुड़ा हुआ है। भोजन नहीं तो जीवन भी नहीं। कुछ दिन के पश्चात् शरीर क्षीण होकर नष्ट हो जाता है। भोजन प्राणी की ऐसी प्रगाढ़तम वृत्ति है कि वह उसके लिए सब कुछ करने को तैयार है। भोजन की इस प्रगाढ़तम इच्छा को भगवान् महावीर आहारसंज्ञा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा कहते हैं। आहारसंज्ञा मौलिक अन्तरवृत्ति है। संज्ञा का तात्पर्य है धनीभूत केन्द्रीय-वृत्ति वह केवल मानसिक-शारीरिक नहीं है। वह उससे गहन भावनात्मक और चैतसिक है। भोजन केवल शरीर से ही जुड़ा हुआ नहीं है। मन, भाव भी उससे संलग्न है यद्यपि मन के भाव का क्षेत्र स्पष्ट रूप से अलग है। किन्तु अलग होते हुए भी इतना संयुक्त है उसको इन्कार नहीं कर सकते। मन, भाव और चित्त भी सूक्ष्मता से उससे प्रभावित होता है। जब शरीर को भोजन प्रभावित करता है तो मन और भाव भी उससे कैसे बच सकते हैं ? तनाव का बीज-भय संज्ञा स्मृति, चिन्तन और कल्पना के माध्यम से मन भावों को प्रभावित करता है। प्रभाव, क्षेत्र, इन्द्रिय और मन के आयामों से जुड़ा हुआ है। इन्द्रियां और मन प्राणी के विकासशील चित्त के प्रतीक हैं। इन्द्रियों के माध्यम से वह विभिन्न कार्य संपादित करता है। मन के द्वारा व्यक्ति चिन्तन, मनन आदि कर ज्ञान को विकसित करता है। ज्ञान और विज्ञान के विकास में इन्द्रियां और मन में विकसित करता है। ज्ञान और विज्ञान के विकास में इन्द्रियां और मन ही कार्यरत है। इन्द्रियां और मन चेतना के विकास स्तर हैं। विकास के साथ मन का दूसरा पक्ष जिससे वह भय, आवेग, काम, क्लेश आदि विभिन्न रागात्मक प्रवृत्तियों में संलग्न होता है। उसका ही परिणाम है कि व्यक्ति में भय की संज्ञा ने जबरदस्त अपना अड्डा जमा रखा है। भय की स्थिति ही आहार की तरह मौलिक समस्या है। आहार (भोजन) मुख्य रूप से शरीर को प्रभावित करता है। भय की भावना, मन, शरीर और भावना-तंत्र को प्रभावित करता है। सबसे बड़ा भय है कि कहीं शरीर विलय (नष्ट) न हो जाएं। उसको हर कीमत पर बचाने की कोशिश करता है, किन्तु बचा नहीं पाता। फिर भी भय की प्रगाढ़ता अणु-अणु में परिव्याप्त रहती है। भय को पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय विभिन्न क्षेत्रों से ग्रहण किया जाता है। भय से भय बढ़ता है। सुरक्षा के समस्त प्रकार निर्भयता के लिये किये जाते हैं। किन्तु भय प्रत्युत बढ़ता है। बढ़ा हुआ भय तनाव पैदा करता है। तनाव से शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रोगों से ग्रसित हो जाता है। तनाव से मुक्ति का मार्ग है-कायोत्सर्ग। भय निरसन करने के दो उपाय हैं-प्रेक्षा से भय का साक्षात्कार और अभय की अनुप्रेक्षा। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरित प्रश्न ४७ प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा से अभय की यात्रा प्रारंभ कर संतुलित जीवन जीया जा सकता है। संतुलन से वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में नवशक्ति का संचार होता है। मैथुन संज्ञा-निजत्व की सुरक्षा प्राणी की तीसरी इच्छा ; मौलिक मनोवृत्ति मैथुन संज्ञा है। मैथुन की संज्ञा इतनी गहनतम है कि सामान्य प्राणी का उससे मुक्त होना सहज नहीं है। मैथुन का तात्पर्य-मिलना। स्त्री और पुरुष में एक-दूसरे के प्रति जो आकर्षण है वह स्त्री अथवा पुरुष का नहीं है, उसमें रहने वाली काम-ऊर्जा का है। ऊर्जा में आकर्षण होता है। वह परस्पर एक-दूसरे को आकर्षित करती मनोविज्ञान के प्रवर्तक डा० फ्रायड का मानना है कि, काम हमारी मूलभूत मांग है। कामना के धागों से बुनकर ही जीवन की सप्तरंगी चादर बनती है। उन्होंने काम के विभिन्न पहलुओं को चर्चित किया है। मैथुन को संभोग के कोण से ही क्यों देखा जाये ? उसके और अनेक पहलू हैं। शरीरगत किया गया मैथुन स्थूल है, जो केवल प्राणी की संतति को उत्पन्न कर अपनी जाति की सुरक्षा करता है। जाति-परम्परा को निरन्तर बनाए रखने के लिए मैथुन की अपेक्षा रहती है। जाति को जीवन्त बनाए रखना उसकी अपनी अन्तरंग संज्ञा है। मैथुन में मानसिक रसात्मकता भी एक कारण है। रति में आकर्षित मन पुनःपुनः उस ओर प्रवृत्त होता है। यह केवल शरीरगत ही क्रिया नहीं है। मानसिक स्तर पर भी होता है, जिसमें समान विचार-चिन्तन वाले परस्पर एक-दूसरे के प्रति समर्पित होते हैं। मानसिक बल पर एकात्मकता का अनुभव कर उसमें ही रहना मानसिक मिलन है। इसमें स्थूल शारीरिक सक्रियता विराम पा लेती है। मानसिक बल पर एक-दूसरे के प्रति समर्पण जीवन्त हो जाता है। मन के बल पर जो अर्पण होता है उससे सृष्टि विकसित नहीं होती। मन के बल पर अतीत और भविष्य को अंकित किए बिना केवल वर्तमान में मन को सजग बनाए रखना होता है। मन स्वयं के चिन्तन-मनन में लीन रहे। उसकी मानस ऊर्जा स्वयं में विलीन होकर अस्तित्व की ओर गतिमान बनें। अस्तित्व की उत्सुकता ज्यों-ज्यों बढ़ती है। मैथुन की भावना रूपान्तरित हो जाती है। मानस की Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ प्रज्ञा की परिक्रमा भावना शरीर पर व्यक्त और स्थूलरूप धारण करती है। चित्त की निर्विकारता शरीर को उत्तेजना से दूर कर देती है। मैथून की प्रगाढ़ता स्थूल से सूक्ष्म स्तर पर आती है। वहां पर वह कला, मैत्री, प्रमोदभाव, जीवन की उदात्त भावनाओं में रूपान्तरित होकर समाज को सृजन की शक्ति प्रदान करती है। नवशक्ति का विकास संयोग से होता है। संयोग एक सत्य है। संयोग का निश्चित वियोग है। वियोग के कोण से दृष्टिपात करने से संयोग की अनित्यता अनुभव होने लगती है। संयोग के दृष्टिकोण से वियोग नश्वर है। संयोग और वियोग से पार अस्तित्व की अनुभूति है। जहां संयोग और वियोग की शक्ति के पार अस्तित्व की ऊर्जा का जागरण हो जाता है। अस्तित्व की ऊर्जा के जागरण के समय मैथुनशक्ति का आकर्षण गिर जाता है। वह विराट अस्तित्व से संयुक्त बन जाता है। उसका यह मिलन मैत्री, शक्ति, ज्ञान को श्रद्धा से अभिभूत बना देती है। व्यक्ति फिर व्यक्ति नहीं विराट अस्तित्व में परमात्मा की अवधारणा को उपलब्ध हो जाता है। संग्रह की संज्ञा परिग्रह __ शरीर की सुरक्षा के लिए आहार का संग्रह प्राणी करता है। आहार शरीर को धारण करने के लिए आवश्यक है। तो दीर्घकाल तक आहार की संपूर्ति के लिए संग्रह भी सहज हो जाता है। संग्रह की भूलभूत वृत्ति को परिग्रह की संज्ञा से सूचन किया जाता है। आहार का संग्रह जीवन को सुरक्षित करने के लिए करना है। उसी प्रकार भय से अनिष्ट के लिए अस्त्र-शस्त्र का संग्रह एवं निर्माण करता है। सुरक्षा की सारी व्यवस्था इसके इर्द-गिर्द परिक्रमा देती है। मैथुन के लिए सुविधाओं का संकलन, अपने अधीनस्थ रखना यह सब परिग्रह की सुरक्षा है। परिग्रह क्या है ? इस प्रश्न पर चिन्तन करते हैं तो दो बातें स्पष्ट होती हैं। एक पदार्थ और दूसरा उसके प्रति ममत्व । पदार्थ परिग्रह है अथवा उसके प्रति जो आकर्षण, ममत्व है, वह परिग्रह है। भगवान महावीर ने परिग्रह की व्याख्या करते हुए स्पष्ट उद्घोषणा की मूच्छा परिग्गहो वुत्तो मूर्छा परिग्रह है। पदार्थ के प्रति ममत्व है वह प्राणी की ओर से है, पदार्थ की ओर से कुछ नहीं। पदार्थ पर ममत्व करें तब भी पदार्थ रहेगा। उसके गुण सत्ता में कोई परिवर्तन नहीं आता। लेकिन व्यक्ति यदि ममत्व करता है तो उसके गुण और भावों में परिवर्तन आ जाता है। वह परिवर्तन उसके अस्तित्व को भी प्रभावित Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरित प्रश्न ४६ करता है। परिग्रह का संग्रह, सुरक्षा, व्यवस्था से व्यक्ति इस प्रकार अपने जीवन को जोड़ लेता है। उससे मुक्त होना समस्या बन जाती है। परिग्रह आन्तरिक स्थिति है। जब तक प्राणी इस आन्तरिक स्थिति को स्पष्ट रूप से अनुभव नहीं कर लेता तो उससे मुक्त होने के लिए कैसे पुरुषार्थ कर सकता है ? प्रेक्षा के प्रकाश से संज्ञा विलय आहार, भय, मैथुन और परिग्रह के इस ब्यूहचक्र से प्राणी का निकलना कितना कठिन है ? प्राणी की स्वार्थ चेतना ज्यों-ज्यों विकसित होती है पदार्थ चेतना बढ़ जाती है। संज्ञाएं प्राणी को इस प्रकार घेरे रखती हैं। उससे मुक्त होने की कल्पना करना ही महाभारत है। ___ संज्ञाओं से उद्भूत समस्याओं के समाधान के लिए सबसे प्रथम प्रयास दृष्टिकोण के परिवर्तन का है। दृष्टिकोण के परिवर्तन का तात्पर्य है यथार्थ दृष्टि । जो पदार्थ अथवा भाव जिस रूप में है उसे उस रूप में समझें और जानें। समझना और जानना प्रेक्षा है। प्रेक्षा के पश्चात् अनुप्रेक्षा के प्रयोग से छाए हुए सघन संस्कारों को विच्छिन्न किया जा सकता है। मूलवृत्ति के परिवर्तन के लिए प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा अनिवार्य है। प्रेक्षा से सत्य का साक्षात्कार होता है वहां अनुप्रेक्षा जाने हुए सत्य को पुष्ट बनाती है। प्रेक्षा, अनुप्रेक्षा से पूर्व संस्कार धुलकर स्वच्छ और निर्मल बन जाते हैं। प्राणी अपने स्वरूप की ओर लौटने लगता है। उस पर संज्ञाओं का प्रभाव नहीं के बराबर रह जाता है। व्यक्ति परम यात्रा की ओर गतिशील बनने लगता है। ०००० Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मांसाहार बनाम शाकाहार "मुनि श्री ! आपने मेरे घर में मुसीबत पैदा कर दी। एक संभ्रान्त कुलीन महिला ने वन्दना करते हुए कहा। मैं थोड़ा चौंका और अपनी स्मृति पटल को कुरेदते हुए चिन्तन करने लगा-मैंने तो इसके परिवार के सदस्यों को कुछ भी नहीं कहा है। मेरी चिन्तित मुद्रा को देख, वह गंभीर स्वर में बोली-भूल गए आप, कल ही तो आपने मेरे पुत्र को रंगीन चित्र दिखाए थे। जिसमें मांसाहार के अनिष्ट परिणामों का विश्लेषण था। आपने वैज्ञानिक संदर्भो के अन्तर्गत आमिष-भोजन, शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से कितना घातक है, विस्तार से समझाया। उसने आमिष भोजन का परित्याग ही नहीं किया बल्कि आज वह दूसरों को प्रेरित कर रहा है। प्रातः मुझे भी उसने स्पष्ट कहा-मम्मी ! तुम और पापा अण्डे एवं आमिष भोजन भविष्य में करोगे तो मैं मुनिजी से शिकायत कर दूंगा। 'मैं सकपका गई, अण्डे उबालने की हिम्मत नहीं कर सकी। छोटे से बालक की एक दिवसीय संगत इतना असर दिखाएगी, मुझे विश्वास नहीं था। परम्परा से जैन धर्म के अनुगामी होते हुए इस तामसिक भोजन की और हम क्यों आकृष्ट हुए ? मन ग्लानि से भर गया। चिन्तनधारा शाकाहार एवं मांसाहार के गुण-दोष पर चलने लगी। बालक ने साहस कर संकल्प किया। मेरी मजबूरी है। मैं मांस का सेवन स्वयं कभी नहीं करूंगी; किन्तु अण्डे का परित्याग जब तक पतिदेव नहीं कर देते हैं मेरी मुक्ति उससे मुश्किल है। _ मैं उसकी मजबूरी को समझ रहा था। वहीं दूसरी और नई पीढ़ी में मांसाहार के प्रति रूझान के बारे में चिंतन कर रहा था। जैन धर्मावलम्बी शाकाहारी होते हैं, मांसाहार उनके लिए धार्मिक उसूलों से वर्जनीय है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांसाहार बनाम शाकाहार ___ मांसाहार को वर्जनीय क्यों माना गया है ? मांसाहार में क्या बुराई है? करोड़ों मनुष्य मांसाहारी हैं। मांसाहार न किया जाए तो भोजन के अभाव में जनता भूखी नहीं मर जाएगी ? पोषण-तत्त्व के अभाव में समाज रूग्ण और पीड़ित नहीं हो जाएगा ? ये तर्क मांसाहार के समर्थन में आते रहते ___ आहार जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। उसकी पूर्ति के बिना शरीर जीवित नहीं रह सकता। जिजीविषा के साथ भोजन जुड़ा हुआ है। भोजन की पूर्ति के लिए हिंसा अपरिहार्य है। मांसाहार वर्जन हिंसा के परिष्कार की प्रथम भूमिका है। प्रत्येक प्राणी जीवन का इच्छुक है। जीवन सबको प्रिय है, मरण कोई नहीं चाहता। मृत्यु सबके लिए पीड़ाप्रद है। मांसाहार के बिना भी जीवन चलाया जा सकता है। प्राणीवध के बिना भी अनेक प्राणी अपनी जीवन यात्रा संपन्न करते हैं। गाय, भैंस, बकरी घोड़ा, हिरण आदि अनेक प्राणी शाकाहार से अपना जीवन निर्वाह करते हैं। मनुष्य जब सामाजिक हुआ, उसने अपने विकास के मार्ग का निर्धारण किया। मांसाहार का वर्जन अहिंसा, करुणा की भावना को विकसित करने वाला है | मांस प्राणी के वध के बिना उपलब्ध नहीं होता। किसी प्राणी का वध हिंसा ही नहीं क्रूरता भी है। करुणा ओर अहिंसा की भावना ने ही मनुष्य को शाकाहार की प्रेरणा दी। करोड़ों व्यक्ति मांसाहार करते हैं, उसमें क्या बुराई है ? करोड़ों व्यक्तियों के मांसाहार करने से कोई मांसाहार सात्विक नहीं हो जाता। मनुष्य के शरीर की रचना मांसाहार करने वाले प्राणियों जैसी नहीं है। उसके दांत व नख हिंसा को प्रोत्साहित करने वाले नहीं है। हिंसा करने वाले प्राणियों के दांत एवं नख की रचना भिन्न प्रकार की होती है। मांसाहारी एवं शाकाहारी व्यक्तियों की आंतों व आमाशय की रचना में भी अन्तर रहता है। मांसाहार के पाचन के लिए पित्ताशय को पित्त अधिक श्रवित करना होता है। उनके पेन्क्रियाज की रचना शाकाहारियों के वनस्पत कुछ विशाल होती है। शारीरिक रचना की दृष्टि से ये सब भिन्नता इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य मांसाहारी प्राणी नहीं है। मांसाहार उसके लिए शारीरिक दृष्टि से भी अनुकूल नहीं हैं। मांसाहार करने वाले व्यक्ति संख्या की दृष्टि से भले करोंड़ों-अरबों हों, इससे मांस की महत्ता को दिग्दर्शित नहीं किया जा सकता। मांसाहार मनुष्य की स्वाद Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ प्रज्ञा की परिक्रमा वृत्ति का द्योतक है, कोई धार्मिक कृत्य नहीं है। जिह्वा लोलुपतावश हिंसा के विभिन्न प्रयोग होते आए हैं। किन्तु धर्म ही एक ऐसी विचार प्रक्रिया है, जिसने मनुष्य को प्रशिक्षित किया और मांसाहार के परिहार की दृष्टि दी। मांसाहार न करने से मनुष्य जाति भूखी मर जाएगी', ऐसा कुछ तार्किको का तर्क है। वे कहते हैं अन्न एवं शाक का उत्पादन इतना नहीं होता है कि समस्त मानव जाति उसे खाकर जीवन निर्वाह कर सके। मांस को आहार के रूप में प्रयोग कर ही इस समस्या को समाहित कर सकते हैं। मांसाहार प्राणी के बिना प्राप्त नहीं होता। उस प्राणी को पालने के लिए कितने शाक (घास) का उपयोग करना पड़ता है। तब कहीं वह पुष्ट बनता है। आर्थिक दृष्टि से भी पशुओं का मांस सस्ता नहीं पड़ता है। मूलतः जैन-धर्म की मांस परिहार की दष्टि करूणा और समता से जुड़ी हुई है। अहिंसा और करुणा के बिना मैत्री बन नहीं पाती। धर्मों ने प्राणियों के प्रति दया और करुणा का उपदेश दिया है। मांसाहार सभ्यता के आदि युग में मनुष्य ने स्वीकार किया। उस समय वह कच्चा मांस ही हिंसक प्राणियों की तरह खा जाया करता था। अग्नि आविष्कार के बाद मांस पकाकर खाने लगा। सभ्यता एवं विवेक के विकास के साथ व्यक्ति ने करुणा और दया का पाठ पढ़ा। सभी धर्मोपासकों ने मांसाहार के परित्याग की चर्चा की है। दया और करुणा वैयक्तिक विकास के अतिरिक्त सामाजिक सामंजस्य का आधार बनती है। उसके लिए अहिंसा और करुणा अनिवार्य है। मांस परिहार जैन धर्म की पहचान हो गई। दूसरे धर्म जिनके अनुयायी मांसाहार करते हैं, उनके पैगम्बरों, अवतारों और महापुरुषों ने भी मांसाहार को त्याज्य बताया है। विज्ञान के विकास एवं नवीन खोजों ने विश्व में मांसाहार के परित्याग एवं शाकाहार के प्रसार का वातावरण बनाया है। मांसाहार तामसिक, भारी, दुष्पाच्य एवं तनाव को बढ़ाने वाला है। शाकाहार सात्त्विक, हल्का, सुपाच्य एवं तनाव को मिटाने वाला है। शाकाहारी प्राणियों की लार क्षारीय होती है जिससे वे भोजन में निहित कार्बोहाइड्रेट ठीक से पचा सकें। मांसाहारी प्राणी की लार अम्लीय होती है जिससे वे मांस का सुचारु रूप से पाचन कर सकें। मनुष्य की छोटी-बड़ी आंतें मिलाकर अपनी ऊंचाई की चार गुना लम्बी हैं तो मांस-भोजी प्राणी की आंत उसकी ऊंचाई के बराबर लम्बी होती है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांसाहार बनाम शाकाहार ५३ मासांहारी प्राणी के यकृत व गुर्दे भी मनुष्य की अपेक्षा बड़े होते हैं। मांस हजम करने के लिए यकृत को पित्त अधिक स्रवित करना होता है मांसाहार के बिना में जो धारणाएं बनी हुई हैं, वे भी भ्रान्त हैं। मांसाहार से शरीर बलिष्ठ, वीर्यवान् और तेजस्वी बनता है, इसलिए अण्डा, मछली और मांस खाओं। उससे शक्ति और बुद्धि विकसित होगी। यह बात भी मिथ्या और अवैज्ञानिक है। मांसाहारी शाकाहारियों के परीक्षण से यह सिद्ध हुआ है कि शाकाहार शरीर के अनुकूल, शक्तिवर्धक और बौद्धिकता को बढ़ाता है। इन सारी स्थितियों की स्पष्टता से मनुष्य मांसाहारी प्राणी नहीं है। मनुष्य ने ज्ञान का ज्यों-ज्यों विकास किया, उसने अपने प्रबुद्ध विवेक से मांसाहार का परित्याग किया है। किसी भी भोजन की गुणवत्ता प्रोटीन, विटामिन एवं शक्ति (क्लोरीज ) से आंकी जाती है। मांसाहार प्रोटीन, विटामिन एवं शक्ति से युक्त होते हु भी दुष्पाच्य है। दूसरे जिन स्रोतों से मांस प्राप्त किया जाता है वे भी कितने स्वस्थ व सबल होते हैं ? दुर्बल एवं रुग्ण प्राणियों का मांस भी कितना पीड़ाकारक एवं रुग्णता को बढ़ा सकता है। शाकाहार में भी दाल, सोयाबीन, दूध आदि पदार्थों में भरपूर प्रोटीन प्राप्त होता है। शाकाहार में विभिन्न द्रव्यों से प्राप्त प्रोटीन, विटामिन एवं शक्ति को शरीर सरलता से पचाकर शरीर का अंग बना लेता है । पनीर, सेब, दाल, चोकर आदि में विटामिन, प्रोटीन शक्ति भी मांस से कम नहीं होती है। बल्कि मांस में अतिरिक्त यूरिया अम्लादि अधिक होते हैं जिसकी आवश्यकता शरीर को इतनी नहीं। गुर्दों को उन्हें अधिक श्रम कर बाहर फेंकना होता है। अतिरिक्त श्रम से वे दुर्बल एवं रुग्ण हो जाते हैं। जिसका परिणाम अल्पायु में जीवन की परिसमाप्ति हो जाती है । स्वस्थ, श्रेष्ठ और शान्त जीवन के लिए शाकाहार अनिवार्य है । उसके साथ मानसिक शान्ति, आध्यात्मिक विकास के लिए अणुव्रत का संकल्प और प्रेक्षा का अभ्यास शुभ शक्तियों को जागृत करता हुआ परम अस्तित्व की यात्रा प्रारम्भ करवाता है । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ प्रज्ञा की परिक्रमा प्रज्ञा और परम्परा प्रज्ञा सत्य का साक्षात् है । सत्य की यात्रा प्रज्ञा की निर्मलता से होती है। अभिधम्मकोष में प्रज्ञा को समला और अमला माना गया है। "प्रज्ञा - मला सानुचरामि धर्मः ततः प्राप्तये यापि च यच्च शास्त्रम्" / श्लोक २ / समला- प्रज्ञा शास्त्र ज्ञानादि से उत्पन्न होती है। इसमें कषाय का अंश रहता है । सकषाय होने से यह लौकिक है। अमला विशुद्ध होती है। उसमें कषाय का अंश नहीं रहता, इसलिए यह लौकोत्तर है। प्रज्ञा पर मोह के उदय से आवरण आता है। राग और द्वेष की जड़ मोह है। मोह प्रज्ञा का महाशत्रु है। दर्शन मोहनीय कर्म की जब तक प्रगाढ़ता रहती है व्यक्ति सम्यक्त्व को उपलब्ध नहीं होता । जैन परम्परा में मोहनीय कर्म को सब कर्मों से शक्तिशाली माना है। उसके दो विभागों में दर्शन मोहनीय सर्वाधिक हानिकारक है। उससे ही व्यक्ति मिथ्यात्व में डूबा हुआ अनन्त - अनन्त काल से संसार में परिभ्रमण करता है। इस चक्र को तोड़ने के लिए प्रज्ञा का जागरण आवश्यक है। प्रज्ञा जागरण प्रज्ञा और परिवर्तन के लिए विपरीत दृष्टिकोण का परित्याग अनिवार्य है । मिथ्यात्वी पारमार्थिक मूल्यों का विपरीत मूल्यांकन करता है । वह यथार्थ सत्य को अयथार्थ सत्य समझता है। यह सब मोह की प्रगाढ़ता से होता है। मोह से चिन्तन और प्रवत्ति दूषित होती है । कोई व्यक्ति पूरब को पश्चिम समझ कर यात्रा करता है वह अपने लक्ष्य पर कैसे पहुंच सकता है ? लक्ष्य पर पहुंचने के लिए दृष्टिकोण को सम्यग् बनाना आवश्यक होता है। सम्यग दृष्टिकोण के बिना आध्यात्मिक सफलता नहीं मिल सकती। मूल्यांकन के आधार पर ही दृष्टिकोण सम्यग् और असम्यग् होता है । दृष्टिकोण के सम्यग् होते ही व्यक्ति में लोभ कषाय मंद होने लगती है। लोभ कषाय की मंदता के साथ अन्य कषाय स्वयं उपशांत होने लगते हैं। लोभ कषाय ही दुःख का मूल है। उसके उपशांत होते ही व्यक्ति के प्रशस्त भाव प्रगट होने लगते Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा हैं। प्रशस्त भाव से मैत्री आदि गुणों का विकास सहज संभव हो जाता है। साधक की समस्त प्रवृत्तियां कल्याणमयी होने लगती हैं। परिवार में सौहार्द, सहनशीलता और परस्पर सापेक्षता आदि विकसित होने लगती है। जिससे सामाजिक परिवर्तन और समता का वातावरण अंकुरित होने लगता है। ऐसे वातावरण से संवेग अन्तःकरण में स्फुटित होने लगता है। व्यक्ति की अपनी आसक्ति ही उसे जगत् में परिभ्रमण करवा रही है। आसक्ति के सूक्ष्मतम धागे ही व्यक्ति को बन्धन में डाले रखते हैं। आसक्ति की तीन श्रृंखलाएं अत्यन्त दुःसाध्य हैं। इनका उच्छेद पुरुषार्थ सापेक्ष है। प्रज्ञा से ममत्व मुक्ति पहली श्रृंखला शरीर के प्रति ममता की है। ममत्व की कड़ी ही सर्वाधिक प्रगाढ़ होती है। इसके विच्छेद के साथ सारे बन्धन शिथिल होने लगते हैं। प्रेक्षा साधन ने इस तथ्य को गहराई से समझा है उसके लिए कायोत्सर्ग के प्रयोग द्वारा ममत्व के इस निबिड़ बन्धन को शिथिल करने का प्रयत्न किया जाता है। ज्यों-ज्यों बन्धन शिथिल होता है ममत्व की मुक्ति सहज होने लगती है। जब ममत्व टूटता है तब चैतन्य शक्ति अनावृत होने लगती है। अनावृत शक्ति ही साधक को साधना में आगे बढ़ाती है। साधना के विकास का पता इस तथ्य से ही लगता है कि साधक की आकांक्षाएं कितनी और कैसी हैं। आकांक्षा का समीकरण और विलय है व्रत-संयम । व्रत-संयम से प्रवृत्ति सीमित होती है। प्रवृत्ति संयम से प्रमाद का विलय होता है। प्रमाद प्रज्ञा जागरण में बाधक तत्त्व है। जागरण के प्रति मूर्छा से पुनः व्यक्ति आसक्त होकर मूढ़ता में लौट जाता है। प्रमाद के विलय के लिए सतत स्वाध्याय, सत्कर्म आवश्यक है, सत् प्रवृत्ति से व्यक्ति असत् से दूर हो जाता है। सर्व प्रथम असत् से सत् में प्रवेश करें, फिर सत् और असत् से हटकर निवृत्ति में स्थिर हो जाएं। निवृत्ति ही प्रज्ञा को शीघ्रता से अनावृत करती है। प्रवृत्ति और प्रज्ञा प्रवृत्ति को दूषित करने वाला कषाय ही है। कषाय ही चैतन्य को उतप्त बनाती है। उससे ही उसकी प्रवृत्ति असत् बन जाती है। असत् परिभ्रमण का निमित्त बनाती है। कषाय से रंगी हुई चेतना के योग शुभ नहीं रह पाते। वे अशुभ बनते हैं। अशुभ योग से अशुभ कर्म का आकर्षण होता है। कर्म Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ प्रज्ञा की परिक्रमा का अनुबन्ध व्यक्ति को भटकाता है। इसलिए मन, वाक् और काया का संयम (गुप्ति) आवश्यक है। मन, वचन, काया की गुप्ति से व्यक्ति निर्बन्ध बनता है। जब नवीन कर्म का आकर्षण नहीं होता है बन्धे हुए कर्म स्वयं फल देकर विलीन हो जाते हैं या सत् प्रवृत्ति के द्वारा कर्म संस्कारों की निर्जरा की जा सकती है। प्रज्ञा को अनावृत करने के लिए विविध प्रयोगों की अपेक्षा है। प्रज्ञा के अनावरण के लिए सबसे पहली घटना सम्यग्दर्शन है। सम्यग् - दर्शन से सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है, वह व्यक्ति की दिशा को स्पष्ट करती है। दिशा की स्पष्टता ही व्यक्ति को साधना के लिए गतिशील बनाती है प्रज्ञा और प्रेक्षा प्रज्ञा कैसे अनावृत हो | क्या है अनावरण की प्रक्रिया जिससे व्यक्ति प्रज्ञा को प्रगट कर सके। प्रज्ञा जागरण के लिए प्रेक्षा का अभ्यास आवश्यक है। प्रेक्षा की प्रविधियां प्रज्ञा को प्रगट करने की प्रक्रियाएं हैं । शरीर, श्वास, चैतन्य - केन्द्र एवं लेश्या ध्यान की सभी प्रक्रियाओं से प्रज्ञा प्रगट होती है। प्रज्ञा के अनावरण में शरीर, श्वास एवं चैतन्य- केन्द्र आदि सभी का सहयोग अत्यावश्यक है । प्रज्ञा के अवतरण के लिए शरीर के यंत्र का स्वस्थ होना अति आवश्यक है । स्वास्थ्य के बिना कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती । साधना की पूर्णता प्रज्ञा से होती है। प्रज्ञा का आलोक धारणा, ध्यान और समाधि के संयम से फलित होता है। ऐसा पंतजलि विभूति पाद में सूत्र पांच में लिखते हैं । जैसे-जैसे संयम की स्थिरता विकसित होती है । प्रज्ञा की निर्मलता बढ़ती जाती है। समाधि में विषय के साथ ज्ञान का तारतम्य सन्निकर्ष होता है । उस समय वस्तु या विषय का स्पष्ट ज्ञान होता है। प्रज्ञा का ज्ञान अतीन्द्रिय चेतना से संपूर्ण होता है। ऐसा अनुभव साधना के समय अनेक बार प्रतिभासित हुआ है । इन्द्रिय चेतना बहुत स्थूल स्तर पर वस्तु सत्य का स्पर्श करती है। प्रज्ञा में अनुभूत होने वाले ज्ञान का कोई कारण स्थूल चित्त में स्पष्ट नहीं होता फिर भी जो सचाई है उससे इन्कार नहीं हुआ जा सकता । प्रज्ञा पुरुष युवाचार्य श्री की सन्निधि में उनकी अनुभूतियों एवं ज्ञान के स्पष्ट व्याख्याओं को सुनकर आश्चर्य चकित ही होना पड़ता है। प्रेक्षा साधना से गुजरने वाला व्यक्ति इस सत्य को सहजता से अनुभव कर सकता है। प्रज्ञावान् की मेघा स्मृति के आधार पर विकसित नहीं होती। उसकी अनुभूतियां Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा सत्य का संस्पर्श स्वयं करती है। जिसकी अभिव्यक्ति से ही पता लगता है कि प्रज्ञा की प्रकर्षता कितनी है। प्रज्ञा की प्रकर्षता प्रज्ञा की प्रकर्षता की जांच के लिए यह जानना होगा कि प्रज्ञा का यह प्रकाश कहां से आविर्भूत हो रहा है। जब प्रज्ञा का प्रकाश श्रुत, अनुमान से संचलित है तब वह पदार्थ की साक्षात् करने वाली परम प्रज्ञा नहीं है। श्रुत और अनुमान जनित प्रज्ञा पदार्थ को प्रकाशित तो कर रही है, किन्तु उसका विषय स्थूल होगा। ऋतम्भरा प्रज्ञा को प्राप्त व्यक्ति जब श्रुत के द्वारा अपनी अभिव्यक्ति करता है। वह श्रुत ऋतम्भरा प्रज्ञा का आलोक अवश्य है किन्तु जिस समय व्यक्ति समाधि में निर्विचार वैशारद में विहरण करता है उस स्थिति की अनुभूति और अभिव्यक्ति में अत्यन्त कुशलता के बावजूद पूर्णता नहीं कर सकता है; अपूर्णता परम प्रज्ञा अनुसारिणि होने से उस श्रुत को भी प्रज्ञा कहा गया है। उसे पंकिल जल और तुषार जल का उदाहरण देकर अन्तर दर्शाया गया है। निर्विचार समापत्ति में ऋतम्भरा प्रज्ञा में जिस ज्ञान का संस्पर्श होता है वह सत्य के अधिक सन्निकट है। प्रज्ञा की इस परिक्रमा में केवल श्रुत अथवा अनुमान की यात्रा नहीं है। श्रुत और अनुमान प्रारम्भ में आलंबन बनते हैं, किन्तु अन्ततः उस परम प्रज्ञा के लिए सबीज समाधि से निर्बीज समाधि की ओर यात्रा करना अत्यावश्यक समाधि से प्रज्ञा समाधि चित्त की वह अवस्था है जहां व्यक्ति विचार के साथ विचरण करता है जिसे सविचार समाधि कहा गया है। जब वृत्ति से विचार निकल जाता है केवल वृत्ति में अविचार स्थिति उत्पन्न हो वृत्तियां स्थिर बन जाती हैं तब वह निर्विचार स्थिति बनती है। निर्विचार स्थिति ही प्रज्ञा की अवस्था को उपलब्ध होता है। पतंजलि योग दर्शन में जहां सबीज, निर्बीज समाधि की चर्चा करते हैं उनकी अपनी प्रक्रियाएं भी दी हैं। प्रेक्षा-ध्यान साधना पद्धति ने समाधि की खोज एवं समाधि की निष्पत्ति के लिए प्रेक्षा के प्रयोगों का निरूपण किया है। पतंजलि समाधि से पूर्व सात अंग की प्रतिज्ञा करते हैं वे कहते हैं-यम, Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान से आगे समाधि में पहुंचते ही उनकी साधना पद्धति समाधि से पूर्व इन सात अंगों पर बल देती है। समाधि में भी जब निर्बीज समाधि प्रज्ञा को स्फुटित करती है। प्रेक्षा से प्रज्ञा का अवतरण प्रेक्षा साधना में भी प्रज्ञा की माया के लिए इस तरह से निश्चित अंगों की चर्चा नहीं की गई है फिर भी उनकी भी अपनी क्रमबद्धता अवश्य होती है। समाधि चैतन्य की वह अवस्था है न तो व्यक्ति समाधान को उपलब्ध होता है और न उसकी विषमता दूर होती है। प्रेक्षा-ध्यान की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है चैतन्य-केन्द्र प्रज्ञा जिससे प्रज्ञा की यात्रा की जा सकती है। ज्ञान की अभिव्यक्ति के दो साधन हैं-इन्द्रिय, चेतना और अतीन्द्रिय चेतना। इन्द्रिय चेतना स्थूल दृश्य जगत् को जानती है और अतीन्द्रिय चेतना सूक्ष्म सत्यों का साक्षात करती है। सूक्ष्म चेतना को अनावृत करने के लिए चैतन्य केन्द्रों पर प्रेक्षा का प्रकाश डालना होता है। ज्यों-ज्यों प्रेक्षा के द्वारा केन्द्रों पर एकाग्र और राग-द्वेष रहित उपयोग को स्पष्ट करते हैं तब प्रज्ञा का जागरण होने लगता है। प्रज्ञा जागरण के लिए ज्ञान-केन्द्र और शान्ति-केन्द्र पर ध्यान का उपयोग अपेक्षित रहता है। जब ज्ञान-केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित होता है, तब वहां स्पंदन, प्रकंपन, विचार प्रशान्त होकर निर्विचार स्थिति में प्रज्ञा का प्रादुर्भाव होने लगता है। प्रज्ञा के इस आलोक से न केवल व्यक्ति आलोकित होता है, उस ज्ञान से कण-कण आलोकित हो उठता है। प्रज्ञा की परिक्रमा के लिए प्रेक्षा के प्रयोगों को विधिवत् करना चाहिए। जिससे व्यक्ति प्रज्ञा को उपलब्ध होकर सत्य का साक्षात् कर सकता है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. . .. . प्रेक्षा . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षा : जीवन का विज्ञान तनाव की समस्या तनाव यांत्रिक युग की देन है। मानव जाति तनाव से ग्रसित हो रही है। आज बालक से लेकर वृद्ध तक इस पीड़ा से पीड़ित हैं। आज तनाव दैनिक चर्या का अंग बन गया है। आदर्श और व्यवहार में सामंजस्य नहीं बैठ रहा है। व्यक्ति में असहिष्णुता बढ़ रही है। उससे परिवार, समाज और राष्ट्र में संघर्ष की स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। कोई भी व्यक्ति सहने को तैयार नहीं है। परिणामतः व्यक्ति निराश और व्याधियों से पीड़ित हो, डॉक्टरों के इर्द-गिर्द समाधान के लिए चक्कर काटता है। प्रतिरोधी और नशीली औषधियों से परेशान हो अपने आप को भुलाने के लिए मादक द्रव्यों का आसेवन करने लगता है। इससे समस्या के समाधान के बजाय कठिनाइयां बढ़ने लगती हैं। व्यक्ति मानसिक विकृतियों का शिकार बन कर आत्महत्या करने तक की सोचने लगता है। बढ़ती हुई आत्महत्याओं के पीछे मुख्य रूप से तनावों का हाथ है। प्रेक्षा आशा किरण ___ व्यक्ति चिंतित हैं, परिवार परेशान है, समाज संकटग्रस्त है, धार्मिक लोग भी चिंतित हैं कि उसका समाधान कैसे निकले। उनको निराशा और अन्धकारमय भविष्य के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई दे रहा है। निराशा और पीड़ा से पीड़ित इस वातावरण में प्रेक्षा-ध्यान आशा की किरण है। प्रेक्षा जीवन विकास की सर्वांगीण प्रक्रिया है। प्रेक्षा महावीर वाणी, प्राकृत शब्द 'पेहा' से लिया गया है जिसका संस्कृत रूप प्रेक्षा है। प्रेक्षा का तात्पर्य है, गहराई से देखना, अनुभव करना। किसे देखें ? कैसे अनुभव करें ? किसका साक्षात् करें ? स्वयं को देखें, स्वयं का अनुभव करें और स्वयं के स्वरूप का साक्षात् करें ? Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा व्यक्ति प्रथम मिलने वालों से, अनायास ही पूछ लेता है । आप कौन हैं? कहां से आये हैं ? क्या करते हैं ? किन्तु अपने आप से कोई नहीं पूछता कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, क्या करता हूं । ६० जगत् का समस्त ज्ञान विज्ञान अपने में समेटे होते हुए भी व्यक्ति स्वयं के बारे में अनभिज्ञ है। स्वयं को जानने का सरल मार्ग प्रेक्षा ध्यान है। दूसरे शब्दों में इसे हम यों भी कह सकते हैं, स्वयं द्वारा स्वयं का आत्म-निरीक्षण प्रेक्षा- ध्यान है। प्रेक्षा-ध्यान का फलित है- शारीरिक, मानसिक और भावात्मक आवेगों पर संयम । इससे व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होता है। प्रेक्षा की इस पद्धति में यौगिक क्रियाएं आसन, प्राणायाम, कायोत्सर्ग प्रेक्षा-ध्यान, अनुप्रेक्षा आदि विधियों का समावेश किया गया है। प्रेक्षा की इन विधियों को जानने की उत्सुक्ता, जिज्ञासु - मानस में होना स्वाभाविक है। प्रेक्षा में प्रवेश की अनेक विधियां हैं। सभी विधियों का विश्लेषण यहां संभव नहीं है उनमें से कुछ एक विधियों की प्रायोगिक प्रक्रिया प्रस्तुत है । प्रेक्षा का पहला प्रयोग है महाप्राण ध्वनि महाप्राण ध्वनि से मस्तिष्क के कोष सक्रिय होते हैं, विचारों की चंचलता शांत होती है। ध्यान का वातावरण निर्मित होता है। दीर्घकाल अभ्यास से स्मरण शक्ति विकसित होती है। महाप्राण ध्वनि के अभ्यास के लिए रीढ़ की हड्डी को सीधा रख सुख पूर्वक बैठ नाक से श्वास भर होठ को बन्द करें, नाक से भंवरे की तरह गुंजारव करते हुए इस प्रक्रिया को ६ बार दोहराए । .मं. ...मं... ...मं... ....... प्रेक्षा का दूसरा प्रयोग है - कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग शरीर की चंचलता दूर करता है। उससे फलित होता हैं शिथिलीकरण और स्वयं की अनुभूति । शिथिलीकरण से शरीर और मन में हल्कापन प्रकट होता है । हल्केपन का अनुभव ही स्वयं की अनुभूति की झलक है । जिससे व्यक्ति शरीर और स्व का भेद अनुभव करने लगता है। यह भेद ही आसक्ति के बंधन को तोड़ता है। व्यक्ति मानसिक और भावात्मक स्तर पर तनाव मुक्ति अनुभव करता है। कायोत्सर्ग के पूर्ण प्रयोग में ४५ मिनट लगाते हैं, परन्तु कायोत्सर्ग का लघु प्रयोग ५ मिनट में भी किया जा सकता है। जो अनिद्रा, रक्त चाप और क्रोध शमन के लिए अक्सीर है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षा जीवन का विज्ञान ६१ कायोत्सर्ग के इस प्रयोग को कोई किसी भी समय कर सकता है, लेकिन रात्रि शयन के समय करने पर विशेष लाभदायक हैं। कायोत्सर्ग की विधि बिस्तर या पट्ट पर आंख मूंद कर लेटें। पैर मिले हुए श्वास भरते हुए हाथों को मस्तक से ऊपर ले जाकर खींचाव दें। श्वास छोड़ते हुए हाथों को शरीर के बराबर ले आएं। इस प्रकार तीन बार करें। शक्ति की पूरी तरह शिथिल छोड़ दें। शरीर में अकड़न न रहे। एक-एक अवयव को शिथिलता का सुझाव दें, शरीर को शिथिल छोड़ दें......... चित्त को श्वास पर केन्द्रित करें | अनुभव करें श्वास के साथ शान्ति शरीर के प्रत्येक अवयव तक पहुंच रही है। श्वास छोड़ें तब शान्ति चारों और फैल रही है। रोम-रोम में शान्ति व्याप्त हो रही है। मैं शान्त और स्वस्थ हो गया हूं। जब तक निद्रा में प्रवेश न हो जाए प्रयोग जारी रखें। ___ कायोत्सर्ग के इस प्रयोग से शरीर और मन की जड़ता नष्ट होती है। भय और दुःस्वप्न दूर होते हैं, स्वभाव परिवर्तन और स्मृति का विकास होता प्रेक्षा का तीसरा प्रयोग है-दीर्घश्वास प्रेक्षा श्वास-प्रश्वास जीवन का आधार भूत तत्त्व है। दीर्घश्वास-प्रेक्षा द्वारा प्राणवायु अधिक मात्रा में उपलब्ध होती है जिससे रक्त शोधन सुगमता से होता है। रक्त शुद्धि से शरीर के दोष दूर होते हैं, व्यक्ति स्वस्थ बनता है। श्वास-प्रेक्षा से व्यक्ति में जागरूकता बढ़ती है। श्वास-प्रेक्षा से मन शान्त और विचार एकाग्र होने लगते हैं। श्वास-प्रश्वास को दीर्घ करने के लिए, धीरे-धीरे श्वास लें धीरे-धीरे श्वास-प्रश्वास छोड़ें। दोनों क्रियाओं में समय बराबर रहे। लेकिन श्वास क्रिया को बहुत ही कम लोग सही प्रकार से कर पाते हैं। प्रेक्षा शिविरों में आने वाले व्यक्तियों पर परीक्षण करने से पता लगा कि सौ में से अस्सी व्यक्ति श्वास क्रिया को सम्यग नहीं करते हैं। जिससे शारीरिक और मानसिक बीमारियां भोगनी पड़ती हैं। सही श्वास-श्वास क्रिया को जानने के लिए छोटे बच्चे की श्वास-प्रश्वास क्रिया को देखना होगा। वह श्वास लेते समय अपने पेट की मांसपेशियों को फैलाता है। छोड़ते समय सिकोड़ता है। सही श्वास क्रिया करते समय प्रत्येक व्यक्ति के पेट की स्थिति Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा इस प्रकार होनी चाहिए। अपने चित्त को श्वास पर केन्द्रित रखें। उससे एकलयता बढ़ती है, विचार शान्त और चित्त निर्मल बनता है। प्रेक्षा का चौथा प्रयोग है - जागरूकता होश, अपने प्रति सचेत रहना अर्थात् वर्तमान में जीना। वर्तमान में जीने से अतीत की चिन्ता, भविष्य की पीड़ा शान्त होती है। इससे कथनी और करनी में सामंजस्य स्थापित होता है। व्यक्ति अपने दायित्व के प्रति जागरूक बनता है जिससे व्यक्ति की पारिवारिक समस्याओं का समाधान होता है। पांचवा प्रयोग है - भावना ओर अनुप्रेक्षा घनीभूत इच्छा भावना है। उससे अपने संकल्प बल को दृढ बनाकर वृत्तियों का उदात्तीकरण किया जाता है। जिन वृत्तियों से संस्कार प्रगाढ़ होते हैं उन्हें अनुप्रेक्षा, सुझावों/स्वतः सूचनाओं (Auto suggetion) द्वारा रूपान्तरित किया जाता है। भावना और अनप्रेक्षा से व्यक्ति अपने इच्छित लक्ष्य और चारित्र की दृढता को प्राप्त कर सकता है। उससे बुरी तरह आदतों, व मानसिक उलझनों से मुक्ति पाई जा सकती है। प्रेक्षा-ध्यान के परिणाम निवृत्ति के पुनः प्रकृति क्यों ? चैतन्य केन्द्र जागृत होते हैं। उन पर व्यक्ति का नियंत्रण होने लगता है। शक्ति का सम्यग् समायोजन होता है। ग्रन्थियों के स्राव परिवर्तन से व्यक्ति के आचार और व्यवहार में एक रूपता होने लगती है। जिससे सहज करुणा और सौभ्य भाव स्फुटित होता हैं। प्रेक्षा-ध्यान भिन्न-भिन्न वर्ग एवं व्यवसाय वाले व्यक्तियों के लिए निर्णायक क्षमता प्रदान करता है। उससे वे अपने कार्य-कलापों को सफलता पूर्वक संचालित कर सकते हैं। युवक और युवती वर्ग अपने अध्ययन को सुचारू ढंग से रुचि सहित पूर्ण कर सकते हैं। इससे आलस्य दूर होता है, शरीर की सुघड़ता और सौंदर्य में वृद्धि होती है। युवकों की शक्ति को समायोजित कर सम्यग् दिशा प्रदान करता है। उसका रचनात्मक उपयोग करवाता है। युवक को बुरी प्रवृत्ति में उलझने नहीं देता क्योंकि उसकी शक्ति निर्माणात्मक कार्यों में निहित होने लगती है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षा जीवन का विज्ञान प्रेक्षा जीवन का विज्ञान है प्रेक्षा-ध्यान जीवन का विज्ञान है। व्यक्ति को श्वास लेने की क्रिया से लेकर जीवन की समस्त समस्याओं पर रचनात्मक ढंग से समाधान देता है। प्रेक्षा-ध्यान मिथ्या मान्यताओं से और साम्प्रदायिक कट्टरताओ से व्यक्ति को बचाता है प्रेक्षा पद्धति में मानने का आग्रह नहीं है केवल जानने की बात है। जानो और करो। प्रेक्षा-ध्यान शुद्ध प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक वैज्ञानिक की तरह प्रयोग में उतरता है उसके परिणामों का साक्षात्कार करता है चाहे वह व्यक्ति किसी मजहब, परम्परा और पूजा-उपासना में विश्वास करने वाला क्यों न हो। प्रेक्षा पद्धति में प्राचीन दार्शनिकों से प्राप्त तत्त्व बोध एवं स्वयं की साधना द्वारा अपने अनुभवों का विश्लेषण है जिसे कोई भी व्यक्ति, कभी भी प्रयोग में लाकर उसकी सत्यता का परीक्षण कर सकता है। प्रेक्षा में उपासनात्मक क्रिया-कांडों का कोई महत्त्व नहीं है। व्यक्ति अभ्यास में शामिल होकर स्वयं अनुभव प्राप्त कर सकता है। इसमें न रहस्यवाद है न चमात्कारिक शक्ति का संयोग । यह सरल और सहज प्रविधि है। इसमें व्यक्ति स्वयं के शुद्ध अवलोकन से शारीरिक, मानसिक और आन्तरिक शक्ति का अनुभव कर सकता है। यह मात्र संयोग ही नहीं है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने बायोफीड-बैक पद्धति से ध्यान के प्रयोगों को वैज्ञानिक स्वरूप दिया है। प्रेक्षा-ध्यान कर्ताओं पर प्रयोगशालाओं में मनोवैज्ञानिकों, डॉक्टरों और अन्य साधनों द्वारा परिणामों की जांच की गई है। उससे प्राप्त निष्कर्ष इस बात का संकेत देते हैं कि ध्यान के समय शरीर में रासायनिक परिवर्तन होता है। मस्तिष्क में अल्फा तरंगें तरंगित होने लगती हैं। अल्फा तंरग सामान्यतः व्यक्ति के मस्तिष्क में उस समय प्रगट होती है जब वह शांत एवं आनंद पूर्ण स्थिति में होता है। युवक, युवतियां प्रेक्षा के प्रयोगों को सरलता से सीख कर मन और भावों को परिष्कृत बना सकते हैं। प्रेक्षों के इन प्रयोगों को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार देकर भावात्मक एकता स्थापित कर सकते हैं जिसकी राष्ट्र का आज अत्यन्त आवश्यकता है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षा की अर्थयात्रा प्रेक्षा तीसरा नेत्र है। प्रेक्षा अन्तश्चेतना को जागृत करने की अनुपम परिक्रया है। प्रेक्षा जीवन्त दृष्टि है। प्रेक्षा प्रभु का प्रसाद है। प्रेक्षा साध्य को पाने का सोपान है। प्रेक्षा समता की सरिता है। प्रेक्षा तटस्थता है। प्रेक्षा तन्त्र है। प्रेक्षा समाधि है। प्रेक्षा समाधान है। प्रेक्षा योग है। प्रेक्षा धर्म है। प्रेक्षा अस्तित्व है। प्रेक्षा सत्य है। प्रेक्षा ज्ञान है। प्रेक्षा विज्ञान है। प्रेक्षा मित्र है। प्रेक्षा शक्ति है। प्रेक्षा भक्ति है। प्रेक्षा आनन्द है। प्रेक्षा प्रमाण है। प्रेक्षा प्रेरणा है। प्रेक्षा पूर्णता है। प्रेक्षा सुरक्षा है। प्रेक्षा परीक्षा है। प्रेक्षा दीक्षा है। प्रेक्षा समीक्षा है। प्रेक्षा जीवन को उन्नत बनाने का अनुपम ग्रन्थ है। प्रेक्षा अन्तर दृष्टि है। प्रेक्षा राग-द्वेष रहित वर्तमान क्षण है। प्रेक्षा राग की पीड़ा और विद्वेष की आग के मध्य समता की शांत सरिता है। प्रेक्षा अन्तर् की प्रखर ज्योति है। जिससे अनन्त-अनन्त काल से ठहरा हुआ सघन अन्धकार सब विलीन हो जाता है। प्रेक्षा वह सजग प्रेरणा है जो प्राणी में नव-स्पन्दन उत्पन्न कर देती है। प्रेक्षा वह संजीवन है जिससे मानव को पुनः जीवित किया जा सकता है। प्रेक्षा वह गारूडी विद्या है, जिससे कठोर नाग पाश बन्धन से बन्धे हनुमान को मुक्त किया जा सकता है। प्रेक्षा स्वतंत्रता है। प्रेक्षा आत्मतन्त्र है। प्रेक्षा सजगता है। प्रेक्षा के प्रयोग का तात्पर्य है यथार्थ का अनुभव करना यथार्थ का अनुभव सत्य का साक्षात्कार है। ___ सत्य छोटा सा शब्द है, किन्तु अनन्त-अनन्त गहराइयों को अपने में सिमेटे हुए हैं। सत्य का उद्घाटन केवल श्रम से नहीं साधना से होता है। साधना भी श्रम है, पुरुषार्थ है, साधना स्वयं सत्य है जो अन्त में साध्य में परिवर्तित हो जाता है। प्रेक्षा साध्य भी है साधन भी। प्रेक्षा चित्त शुद्धि का सरल मार्ग है। प्रेक्षा से ऋजुता फलित होती है। प्रेक्षा से मृदुता फलित होती है। प्रेक्षा से लघुता फलित होती है। प्रेक्षा से सत्य फलित होता है। प्रेक्षा से शील फलित होता Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ प्रेक्षा की अर्थ यात्रा है। प्रेक्षा संयम है। प्रेक्षा तप है । प्रेक्षा ब्रह्म है। प्रेक्षा सतत् प्रवाही शीतल गंगा है। जो जीवन के पाप व ताप का हरण कर वृत्तियों को शीतल और शांत बना देती है 1 प्रेक्षा धर्म का प्रायोगिक स्वरूप है। प्रेक्षा व्यवहार शुद्धि की प्रक्रिया है जीवन विकास, भाव परिवर्तन और व्यक्तित्व निर्माण की ओर अग्रसर करने में प्रेक्षा का अपना उपक्रम है। आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षा के प्रयोगों को विज्ञान की कसौटी पर कस कर उसको सार्वजनिक हितेषि बनाया है । जीवन-विज्ञान शिक्षा प्रेक्षा का एक नया अवदान है। जीवन-विज्ञान जीने की कला का प्रायोगिक स्वरूप है। शांत, सुखद और श्रेष्ठ जीवन के शिक्षण और प्रशिक्षण से समाज में दिव्यता प्रकट हो सकती है । अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री तुलसी एवं युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ का यह स्पष्ट अभिमत है कि वर्तमान की शिक्षा-प्रणाली खराब नहीं अपितु अपूर्ण है । यदि शिक्षा-प्रणाली गलत या खराब होती है तो इस शिक्षा द्वारा निकले स्नातक निपुण और श्रेष्ठ कैसे होते ? डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, विभिन्न विषयों के विज्ञानी कैसे अपने-अपने विषयों में अग्रसर होकर नए-नए कीर्तिमान स्थापित करते हैं । यह कौशल शिक्षा की बदौलत ही है । शिक्षा का अपना कोण है, अपनी आवश्यकताएं, अपनी दृष्टि है। उसके अनुरूप ही उसका विस्तार होता है। शिक्षा को ग्रहण करने वालों की भी अपनी अपेक्षाएं होती हैं। शिक्षा और शिक्षार्थी, शिक्षा संस्थान और सरकार ऐसा वृत्त बन गया है जिससे व्यक्ति और समाज का कल्याण और अकल्याण का प्रश्न नहीं । बल्कि संस्थान और सरकार स्वयं के हितों के सम्बन्ध में अधिक सोचती है। जिसका परिणाम यह होता है कि शिक्षा सत्ता को स्थिर एवं हथियाने के उपयोग में आने लगी है । शिक्षा को संस्थानों के व्यवसाय और सरकार से मुक्त रख कर स्वतंत्र रूप से व्यक्तित्व के निर्माण और भावात्मक विकास के लिए प्रयुक्त किया जाए तो सृजन का नया दौर प्रारम्भ हो सकता है। जीवन-विज्ञान शिक्षा में स्वतंत्र विद्या के रूप में प्रारम्भ होकर जीवन को सर्वांगीण बनाने में सहायक बनने का प्रयत्न कर रहा है। ०००० Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्य, प्रसन्नता और प्रेक्षा बालक के प्रसन्न चेहरे में परमात्मा के दर्शन होते हैं। यह वाक्य जहां प्रसन्नता की महत्ता को दिग्दर्शित करता है, वहां परमात्मा के आनंद स्वरूप की ओर भी संकेत करता है। परमात्मा पद को प्राप्त करने का एक मार्ग है-प्रसन्नता। प्रसन्नता भाव या एक अवस्था है। जो निर्मल अवस्था में आ जाता है वही प्रसन्न होता है। प्रसन्नता का दूसरा अर्थ है-स्वच्छता। प्रसन्न आकाश को निर्मल स्वच्छ आकाश कहा गया है। व्यक्ति की चेतना आकाश की तरह निर्मल होती है किन्तु व्याधि, आधि, उपाधि से उसमें मलीनता आ जाती है। उसका परिणाम है-अस्वास्थ्य। अस्वास्थ्य के अनेक रूप हैं-शारीरिक, मानसिक और भावात्मक । अस्वास्थ्य के निवारण से प्रसन्नता को प्रकट करने का अवसर मिलता है। प्रसन्नता और हर्ष में मौलिक अन्तर है। प्रसन्नता चित्त की निर्मलता है। हर्ष मन का आवेग है। हर्ष का कारण होता है, फिर चाहे वह भौतिक वस्तु हो अथवा अभौतिक हो, घटना और वस्तु के परिवर्तन के साथ चित्त में परिवर्तन होने लगता है। प्रसन्नता में बाह्य वस्तु का सीधा सम्बन्ध नहीं रहता। आधि, व्याधि, उपाधि से उत्पन्न अस्वास्थ्य का निराकरण कैसे किया जाए? जो किसी कारण से उत्पन्न होता है, उसके निवारण से वह दूर हो जाता है। शरीर स्थूल है। उस पर उतरने वाली व्याधि स्पष्ट व्यक्त होती है। स्थूल रूप से होने वाली व्याधि में मूल रूप में आधि और उपाधि भी निमित्त बनती है। कोई भी अस्वास्थ्य सबसे पहले भावों में, भावों से मन में, और मन से शरीर पर आता है। स्वास्थ्य की पहली पहचान प्रसन्नता है। प्रसन्नता चित्त की निर्मलता का प्रतीक है। स्वास्थ्य के सम्बन्ध में जितनी भी परिभाषायें उपलब्ध हैं उनमें विधायक की अपेक्षा निषेधात्मक अभिव्यक्ति अधिक है। रुग्णता का अभाव Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्य, प्रसन्नता और प्रेक्षा स्वास्थ्य नहीं हो सकता। स्वास्थ्य स्वयं की उपस्थिति और अभिव्यक्ति है। वह किसी अभाव की स्थिति नहीं है। स्वास्थ्य का भाव (अवस्था) स्व-स्थ अर्थात् स्वयं में ठहरना स्वास्थ्य है। 'स्वस्मिन् तिष्ठति इति स्वस्थः, जो अपने आप में ठहरता है, अपने स्वरूप में ठहरता है वह स्वस्थ है। स्वस्थ व्यक्ति ही आनंदित रह सकता है। आनंदित रहने वाला ही स्वस्थ हो सकता है। आनंद ही जीवन की आकांक्षा है, अभीप्सा है और ध्येय है। स्वास्थ्य केवल शरीर तक ही सीमित नहीं है। स्वास्थ्य जीवन का सर्वांगीण तत्त्व है जिसे उपलब्ध हुए बिना साध्य को उपलब्ध नहीं हो सकतें। शारीरिक स्वास्थ्य वह साधन है जिसकी सीढ़ी पर चढ़कर ही मानसिक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य को उपलब्ध किया जा सकता है। शारीरिक स्वास्थ्य स्थूल तत्त्व है, किन्तु उसके बिना मानसिक स्वास्थ्य कैसे पाया जा सकता है। मानसिक स्वास्थ्य के अभाव में अध्यात्म का अंकुर कैसे प्रस्फुटित हो सकता है। शरीर मन एवं अध्यात्म तीनों के समन्वय से ही एक आदर्श व्यक्तित्व का प्रगटीकरण होता है। द्वेष, कामेच्छा, विषाद, निराशा केवल मानसिक कठिनाई नहीं है, स्नायु दुर्बलता से भी ये हो सकती हैं। स्नायु दौर्बल्य से ग्रसित व्यक्ति भी इन कठिनाइयों से गुजरता है। इन सबसे मुक्त होने का सरल मार्ग प्रसन्नता है। प्रसन्नता कोई ऐसी स्थिति नहीं है जो औषधि से प्राप्त की जा सके। प्रसन्नता शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का पुष्प है। प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए शरीर के स्वास्थ्य पर ध्यान देना होता है। शरीर की रुग्णता में प्रसन्नता प्रस्फुटित नहीं हो सकती। प्रसन्नता प्रयास से भी प्रकट नहीं हो सकती। वह अन्तर् स्वास्थ्य से विकसित होने वाली सुगन्ध है। प्रेक्षा चैतन्य की वह शक्तिशाली किरण है जिससे मूर्छा से आया आवरण तत्क्षण क्षीण हो जाता है। प्रेक्षा वह पवन है जिससे नीलगगन में मंडराये बादल एक साथ तिरोहित हो जाते हैं। प्रेक्षा वह तीसरा नेत्र है जिससे विकृतियां विलीन हो जाती हैं। केवल समता ही समता शेष रहती है। समता की कोई सीमा नहीं होती। वह असीम है, उसमें जीने वाला भी असीम हो जाता है। प्रसन्नता को प्रगट होने के लिए जो बाधाएं हैं, उन्हें हटाना आवश्यक है। प्रसन्नता की बाधा बाहर नहीं, भीतर है। अक्सर किसी कठिनाई का कारण Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ प्रज्ञा की परिक्रमा स्वयं पर न लेकर दूसरों पर आरोपित कर देते हैं। यह आरोप यथार्थ नहीं है। बाधा, परिस्थितियां अन्तर शक्ति के समाने इतनी महत्वपूर्ण नहीं है। बाधाओं का कुछ प्रभाव होता हैं, किन्तु सर्वथा यह मान बैठना कि परिस्थितियां ही ऐसी थीं, यह और निराशा को उत्पन्न करने वाला है। जब अज्ञान के वशीभूत व्यक्ति का दृष्टिकोण मिथ्या हो जाता है तब वह सच्चाई की यात्रा कैसे करेगा! प्रसन्नता का संपन्नता से कोई गठबन्धन नहीं है। प्रसन्नता का स्वयं अपना अस्तित्व है। वह किसी के होने और न होने से सम्बन्धित नहीं है। प्रसन्नता तो पदार्थ सापेक्ष भी नहीं है वह प्रमुदित भाव से विस्फुटित होने वाला क्षण है। प्रमोद भाव से प्रसन्नता को प्रगट होने का अवसर मिलता है। पूर्ण प्रसन्नता का अवतरण चित्त की निर्मलता, कषाय की उपशान्ति और राग-द्वेष के विलय से ही हो सकती है। प्रसन्नता प्राप्ति के लिए किसी विधि ओर व्यवस्था की अपेक्षा नहीं होती। उसे विधि और अविधि से नहीं पाया जा सकता। यह विधि अविधि के पार का क्षण है। प्रेक्षा स्व का निरीक्षण है। प्रेक्षा आत्मा का अवलोकन है। प्रेक्षा जागरूकता है। प्रेक्षा राग-द्वेष रहित क्षण का अनुभव है। प्रेक्षा निर्मल चेतना की किरण है। प्रेक्षा केवल ज्ञान है, केवल दर्शन है। प्रेक्षा अनावृत चैतन्य है। प्रेक्षा साधन हैं। साध्य है। प्रेक्षा प्रसन्नता है, पवित्रता है। ०००० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं से पर को देखो प्रेक्षा का सूत्र है 'आत्मा से आत्मा को देखें ।' आत्मा से आत्मा को देखें? क्या देखें ? कैसे देखें ? स्वयं से स्वयं को देखें, कैसे देखें ? बड़ा विचित्र लगता है। व्यवहार के परे के सूत्र दिए गए हैं। बुद्धि की समझ में भी नहीं आ रहा है कि आत्मा से देखने की क्रिया कैसे घटित होगी ? आत्मा जब अरूपी है तो अरूप से अरुप को कैसे देखा जा सकेगा ? द्रष्टा से दृश्य को देखा जा सकता है। स्व से पर को देखा जा सकता है, पदार्थ से पदार्थ को देखा जा सकता है। रूप से रूप को देखा जा सकता है। जो सहज है, प्रतिदिन, प्रतिक्षण व्यक्ति उस क्रिया को संपन्न कर रहा है। तब भला वह विपरीत क्रिया को कैसे करेगा ? किसी महान् पुरुष के कहने से कुछ कर भी लेगा तो उसका परिणाम क्या आएगा? दर्पण में आकाश की प्रतिछाया लेने से क्या उपलब्धि होगी? उसमें व्यक्ति को कोई रस भी नहीं 'स्वयं से स्वयं को देखो' हजारों-हजारों वर्ष व्यतीत हो गए इस सूत्र को श्रवण करते। मानव समाज आज भी वहीं खड़ा है परागमुखता का सूत्र लिए। __ व्यक्ति को पर-दर्शन में जो मजा आता है वह स्व-दर्शन में कहां ? व्यक्ति को पर-चर्चा में रस आता है वह स्व-चिंतन में कहां ? व्यक्ति की रचना में यह तथ्य कूट-कूट कर भरा है कि वह पर-दर्शन, पर-चर्चा, पर-चिन्तन ही ज्यादा करता रहता है। प्रेक्षा शिविर में जब ध्यान-दीक्षा के समय संकल्प सूत्रों को दोहराया जाता है 'अब्भुट्टिओमि आराहणाए' मैं प्रेक्षा-ध्यान साधना की उपसंपदा स्वीकार करता हूं। 'मग्गं उवसंपज्जामि' में अन्तर-दर्शन की उपसंपदा स्वीकार करता हूं। व्यक्ति की आकांक्षा एक दिशा में प्रवृत्त होती है तो उसका संकल्प और व्यवहार दूसरी दिशा की ओर गतिशील बना रहता है। आकांक्षा और Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० प्रज्ञा की परिक्रमा व्यवहार की दूरी व्यक्ति को इस तरह छलती है कि व्यक्ति ठगा-सा रह जाता है। संकल्प को प्रतिदिन दुहराता है, लेकिन व्यवहार उसके विपरीत ऐसे चलता है जैसे नदी में भंवर । बेचारा इस भंवर में ऐसे फंसता है कि भूलकर भी दुबारा संकल्प करने का साहस ही नहीं करता । भूलकर संकल्प कर लेता है, तो उसे तोड़, हीन भावना से ग्रसित हो जाता है। संकल्प न करने का संकल्प भी दुर्बल चित्त नहीं दुहरा पाता । उपसंपदा के सूत्रों को लेकर जब वह व्यवहार में उतरता हे तब देखता है भावक्रिया कह रही है वर्तमान में जीएं। जो करें, जानते हुए करें, ध्येय के प्रति सतत अप्रमत्त रहें, किन्तु चित्त अतीत की स्मृतियों में खोया क्लान्त हो रहा है। उसने मुझे कैसे यह कहा, उसने ऐसा क्यों किया ? एक साथ ही भविष्य की कल्पनाओं में खोया नाना स्वप्न संजोता है कि ऐसा हो जाए तो अच्छा, वैसा हो जाए तो अच्छा। वर्तमान में चित्त रहना ही नहीं चाहता । वर्तमान को अतीत और भविष्य की उघेड़बुन में खो देता है। क्रिया पर ध्यान गया तो लगा जो कुछ घटित हो रहा है, वह सब बिना कुछ सोचे समझे होते जा रहा है। जानते हुए करने की बात हवा में उड़ गई। फिर ध्येय के प्रति चित्त को समर्पित रखने का चिन्तन किया तो महान् आश्चार्य ! चित्त को मालूम ही नहीं निर्मलता भी उसका ध्येय है। जब चित्त को ज्ञात ही नहीं अपने ध्येय का तब भला कैसे वह निर्मलता की ओर गति करेगा । ध्येय तो बनाया है निर्मलता का और चित्त प्रतिक्षण बह रहा है। मलिनता की ओर । वह भी बिना किसी कारण के मानो उसका स्वभाव ही मलिनता है । में उपसंदा के दूसरे सूत्र की ओर ध्यान गया तब लगा कि कहीं सूत्र कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गई है। क्रिया करें, प्रतिक्रिया न करें परन्तु जो कुछ घटित हो रहा था वह था प्रतिक्रिया करें क्रिया न करें। किसी भी छोटी से छोटी क्रिया की प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया ही हो रही थी। जिन अन्त हीन प्रतिक्रियाओं की प्रतिक्रियाओं से चित्त गुजर रहा था तो विवेक का विश्वास ही नहीं हो रहा था यह भी कोई सूत्र है क्रिया करें, प्रतिक्रिया न करें। मैत्री की महिमा मन को मधुर लगती है किन्तु वृत्तियों में कुछ और ही उभरकर आ रहा था। जिससे नाना प्रश्न स्फूर्त हो रहे थे। क्या मैत्री भी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं से पर को देखें ७१ की जा सकती है ? वह भी कोई करने की क्रिया है अन्तर् में निर्मलता से स्फूर्त होने वाली घटना है। मैत्री के लिए क्यों कहा जाता है। वैर के लिए कोई उपदेश नहीं देता फिर भी वह हर क्षण स्फूर्त होता रहता है। वह परिचित और अपरिचित का कोई अन्तर् नहीं करता। सब जगह समान रूप से उभरकर अभिव्यक्त होता है। कषाय की कलुषित वृत्तियों की गांठें ऐसी परिपक्व होती जाती हैं सुलझने का नाम ही नहीं लेती। भोजन खाने वाली तुच्छ वस्तु के लिए व्यक्ति पशु की तरह कुपित हो जाता है, उसका चिर पोशित पशुत्व जागकर बाहर आ जाता है। वह सोचता है कि मुझे मिताहारी रहना चाहिए। उसकी चर्चा का प्रमुख विषय रहेगा मिताहार और खाएगा वह ढूंस-ठूस कर । जब कभी सामूहिक भोज व्यवस्था में उसे पता लग जाए कि किसी विशिष्ट पदार्थ का भोजन में अभाव हो गया है तब तो उस पदार्थ के सिवाय अन्य वस्तुओं को वह खाएगा ही नहीं। उस पदार्थ की उसे उपलब्धि न हो तो वह चर्चा, निंदा ओर गाली-गलौच तक की स्थिति में आ जाता है फिर प्रतिक्रिया, हिंसा, प्रतिहिंसा का रूप धारण हो जाता है। मौन ओर मितभाषण में उसे रस ही नहीं आ रहा है। जैसा बातों में रस आता है वैसा रस दुनिया के किसी पदार्थ में नहीं है। इसलिए वह मौन को छोड़कर वाचालता को स्वीकार करता है, क्योंकि उसमें रस है लगाव है। इसलिए आध्यात्मिक रस का परित्याग कर बतरस में ही लगा रहता है। सूचना और संकेतों पर जब ध्यान जाता है तब क्षणिक वैराग्य अभिव्यक्त होता है। वह बुद्धि के स्तर पर चलता है किन्तु अन्तरंग जीवन में कुछ भी घटित नहीं होता क्योंकि उसे जो कुछ उपलब्ध है वह शब्द-जंजाल ही है। शब्द की रोटी से क्या किसी की क्षुधा शान्त होती है ? जब तक चेतना के स्तर पर अध्यात्म प्रस्फुटित नहीं होता। व्यक्ति केवल काल्पनिक ख्यालों से ही जीता रहता है। अध्यात्म का जागरण मूर्छा टूटने से ही होता है। मूर्छा तोड़ने की प्रक्रिया का ज्ञान चेतना के अनावरण से होता है। चेतना के अनावरण की प्रक्रिया ही साधन है, ध्यान है। चित्त की वृत्तियों का निरोध है। चित्त वृत्तियों के निरोध अथवा एकाग्रता के लिए प्रयोग एवं अभ्यास किया जाता है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ प्रज्ञा की परिक्रमा विशुद्ध क्षणों को निरन्तर बनाए रखना ही साधना है, सिद्धि है, जागरूकता है। जागरूक-व्यक्ति, पर को नहीं स्वयं को देखता है मूर्छित-व्यक्ति पर-प्रेक्षा करता है स्वयं से पर का निरीक्षण । उससे उपलब्ध होता है कषाय चतुष्क, जिसका परिणाम होता है अशान्ति। ०००० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विज्ञान : शिक्षा का अभिनव आयाम दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में शिक्षाविदों की एक संगोष्ठी चल रही थी। विषय था "योग का शिक्षा में प्रयोग" | योग की उपयोगिता निर्विवाद है। योगासन से बालक का शारीरिक, मानसिक विकास हो सकता है। आसन के प्रयोग से बालक-बालिकाओं का स्वास्थ्य अच्छा होता है साथ ही उनमें अनुशासन की भावना का भी विकास होता है। उनके सम्मुख यह कठिनाई आ रही थी कि आसनों के अनेक नाम तो पशु-पक्षियों जैसे-मयूर आसन, शशांकासन, भुजंगासन, मत्स्यासन है लेकिन मुख्य आसन का नाम सूर्य नमस्कार है। "सूर्य नमस्कार" नाम कैसे रह सकता है ? धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में ऐसा कैसे हो सकता है ? अन्ततः कल्याणकारी योजना रद्द हो गई। केवल सूर्य नमस्कार के नामकरण के कारण ऐसा हुआ। धर्म-निरपेक्षता की अजीब दृष्टि है। बालपोथी में वर्णमाला में चित्रांकित वर्गों में "क" को कबूतर से परिचित कराया गया। "ग" को गणेश से। आश्चर्य तब हुआ जब शिक्षाविदों ने इसका विरोध किया और अन्त में "ग" का परिचय गधा चिनहित हुआ। तब शालाओं में वह पुस्तक पाठ्यक्रम में स्वीकृत हुई। गणेश धार्मिक हो गया। गधा धर्मनिरपेक्ष । गणेश और गधे का प्रश्न नहीं है। प्रश्न यहां यह है कि शिक्षाविदों के मानस भी किस तरह तथ्यहीन तत्वों में केन्द्रित हो जाते हैं। धर्म निरपेक्षता का तात्पर्य यदि धर्म शून्यता है तब तो अत्यन्त कठिनाई होगी। धर्म यदि जीवन और व्यवहार से निकाल दिया जाए तो किस आधार से व्यक्ति टिकेगा। व्यक्ति और समाज का सामंजस्य धर्म के तत्त्वों से ही हो सकता है। धर्म के आधारभूत तत्त्वों के बिना संघर्ष और अंत ही निश्चित है। धर्म निरपेक्षता का तात्पर्य धर्म निरपेक्षता का तात्पर्य सम्प्रदाय रहित धर्म । भारत गणतंत्र है जिसमें अनेक धर्म, भाषा और संस्कृति है किसी को किसी संस्कृति को स्वीकृत करने से रोका नहीं जा सकता। सबको अपने-अपने विचारों का प्रसार करने का हक है। विचार स्वातंत्र्य गणतंत्र का मूल आधार है। धर्म की स्वीकृति स्वेच्छिक Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ प्रज्ञा की परिक्रमा है। भारत सरक्यूलर-स्टेट (सम्प्रदाय-निरपेक्ष) राज्य है अर्थात् भारत में किसी एक धर्म की राज्य स्तर पर कोई मान्यता नहीं है। भारत गणराज्य में सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार है वे किसी एक धर्म विशेष को विशेष स्थान नहीं देते हैं। संविधान में भारत गणराज्य को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया। संविधान इंलिश भाषा में था जिसका तात्पर्य स्पष्ट था, किन्तु हिन्दी में अनुवाद करते गड़बड़ा गया। सम्प्रदाय निरपेक्ष के बजाय धर्म निरपेक्ष हो गया। जिससे ये सारी समस्याएं जटिल रूप धारण कर सामने आई। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का विकास शिक्षा का मूल उद्देश्य है--व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक गुणों को विकसित करना। शरीर और बुद्धि को प्रशिक्षित करने शिक्षा में सम्पूर्ण व्यवस्था है किन्तु मानसिक और भावनात्मक विकास की ओर ध्यान नहीं दिया गया। शरीर, मन, बुद्धि और भाव का असन्तुलन ही समस्याओं का जनक है। इस असन्तुलन का परिष्कार ही जीवन विज्ञान का उद्भव है। जीवन विज्ञान के संयोग से शिक्षा जगत् में संतुलन और परिष्कार आ सकता है जिससे व्यक्ति और समाज का समुचित विकास संभव है। शिक्षा की समस्या शिक्षा व्यक्ति को अच्छे से अच्छा वैज्ञानिक, डाक्टर, इंजीनियर, वकील बना रहा है। उनकी योग्यता में किसी को संदेह नहीं। अच्छे से अच्छा डाक्टर अथवा वैज्ञानिक पद अथवा मन के अनुकूल यदि नहीं हुआ तो वह किस तरह आत्महत्या अथवा अन्य समस्याएं पैदा कर रहा है। यह किससे छुपा है निराश अथवा असहिष्णु बनकर स्वयं के साथ आत्मघाती कार्य कर बैठते हैं, या फिर हिंसा, तोड़-फोड़ और अनुशासनहीन बनकर समाज और राष्ट्र के लिए सिरदर्द का कार्य करते हैं। इन समस्याओं से प्रताड़ित होकर समाज और राष्ट्र ने समाधान के लिए शिक्षा के परिवर्तन की चर्चा की। अनेकानेक आयोग इसके लिए नियुक्त किये गये, किन्तु कुछ निष्कर्ष यथार्थ में उपलब्ध नहीं हुए क्योंकि समस्या के मूल को वे पकड़ नहीं पा रहे थे। जब तक समस्या के मूल को पकड़ा नहीं जाए केवल उसकी टहनी और डालियों को काटने Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-विज्ञान शिक्षा का अभिनव आयाम ७५ से समाधान नहीं हो सकता। समस्या का मूल व्यक्ति के अन्तर भाव और मानस में हैं। भाव और मानस को रूपान्तरित कर ही समाधान किया जा सकता है। बीज बिना फल की आकांक्षा __ आचार्य श्री तुलसी और युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ने अपने विचारों को अभिव्यक्ति देते हुए कहा-"आदमी चारित्रिक विकास देखना चाहता है. अनुशासन को प्रतिष्ठित देखना चाहता है, पर जब उनकी परिणति नहीं देखता तब सारा दोष शिक्षा प्रणाली पर डाल देता है। शिक्षा प्रणाली में जब चारित्रिक विकास के बीज ही नहीं हैं, अनुशासन लाने के तत्त्व ही नहीं हैं ? तब उनकी परिणति साक्षात कैसे होंगी? ये प्रयत्न बीज के बिना फल पाने जैसे हैं। यदि शिक्षा प्रणाली में चरित्र और अनुशासन के बीज हों फिर निष्पत्ति न आए तो चिन्ता का विषय हो सकता है। बीज होने पर ही फसल न हो किसान चिन्तित हो सकता है। पर बीज बोया ही नहीं और फसल की आशा लिए बैठना वज्र मूर्खता है। जीवन विज्ञान नया आयाम शिक्षा जगत् में जो असन्तुलन आ गया है। केवल शरीर और बौद्धिक विकास का प्रयत्न किया जा रहा है। मानसिक और भावनात्मक विकास को भूला दिया गया है। सन्तुलित विकास के लिए शरीर, बुद्धि, मन और भाव चारों के विकास की भूमिका शिक्षा को निभानी होगी। तब ही समाज में श्रेष्ठ व्यक्तिव का निर्माण किया जा सकता है। व्यक्तित्व निर्माण के मौलिक तत्त्वों पर ध्यान देकर अनेक क्रियान्वय की व्यवस्था करनी होगी। आज जो कुछ हो रहा है केवल कागजी कार्यवाही अथवा बुद्धि को विकसित करने का प्रयास मात्र लगता है। उसे बुद्धि के विकास की बजाय सूचना-संग्रह कहा जाए तो अधिक उपयुक्त होगा। शिक्षा मस्तिष्क को केवल एक कम्प्यूटर की तरह प्रयोग कर रही है। अधिक से अधिक सूचनाओं को ग्रहण करने वाला बड़ा विद्वान् और कुशल कहलाता है जबकि यह कार्य एक कम्प्यूटर मशीन अधिक कुशलता से कर सकती है। मनुष्य का महत्त्व इसलिए नहीं कि वह नाना समस्याओं के संकलन में कुशल है उसका गौरव तो इसमें है कि वह समस्याओं का समाधान कुशलता से कर समाज में शान्ति और व्यवस्था को कायम कर सके। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ प्रज्ञा की परिक्रमा जगत् आज राजनीति की क्रीड़ा स्थली बन रहा है। राजनीतिज्ञ समस्या के समाधान की बजाय अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने की दृष्टि अधिक रखता है। उसको शिक्षा, शान्ति और व्यवस्था से इतना मतबल नहीं। उसे तो अपनी कुर्सी से मतलब है लेकिन कुर्सी और सत्ता पर टिके हुए लोग इस बात को कैसे विस्मृत कर देते हैं कि व्यक्ति ही जब स्वस्थ नहीं होगा तो सत्ता और की कैसे स्वस्थ रह पाएगी। व्यक्ति की रुग्णता के साथ समाज और राष्ट्र जुड़ा हुआ है । राष्ट्र से विश्व जुड़ा हुआ है। पूरा ब्रह्माण्ड एक-दूसरे से संबंधित है एक की रुग्णता सम्पूर्ण जगत् को रुग्ण बना सकती है इसलिए व्यक्ति को स्वस्थ और चरित्रनिष्ठ बनाना अत्यन्त अपेक्षित है। जीवन-विज्ञान का फलित चरित्र को लाने के लिए शिक्षा में जीवन-विज्ञान अनिवार्य है। जीवन-विज्ञान ऐसी शाखा है जिसके द्वारा व्यक्ति को जीने की कला का प्रशिक्षण दिया जाता है। जीवन-विज्ञान क्या ? जीवन कैसे स्वस्थ, शांत और आनन्दपूर्वक जीया जा सकता है ? जीवन-विज्ञान ने शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए आसन-प्राणायाम की व्यवस्था दी। वहां सन्तुलित भोजन का भी चिन्तन किया गया है। सन्तुलित भोजन के साथ मानसिक तैयारी भी अपेक्षित है शरीर स्थूल है, सन्तुलित भोजन और अनुकूल श्रम मिलने से वह व्यवस्थित होने लगता है, किन्तु बुद्धि और मन सूक्ष्म है। बुद्धि और मन को कायोत्सर्ग और ध्यान द्वारा सन्तुलित बनाकर एक नवीन व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है। शरीर, बुद्धि, मन से भी नाजुक प्रश्न भावना के परिष्कार का है। भावना में दो और से कार्य करना होता है। एक और वह लेक्ष्या और कर्म संस्थानों के माध्यम से चेतना से संबंधित है दूसरी ओर ग्रंथियों के स्रावों से जुड़कर शरीर में नव सृजन के द्वार उद्घाटित करती हैं। इस प्रकार शरीर को असन्तुलित रखकर कर्म संस्थान और चेतना को अप्रभावित रखना अत्यन्त दुरूह है लेकिन जीवन-विज्ञान की प्रक्रियाओं से यह सुलभ है । जीवन-विज्ञान की नैतिकता धर्म और अध्यात्म की दृष्टि से देखना उसके साथ न्याय नहीं होगा। जीवन-विज्ञान इस घिसे-पिटे प्राचीन शब्दों से दूर हटकर स्वस्थ जीवन जीने की विद्या का स्वतंत्र रूप से प्रवर्तन है। जीवन-विज्ञान विश्व-विद्यालय में एक स्वतंत्र विद्या के रूप में विकसित होकर शिक्षा-जगत् Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ जीवन-विज्ञान शिक्षा का अभिनव आयाम को उपकृत कर नवीन समाज का सृजन कर सकेगा। जीवन-विज्ञान के प्रयोगों के परिणामों से ही पता चल सकेगा कि युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ द्वारा प्रदत्त जीवन-विज्ञान का नवीन आयाम व्यक्ति एवं जगत् को कितना उपकृत कर सकता है। यह भविष्य के गर्भ में ही अंकित है। अभी तो केवल यह आशंसा ही की जा सकती है कि जीव-विज्ञान के प्रयोग शिक्षा जगत् एवं जनता को प्रभावित करें। जीवन-विज्ञान का प्रयोग विद्यालय में जीवन-विज्ञान का प्रायोगिक परीक्षण राजस्थान शिक्षा विभाग द्वारा तुलसी अध्यात्म नीड्स के तत्त्वावधान में तेरह विद्यालयों में एक हजार से अधिक छात्रों पर राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (दिल्ली) परिणामों को संकलित कर रही है। प्राथमिकी विवरण आशाजनक आया है। सम्पूर्ण रिपोर्ट आने पर शिक्षा क्षेत्र में इसको आगे बढ़ाया जा सकेगा। वैज्ञानिक परिणामों की स्पष्टता से जीवन-विज्ञान के फलित स्वतः स्पष्ट हो जायेंगे। जीवन-विज्ञान परियोजना का स्वतः अंकन अध्यापक, अधिकारी एवं विद्यार्थियों ने तुलसी अध्यात्म नीड्स को प्रेषित किया है। उसके आधार से यह कहा जा सकता है कि यह परियोजना बालकों, अध्यापकों के व्यक्तित्व निर्माण ओर जीवन विकास में सहभागी बन सकेगी। यदि ऐसा होता है तो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किसी कल्याणकारी प्रवृत्ति को प्रारंभ न करना श्रेयस्कर नहीं कहा जा सकता। धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य जो उसकी भावना में है सर्व धर्म समभाव, सम्प्रदाय निरपेक्ष सर्व धर्म सद्भाव का अभ्युदय है। जिससे पूर्वाग्रह के बिना व्यक्ति स्वतंत्रतापूर्वक अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर सके। ०००० Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षा-ध्यान और मनोविज्ञान जगत् में मनुष्य एक विशिष्ट व्यक्तित्व है, उसे मन के द्वारा चिन्तन, स्मृति और कल्पना करने वाला तत्त्व मिला है। मन के द्वारा ही व्यक्ति अतीत की घटनाओं का संकलन करता है, वर्तमान में चिन्तन करता है और भविष्य में कल्पनाओं का तानाबाना सुनता है। मन के द्वारा विलक्षण क्षमता वाली एक ऐसी शक्ति मनुष्य को उपलब्ध हुई जिससे ज्ञान, विज्ञान सारी की सारी विद्याएं विकसित हुई हैं। मन की अपनी विशिष्टता है। मन से ही व्यक्ति प्रिय–अप्रिय, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ आदि संवेदनात्मक स्थितियों से गुजर कर नई-नई समस्याओं का सृजन करता है। मन तारक है, तो मन मारक भी है। मन नई-नई सृष्टि का सृजन कर मनुष्य को उन्नति के शिखर पर ले जाता है। वही मन विपरीत दिशा में चलकर अवनति का मार्ग दिखाता है। नाना संक्लेशों से स्वयं को पीड़ित बनाता है। मन सब कुछ होते हुए भी कुछ भी नहीं है। मन सारी सृष्टि का विस्तार है तो मन स्वयं में विलीन होते ही अस्तित्व का आधार बन जाता है। शास्त्रों में कहा गया है 'मनैव मनुष्याणां कारणंबन्ध मोक्षयोः' मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण है। मन है क्या ? स्मृति, चिन्तन और कल्पना का संयुक्त यंत्र ? क्या वह केवल कम्प्यूटर मशीन है जो निश्चित स्थितियों से गुजरकर मनुष्य को चिन्ता में पहुंचाता है या चिन्ता मुक्त करता है। मन भौतिक और चैतसिक मन दो स्थितियों से जुड़ा हुआ है। जहां तक स्मृति, चिन्तन और कल्पना का सवाल है यह यांत्रिक क्रिया है। मस्तिष्क के यंत्र में स्मृति का अंकन, चिन्तन की तरंगें और कल्पना के ग्राफ बनते हैं। उसे दोहराया जा सकता है। मन चैतसिक शक्ति से संबंधित होने से वह अभौतिक है। वह स्मृति, चिन्तन और कल्पना को संचालित करता है। मन की यह शक्ति चेतना से Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षा- ध्यान - मनोविज्ञान ७६ जुड़ी हुई है अतः मन चेतन है। चेतन मन के अनेक स्तर हैं । मनोविज्ञान में उन्हें (कान्सेंस, सब- कान्सेंस - अनकोन्सेंस) चेतन, अर्धचेतन और अवचेतन कहा जाता है । अवचेतन में संस्कारों का प्रगाढ़ खजाना होता है जिससे ही अर्धचेतन में संस्कार उभरते हैं । अर्धचेतन से चेतन जगत् पर संस्कार आते I हैं इस प्रकार यह वृत्त बन जाता है। चेतन मन किसी एक मस्तिष्क में ही सीमित नहीं रहता है। मस्तिष्क का ढांचा मन की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है जबकि चेतन मन संपूर्ण शरीर में परिव्याप्त है । प्रत्येक कोशिका चैतन्य से पूर्ण है। वह स्वतंत्र एवं संयुक्त रूप से कार्य करती है । चेतना की प्रवृत्ति से वस्तु और घटना के साथ सम्बन्ध होता है । यह सम्बन्ध राग-द्वेषात्मक परिणाम से चेतना पर आवरण लाता है। इस आवरण से चैतन्य आवृत होता है। यह आवरण ही चेतना, शक्ति, आनन्द में बाधक बनता है। इन आवरणों को अनावृत्त करना ही प्रेक्षा ध्यान का उद्देश्य है । प्रेक्षा- चैतन्य का विशुद्ध क्षण प्रेक्षा- ध्यान चैतन्य का विशुद्ध क्षण है। चेतना का यह उपयोग मन, शरीर पर उतर रही स्थितियों के प्रति राग-द्वेष से मुक्त रहता है। उससे प्राचीन कर्मों की निर्जरा होती है। नवीन कर्म का अनुबन्ध नहीं होता । प्रेक्षा- ध्यान चैतन्य जागरण की प्रक्रिया है । श्वास- प्रेक्षा से इसका प्रारंभ होता है। श्वास की जब सजगता से प्रेक्षा (निरीक्षण) करते हैं तब मन भी सहज रूप से शान्त होने लगता है। मन और श्वास एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। जब श्वास- प्रेक्षा का अभ्यास करते हैं तब विचार और कल्पना शान्त होने लगती है । प्रेक्षा से मन का परिष्कार मानसिक विचार को परिपुष्ट बनाने के लिए प्रेक्षा के प्रयोग अति आवश्यक है । प्रेक्षा से स्मृति चिन्तन और कल्पनाओं में परिष्कार होने लगता है । स्मृतिकोष में संचित घटनाएं अथवा विचार जब वर्तमान क्षण में उतरते हैं तब प्रेक्षा का अभ्यासी उनके प्रति यथार्थ दृष्टि का उपयोग करता है । घटना घट चुकी है, अतीत हो गई है उसमें कोई परिवर्तन नहीं आ सकता । प्रेक्षा का साधक यह अच्छी तरह से जानता है कि घटना को स्मरण में लाकर Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा वर्तमान में राग-द्वेष का अनुबन्ध किया जा सकता है, किन्तु उस घटना में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, तब कल्पना के आकाश में उड़ने वाले व्यक्ति को उस शून्य से क्या उपलब्ध होगा ? उससे यह स्पष्ट होता है अतीत की स्मृति और भविष्य की मात्र कल्पना है इसमें जिया नहीं जा सकता है, उसमें जीने की जो कोशिश है वह वर्तमान क्षण को भी विनष्ट करती है अर्थात् वर्तमान की उपलब्धि अतीत और भविष्य में विलीन हो जाती है । ८० प्रेक्षा- केवल- ज्ञान प्रेक्षा साधना कोई स्मृति विचार और कल्पनात्मक स्थिति नहीं, अपितु सजगतापूर्ण चैतन्य का केवल उपयोग (ज्ञान) है। केवल ज्ञानात्मक उपयोग जब राग-द्वेष से प्रभावित नहीं होता है तब उससे कर्म आकर्षित नहीं हो सकते। जब कर्मों का आकर्षण नहीं अर्थात् आश्रव नहीं तब उस शुद्ध उपयोगात्मक स्थिति में केवल संवर की स्थिति रहती है जिससे चेतना अबन्ध, परम - विशुद्ध बनती है । संवर के पश्चात् जो कर्म स्थिति उदय वाली है वह शरीर मन और चित्त पर प्रकंपन छोड़कर जर्जरित हो जाती है और इस प्रकार उदय व्यय के प्रति प्रेक्षा में साक्षी रहकर चैतन्य, विशुद्ध, विशुद्धतम बन जाता है। यही साधना का आधार और अन्तिम परिणमन है । ०००० Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति की खोज शान्ति की अभीप्सा हर व्यक्ति में है। वह शान्ति के लिए पुरुषार्थ करता है, किन्तु शान्ति कितनी उपलब्ध होती है, यह चिन्तनीय प्रश्न है। शान्ति की चाह उसमें है और आस-पास अशान्ति की प्रतिध्वनि-प्रतिध्वनित हो रही है तब शान्ति कैसे मिलगी ? अशान्ति के निवारण के कारणों की खोज नहीं की जाती है तो शान्ति उपलब्ध कैसे हो सकेगी? शान्ति, ज्ञान, आनन्द, शक्ति, चैतन्य के मूल गुण है। अपने स्वरूप की ओर चित्त की यात्रा स्वयं प्रेरित करती रहती है। मन में उठने वाले संकल्प-विकल्प के कारण क्या हैं ? चंचलता मन में उत्पन्न हो रही है या कहीं ओर से उतर रही है ? मन का स्वरूप मन क्या है ? सीधा और छोटा-सा सवाल हजारों प्रश्नावली के बावजूद भी समाहित नहीं हो पाता है। पता नहीं मन की यह चलाकी है या उसके स्वरूप को समझने में कठिनाई है। मन दो अक्षर का नाम होते हुए भी स्वयं और सबको परेशान किये हुए है। मन की इस गुत्थी को सुलझाने के लिए मन के स्वरूप पर चिन्तन करना होगा! शरीर--विज्ञानी मन को (mind) मस्तिष्क के रूप में देखता है। मन यान्त्रिक प्रविधि का संयुक्त रूप है। मस्तक में होने वाली स्मृति, कल्पना और चिन्तन की सक्रियता मन कहलाती है। मन को मस्तिष्क का हिस्सा मानकर उसकी क्षमता को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। मन यदि मस्तिष्क का भाग हो तो क्या मन हृदयस्थ है, हृदय का हिस्सा है। हृदय रक्त संचार की क्रिया को सक्रिय बनाने वाला मांसल अंग है। जिसमें प्रतिक्षण संकोच-विकोच से रक्त का संचार संपूर्ण शरीर में होता है। रक्त परिसंचरण को सक्रिय करने में जहां हृदय का योग है वहां मन का भी उस पर प्रभाव पड़ता है। हृदय, मन की चिन्ता, प्रसन्नता एवं काम, क्रोधादि अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तन से प्रभावित हुए बिना Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा नहीं रहता, इससे स्पष्ट है हृदय मन नहीं है। हृदय और मन में स्पष्ट भिन्नता ___ मन चेतना की शक्ति से जुड़ा हुआ है। चेतना के मुख्य दो गुण है-ज्ञान और दर्शन, ज्ञान उसके अनुभव करने की शक्ति है और जानने की शक्ति है। दर्शन से उसका साक्षात किया जाता है अर्थात् ज्ञान के द्वारा वस्तु का साकार स्वरूप देखा जाता है। वहां दर्शन द्वारा समग्र वस्तु का अनुभव किया जाता है। चेतना (आत्मा) के ज्ञान का उपयोग मन द्वारा भी किया जाता है। इन्द्रिय आदि की विभिन्न प्रवृत्तियों में रसात्मकता पैदा करता है। मन शरीर का ऐसा कोई भौतिक अंग नहीं, किन्तु चेतना की वह शक्ति जो मनोवर्गणा के परमाणुओं को शरीर से ग्रहण कर मनोयोग द्वारा अपना कार्य करता है। इसलिए वह शरीर का अंग भी बन जाता है। मन, शरीर के चित्र भी लिए जाते हैं। इसलिए वह भौतिक भी हो जाता है। मन और शक्ति विचार ____ मन का स्थूल रूप विचार के रूप में अभिव्यक्त होता है। विचार मन का वह शक्तिशाली स्रोत है जिसके द्वारा वह जगत् को प्रभावित करता है। विचार की चंचलता ही जगत् और स्थिरता है ध्यान । विचार मन की अशब्द तरंग का नाम है। विचार जब भाषा का रूप धारण कर लेता है, तब वह शब्द बनता है। उच्चारित शब्द भाषा बन जाता है अर्थात् वाक् की प्रवृत्ति कहलाती है। ___भाषा वाक् प्रवृत्ति का शब्द बनकर कर्ण द्वारा मस्तिष्क में जाकर पूरे चक्र को संचालित कर देती है। विचार की चंचलता विकल्प है। विचार की चंचलता का तात्पर्य है मन का विभिन्न विषयों पर बिखर जाना। विचारों पर विवेक का नियमन न होना ही विकल्प है। विकल्प का निरोध कर सद्विचारों को अवतरित करना संकल्प है। सद्विचार को निरन्तर एक रूप से अभिव्यक्ति देना संकल्प है। संकल्प की पवित्रता भावना पर निर्भर करती है। भावना और मन भावना सद् असद् दोनों प्रकार की होती है। भावना से विचार प्रभावित होता है। विचारों को प्रभावित करने वाली सद्भावना से मन को परिष्कृत Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांति की खोज किया जाता है। भावना की पुनः-पुनः अवधारणा से मन पुष्ट बनता है मन की पुष्टी से विचार की लयता बनती है। विचार की लयता से मन शक्तिशाली होता है। भावना द्वारा मन प्रभावित होता है। उसे जिस दिशा की ओर गति देनी होती है उसी ओर उसको भावित किया जाता है। विभिन्न विषयों की आसक्ति में डूबे मन का कारण असद् भावना ही है। मन अन्तर् कषायों से भावित होता है। उसके अनुरूप अपने भाव को ढाल देता है। मन से कोई कब तक कैसे लड़े ? मन का मन से लड़ना या उसे मारने की बात कैसे हो सकती है ? वह मनोवर्गणाओं के परमाणुओं से निर्मित होता है जिससे हम मनन, चिन्तन करते हैं; परिणमन से ये स्थूल बन जाती हैं जिसे विशेष कैमरों से चित्रित एवं अंकित किया जा सकता है। ____ भावना की तरंगें मन से सूक्ष्म होती हैं। मन की तरंगें वाक् और काया को प्रभावित करती हैं। उन सब को प्रभावित करने वाली भावना ही योग है। भावना लेश्या, अध्यवसाय, कर्म परिणाम आदि विभिन्न अवस्थायें हैं । भावना लेश्या से प्रभावित होती है। लेश्या अध्यवसाय से, अध्यवसाय कर्मपरिपाक से प्रभावित होते हैं। इस प्रकार यह चक्र संचालित होता है। मन को मारे नहीं उबारे अर्थात् समझें . मन को मारने की चर्चा कुछ लोग करते हैं किन्तु मन को मारने की बात के साथ यह चिन्तन आवश्यक होगा कि मन मारा कैसे जाए? मन कोई पशु या प्राणी नहीं जिसे मार दिया जाए। मन केवल भौतिक भी नहीं जिसे जलाया जाए या नष्ट किया जाए। मन की निंदा, विभिन्न ग्रन्थों में भरपूर है। हजारों-हजारों लोगों ने मन को लंपट, चोर, शैतान कहने में कोई कसर नहीं छोड़ी । क्या मन दुष्ट, शैतान ही है या अशुभ ही है? कहीं उसमें शुभ संकल्प भी उत्पन्न होते हैं ? मन में जो अशुभ संकल्प उठते हैं। क्या मन ही उसका कारण है या उसको प्रभावित, प्रेरित करने वाले दूसरे कारण भी हैं ? इसकी मीमांसा करने पर कुछ और तथ्य सम्मुख आते हैं। मन में उठने वाली तरंगें केवल अशुभ ही नहीं होती, शुभ भी होती हैं अशुभ तरंगें वाक्, शरीर को प्रभावित करती हैं। तब शुभ तरंगें क्यों नहीं प्रभावित करेंगी। __ अशुभ और शुभ मन के बनने में योग, लेश्या, अध्यवसाय एवं कर्म परिणाम से प्रेरणा मिलती है। जीवन-चक्र को संचालित करने में किसी एक की ही Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ प्रज्ञा की परिक्रमा क्षमता नहीं होती। शुभ, अशुभ दोनों की अपेक्षा होती है। संयोग से मन भी शुभ और अशुभ बनता है। कर्म संस्कारों के साथ उसको व्यवस्था भी प्रभावित करती है। अशुभ मन को शुभ बनाने के लिए, मन को अमन बनाने के लिए पिछले कारणों की खोज आवश्यक है। मन तो उनके द्वारा भेजी गई तरंगों का वाहक मात्र है। वीतराग (अर्हत्) के मन में होता है, किन्तु वे उसका उपयोग सामान्यतः नहीं करते। वे आत्म-प्रदेशों से ही वस्तु का साक्षात् कर लेते हैं। चेतना के प्रदेश पारदर्शी बन जाते हैं। अतः यहां मन की अपेक्षा नहीं रहती। मन को मारने, दबाने की बात ही मन की है। वह भी मन का भाग है। मन की यह तरकीब है। तुम करो, विचारो, सोचो, पक्ष में, विपक्ष में अपने आपको जीवित रखने की यह अन्तिम तरकीब है। मन अमन नहीं होना चाहता। मन अन्तिम क्षण तक स्मृति, चिन्तन, कल्पना चाहे वह संसार की हो अथवा मोक्ष की, आत्मा की, परमात्मा की, दुःख की या सुख की इससे कोई अन्तर नहीं आता। मन का विलय कैसे हो ? अमन कैसे हो ? मन का विलय, अमन, बड़ा टेढ़ा लगता है किन्तु यह इतना टेढ़ा नहीं है जितना इसको टेढ़ा जाना गया है। विकासशील प्राणी की एक उपलब्धि मन है। मन मनुष्य के बन्धन का ही कारण नहीं, अपितु वह बन्धन विमुक्ति का भी पथ प्रशस्त करता है। अशुभ मन अशुभ बन्धन में ले जाता है। दूसरी ओर शुभ मन कर्म निर्जरा के साथ शुभ कर्म का बन्धन भी करवाता है। अशुभ एवं शुभ से आगे बढ़कर जहां मन का विलय होता है; वह किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं होता अपितु कर्म का निरोध (संयम) हो जाता है। कर्म का निरोध ही विशुद्ध अवस्था है। जैन-पारिभाषिक शब्द संवर है। संवर के कई स्तर हैं जिसमें मन का संयम होता है। वह मनोगुप्ति या मन का संवर है। मन की तीन अवस्था-स्मृति, चिन्तन और कल्पना से आगे केवल अस्तित्व का अवबोध अमन है। निर्विचार का एक अर्थ अमन है। निर्विचार में केवल विचार का निषेध है। जब की अमन में विचार, स्मृति और कल्पना तीनों का निषेध है। इस निषेध का तात्पर्य यह कभी भी नहीं है कि अमन का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। अमन, विचार, कल्पना और स्मृति से पार केवल ज्ञानात्मक अस्तित्व है। जिसको उपलब्ध होने का मार्ग प्रेषा है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षा-ध्यान-मनोविज्ञान ८५ विचार प्रेक्षा क्यों ? वह एक नये विचार को जन्म देता है। जिसकी संगति का कभी विनाश नहीं होता। निर्विचार की यात्रा के लिए कोई भी विचार अथवा भाव काम नहीं आ सकता। विचार और भावों से उनका परिष्कार किया जा सकता है; लेकिन सर्वथा विलय अथवा निर्विचारता का एक ही मार्ग है प्रेक्षा का अभ्यास। 'प्रेक्षा-ध्यान दर्शन का हृदय है। उसके बिना सत्य का साक्षात् नहीं किया जा सकता, प्रेक्षा अनुभव की प्रक्रिया है। प्रेक्षा किसी को शुभ, अशुभ नहीं बनाती। शुभ, अशुभ सापेक्ष शब्द हैं सापेक्षता का निर्माण मन ही करता है। प्रियता अप्रियता, लाभ, अलाभ, सुख-दुःख, निन्दा, प्रशंसा ये सब मन से आधारित है। शान्ति का प्रश्न केवल मन से ही संचालित नहीं है। मन के पीछे काम, क्रोध, भयादि वृत्तियों की विशाल सेना शान्ति को पराजित कर अशान्ति फैलाने के लिए उत्सुक है। अशान्ति की कैसी ही चरम परिस्थिति हो जाए फिर भी शान्ति का एक बिन्दु सदैव जागृत रहता है। ऐसा न हो तो शान्ति, अशान्ति का विभेद किया ही नहीं जा सकता। शान्ति का आधार सम्यक् दर्शन __प्रेक्षा से यदि कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होती है तो वह है सम्यग्-दर्शन (यथार्थ दृष्टि) जो है उसके स्वरूप का यथार्थ अनुभव प्रेक्षा से ही किया जा सकता है। प्रेक्षा कल्पना और आरोप से वस्तु और घटना को मुक्त कर यथार्थ दृष्टि को उपलब्ध करवाता है। अयथार्थ दृष्टि विभ्रम पैदा कर क्लेश का कारण बनता है। वस्तु और घटना में कोई सुख-दुःख, प्रियता ओर अप्रियता नहीं होती। सुख व दुःख, प्रियता और अप्रियता मन के कोण से पैदा होते हैं। मन का कोण सम्यग् बन जाता है तो कोई कारण नहीं उसमें द्वन्द्व उत्पन्न हो। ___ मन की शान्ति से पूर्व अशान्ति के कारणों पर ध्यान देते हैं तो मिथ्यादृष्टि (अविद्या) ही सर्वप्रथम दृष्टि गोचर होती है। उससे आगे चलते हैं तो दूसरा कारण है आकांक्षा । इच्छा मन को अशान्त और चंचल बनाती है। चंचलता का एक और कारण है प्रमाद । प्रमाद है यथार्थ की अस्वीकृति जिसमें जो नहीं है उसमें उसकी स्वीकृति । इन्द्रिय और पदार्थ के संयोग में सुख, स्वाद भोगने की प्रवृत्ति, कषाय ही मन के पीछे रह कर प्रियता-अप्रियता का रस घोलता है। मन की प्रवृत्ति इनके साथ जुड़कर अपने आरोप, प्रत्यारोप के Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा खेल खेलती रहती है। जिससे अशान्ति के परिणाम फलित होते रहते हैं। अशान्ति विलय के निर्देशित सूत्र हैं सम्यग्-दर्शन, सद्-संकल्प (स्व संयम), जागरूकता, निर्मलता इन सबका प्राप्ति का मार्ग है-प्रेक्षा, अनुप्रेक्षा, भावना और कायोत्सर्ग। प्रेक्षा से यथार्थ का साक्षात् होता है, अनुप्रेक्षा साक्षात् हुए तत्त्व को स्पष्टता से स्वीकार करती है। साथ ही पूर्वार्जित संस्कारों का परिष्कार, भावना से यथार्थ में स्थिरता, सम्यग् दृष्टिकोण और जागरूकता उत्पन्न होती है। कायोत्सर्ग से तनाव की गांठ खुलकर निर्मल हो जाती है। शान्ति के इच्छुक व्यक्ति को प्रेक्षा-ध्यान का प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए, प्रेक्षा-ध्यान प्रविधि एक ऐसा उपक्रम है जिससे व्यक्ति अपने मन को ही नहीं विचार, संस्कार और शरीर को भी प्रशिक्षित कर नवजीवन की यात्रा कर सकता है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध शमन के प्रयोग बर्तन के गिरने की तेज आवाज से, घर का पूरा वातावरण चीख से भर गया। घर से लगी सड़क पर खलने वाली दुकान में बैठे, पिता, पुत्र चौंके। क्या हुआ ? किसी को चोट तो नहीं आई ? "ना पिताजी कुछ भी नहीं हुआ। मां के हाथ से कोई बर्तन गिर गया, उसके टूटने की आवाज आई है।" मूर्ख ! तुझे ब्रह्म ज्ञान हो गया ? यहां बैठे-बैठे गप्प मार दी कि मां के हाथ से बर्तन गिरा है। उसके टूटने की आवाज आई है ? तुम्हारी पत्नी नहीं तोड़ सकती ? उसके हाथ से बर्तन नहीं गिर सकता ? बिना समझे अपनी मां पर ऐसा आरोप लगाना उचित है ? पिता जी ! आपका कहना उचित है। किसी पर झूठा आरोप नहीं लगाना चाहिए लेकिन मैं जो कह रहा हूं उसमें सच्चाई है। मां ही है दूसरा कोई नहीं। आप अन्दर जाकर जांच कर सकते हैं। पिता कुछ आवेश में आते हुए बोले। आज के छोकरों का दिमाग ही ऐसा हो गया। पत्नी करे सो अच्छा। दूसरा करे सो बुरा।। "उन्हें होश ही नहीं रहता क्या कहना, क्या करना।" पिताजी ने मनीम को अन्दर भेजा। पिता अवाक थे। यह कैसे हुआ? वे अपने चिन्तन में डूबे सोचने लगे। पुत्र ने समस्या का समाधान करते हुए कहा-पिताजी ! मैं पुनः कहता हूं यह बर्तन मां के हाथ से ही गिरा है। देखें घर में शान्ति छा गई है। कैसे ? अगर मेरी पत्नी के हाथ से गिरा होता तो बर्तन की आवाज तो बन्द हो जाती, किन्तु मां की टनटनाहट चलती रहती। मुनीमजी भी आ गये थे। पिता के बोलने के लिए कुछ नहीं था। माताजी क्रोध के बुखार में बिस्तर पर लेटी थी। मां की टनटनाहट का प्रश्न नहीं। आज सम्पूर्ण मानव जाति आवेग से ग्रसित है। आवेग, प्रतिआवेग, तनाव, रुग्णता से मानव किंकर्तव्यविमूढ बन Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ प्रज्ञा की परिक्रमा रहा है। आखिर करें भी तो क्या करें। छोटे बच्चे से लेकर बड़ों तक का एक ही साल है। आवेश इतना अधिक हो गया कि शान्ति से जीवन व्यतीत करना ही महा दुष्कर हो गया है। बच्चों का मूढ़ __डेढ़ साल के बच्चे का मूढ़ बिगड़ जाता है तो उसे मनाना महा मुश्किल हो जाता है। वह अपनी जिद्द पर अड़ा रहता है। आवेश में आकर बर्तन तोड़ देता है, कपड़े फाड़ देता है, पुस्तकें फेंक देता है ? मां लाडले के सारे कारनामे जानती है किन्तु कोई उपाय नहीं। गृहिणियां बच्चों के मूढ़ से हैरान हैं। बच्चे थोड़े बड़े होते हैं उनका आक्रोश, आवेग इतना अधिक हो जाता है कि पूरे परिवार की शान्ति भंग हो जाती है। बच्चों का सवाल नहीं परिवार का प्रत्येक सदस्य-क्रोध की आग से जल रहा है। हर कोई एक दूसरे पर आरोप लगा रहा है कि मैं क्या करूं दूसरा ऐसा करता है तब मुझे भी आवेश आ ही जाता है। आवेश सभी को आता है। इस तरह अपने आप को बचाने की कोशिश करते हैं इसलिए आप करते हैं। इससे आप उसके परिणामों से बच नहीं सकते। क्रोध कोई करे अथवा अन्य प्रकार के आवेगों से अपने मानस को आन्दोलित करें। उसकी एक सूक्ष्म संस्कार रेखा चैतन्य पर पड़े बिना नहीं रह सकती? चैतन्य पर पड़ने वाली रेखाएं पुनः प्रगट होते समय क्रोध की सृष्टि करती है। जो वृत्तियों के रूप में उभर कर जीवन को प्रभावित करती हैं। क्रोध की बढ़ती हुई उस ज्वाला से परिवार, समाज और राष्ट्र का जन जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। राष्ट्र, समाज, परिवार की इकाई व्यक्ति है। व्यक्ति क्रोध से पीड़ित है तब परिवार, समाज और राष्ट्र कैसे स्वस्थ रह सकता है। क्रोध की समस्याओं से जीवन में जो तनाव, विवाद और विषाद बढ़ता जा रहा है। तनाव, विषाद और विवाद को मिटाने के अनेक उपाय हैं। तीन प्रयोग १. दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा २. ज्योति केन्द्र-प्रेक्षा ३. कायोत्सर्ग में शान्ति की भावना पहला प्रयोग-दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा क्रोध को शान्त करने का महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। श्वास-प्रश्वास बिना प्राणी मात्र का जीवन टिक नहीं पाता। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ क्रोध शमन के प्रयोग श्वास-प्रश्वास जीवन धारण के लिए आवश्यक है। वहां वह भाव और आवेगों को भी प्रभावित करता है। किसी भी शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक आवेग में श्वास–प्रश्वास विषम होने लगता है। श्वास-प्रश्वास की विषमता से शरीर, मन एवं भावना में परिवर्तन होने लगता है। श्वास-प्रश्वास और भाव परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। आवेश की कोई स्थिति में श्वास-प्रश्वास को शम और उपशम रखकर जागरूकता से प्रेक्षा का अभ्यास किया जाए तो आवेग की स्थिति आगे न बढ़कर उपशान्त होने लगती है। दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा के अभ्यास में साधक शरीर को शिथिल कर आते-जाते हुए श्वास-प्रश्वास पर अपने चित्त को केन्द्रित कर प्रेक्षा करता है। प्रेक्षा के इस अभ्यास से श्वास-प्रश्वास दीर्घ एवं गहरा होने लगता है। श्वास-प्रश्वास के शान्त दीर्घ एवं गहरा होने से क्रोध आदि आवेगात्मक स्थिति उपशान्त होने लगती है। प्रतिदिन नियमित दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा के अभ्यास से क्रोध आदि आवेगात्मक स्थिति का नियम किया जा सकता। क्रोध उपशान्त करने का इच्छुक व्यक्ति, दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा का प्रतिदिन १५ मिनट के अभ्यास से अपने क्रोध की स्थूल वृत्तियों पर नियंत्रण पा सकता है। दीर्घ-श्वास-क्रोध शमन के अतिरिक्त रक्त शोधन भी करता है। जिससे शारीरिक दोष भी निर्मल बनने लगते हैं। दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा की प्रक्रिया दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा के अभ्यास के लिए शरीर को शिथिल कर किसी सुखपूर्वक आसन पर स्थिर रहें। अपने चित्त को नाभि पर केन्द्रित कर श्वास लेते समय पेट के फूलने और प्रश्वास के समय सिकुड़ने की क्रिया को सजगता से अनुभव करें। एकाग्रता के साथ अपने चित्त को नथुनों पर केन्द्रित कर आते-जाते हुए श्वास-प्रश्वास की प्रेक्षा करें। प्रेक्षा के समय चित्त श्वासप्रश्वास के साथ निरन्तर जुड़ा रहता है। श्वास-प्रेक्षा से श्वास-प्रश्वास के प्रति जागरूक बनते हैं। जागरूकता ध्यान की गहराई में जाने की दृष्टि है। उससे क्रोध एवं भावनात्मक आवेग उपशान्त होने लगते हैं। क्रोध को शान्त करने दीर्घ श्वास-प्रेक्षा की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण किमिया है। श्वास-प्रश्वास के इस क्रम को प्रातः ६ बजे पूर्व कभी भी किया जा सकता है। श्वास-प्रश्वास प्रेक्षा के समय मेरुदण्ड को सीधा रखें। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ० ० प्रज्ञा की परिक्रमा पद्मासन, वज्रासन आदि किसी सुखपूर्वक बैठने वाले आसन में अभ्यास करें। ० दीर्घ श्वास- प्रेक्षा को प्रथम तीन माह तक प्रतिदिन १५ मिनट करें । दूसरी तिमाही में समवृत्ति- श्वास- प्रेक्षा (अनुलोम-विलोम प्राणायाम का प्रतिदिन १५ मिनट अभ्यास करें। दूसरा प्रयोग - ज्योति केन्द्र- प्रेक्षा क्रोध उपशमन का दूसरा प्रयोग ज्योति - केन्द्र - प्रेक्षा है । I ज्योति - केन्द्र - प्रेक्षा भाव परिवर्तन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। ध्यान के अंत में ज्योति - केन्द्र - प्रेक्षा का अभ्यास प्रायः करवाया जाता है। ज्योति - केन्द्र ललाट के मध्य दर्शन-केन्द्र से लगभग दो-तीन अंगुल ऊपर है जिसे शरीर-विज्ञानी पिनियल ग्लैण्ड (पीयूष ग्रन्थि) कहते हैं । पीयूष ग्रन्थि पर ध्यान करने से आवेग उपशान्त होने लगता है। बालक के १० से १२ वर्ष तक यह ग्रन्थि सक्रिय रहती है जिससे काम आदि आवेगों के हार्मोन्स सक्रिय नहीं होते हैं। ज्योति - केन्द्र पर ध्यान करने से काम-क्रोध आदि आवेगों को उपशान्त होने में सहयोग मिलता है। ज्योति - केन्द्र पर श्वेत रंग अथवा आश्विन पूर्णिमा के चमकते हुए चांद की अवधारणा करते हैं। ज्योति केन्द्र- प्रेक्षा की प्रक्रिया शरीर को शिथिल कर स्थिर करें । पद्मासन, वज्रासन आदि किसी सुख पूर्वक बैठने वाले आसन में ठहरें । स्वल्प समय प्रश्वास पर मन को केन्द्रित कर स्थिरता का अभ्यास करें । चित्त को ज्योति - केन्द्र पर केन्द्रित करें। जैसे टॉर्च के प्रकाश से अन्धेरे में दूर तक देखते हैं। वैसे ही चित्त को ज्योति - केन्द्र पर स्थापित कर वहां होने वाले स्पंदन, कंपन, हल्कापन, भारीपन, जो कुछ अनुभव होता हो उसे अनुभव करें। किसी को कुछ अनुभव स्पष्ट नहीं हो रहा हो वह अपने चित्त को वहां केन्द्रित रखें। श्वेत रंग की अवधारणा करें, श्वेत रंग का ध्यान करें । आश्विन के चमकते हुए चांद अथवा श्वेत बिन्दु का ध्यान करें । अनुभव करें आवेग शान्त हो रहा है । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध शमन के प्रयोग - ६१ क्रोध शान्त हो रहा है। मन ही मन इसे दुहराए फिर शान्त भाव को अनुभव करें। समय तीन से पांच मिनट प्रातः संध्या अथवा रात्रि के किसी शान्त समय में कर सकते तीसरा प्रयोग कायोत्सर्ग में शान्ति की भावना तनाव ज्यों-ज्यों बढ़ता है व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन आने लगता है। सहने की क्षमता कम होने लगती है। छोटी-छोटी घटना से उत्तेजित होने लगता है। स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है। मन के विपरीत किंचित भी हुआ वह आपे से बाहर हो जाता है। आवेश की बार-बार आवृत्ति से व्यक्ति अपने आप को संभाल नहीं पाता। क्रोध को उपशान्त करने की यह सरल प्रविधि है। रात्रि में सोने के लिए बिस्तर में लेट गए। श्वास को भरते हुए हाथों को कंधे की ओर ले जाकर तनाव दें। फिर हाथ शरीर के बराबर ले आएं । इस प्रकार तीन बार करें। शरीर को शिथिल छोड़ें। कहीं तनाव न रहें । शरीर की पकड़ को छोड़ें। आंखें मूंद लें। धीरे-धीरे श्वास लें, धीरे-धीरे प्रश्वास छोड़ें। प्रत्येक श्वास के साथ चित्त को केन्द्रित करें। मन में भाव करें कि श्वास के साथ शान्ति रोए-रोए में भर रही है। श्वास छोड़ें तो शान्ति चारों ओर कमरे में फैल रही है। जब तक नींद न आए श्वास के साथ भावना करें। इस प्रयोग के चार परिणाम हैं। १. नींद तत्काल एवं गहरी आती है। २. दुःस्वप्न, जंजाल दूर होते हैं। ३. स्वभाव परिवर्तन होने लगता है। ४. स्मृति का विकास। तीनों प्रयोगों का परिणाम एक महीने में स्पष्ट अनुभव होने लगता है। तीन से छ: महीने के अभ्यास से क्रोध के स्वभाव में परिवर्तन आने लगता है। प्रेक्षा-ध्यान शिविर में सैकड़ों व्यक्तियों द्वारा परिणाम की सत्यता के आधार पर कहा जा सकता है। क्रोध उपशान्ति के लिए ये तीनों सिद्ध प्रयोग हैं। ०००० Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ प्रेक्षा जागरूकता की प्रक्रिया प्रेक्षा जागरूकता की प्रक्रिया है। जागरूकता के कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) उपशान्त होने लगते हैं। कषाय के उपशमन से चित्त की निर्मलता बढ़ती है । प्रेक्षा ध्यान का उद्देश्य चित्त की निर्मलता, कषाय का उपशमन, जागरूकता । एक शब्द में अभिव्यक्ति देना चाहें तो स्वास्थ्य की उपलब्धि । स्वयं का साक्षात्कार अपने अस्तित्व में ठहरना है । स्वास्थ्य केवल अस्तित्व (चैतन्य) से ही संबंधित नहीं है । स्वास्थ्य मन का भी होता है। शरीर, मन और चैतन्य तीनों का स्वास्थ्य आवश्यक है । - प्रेक्षा- ध्यान से शारीरिक, मानसिक और आन्तरिक ( भावनात्मक) तीनों का स्वास्थ्य उपलब्ध होता है। प्रेक्षा- ध्यान जीवन-विज्ञान का प्रतीक है - 'स्वस्थे चित्ते बुद्धयः प्रस्फुरन्ति' स्वस्थ चित्त में बुद्धि स्फुरित होती है । स्वस्थता के बिना अस्तित्व (चैतन्य) पर आवरण आने लगता है। मन मलिन होता है। शरीर रुग्ण होता है । अस्तित्व के आवरण, मन की मलिनता, शरीर की रुग्णता को मिटाने का मार्ग प्रेक्षा है । प्रेक्षा के अनेक आयाम हैं। यौगिक शारीरिक क्रिया, आसन, प्राणायाम, कायोत्सर्ग, प्रेक्षा- ध्यान के विविध प्रयोग, अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय इनसे शरीर की रुग्णता, मन की मलिनता, अस्तित्व के आवरण को अनावृत कर स्वास्थ्य को उपलब्ध किया जाता है। इस निबन्ध में प्रेक्षा से होने वाले स्वास्थ्य के प्रयोगों के परिणाम की कुछ चर्चा है । दीर्घ श्वास-प्रेक्षा एक रसायन है। शरीर, मन और चैतन्य को वह स्वस्थ बनाकर स्वरूप को अभिव्यक्त करता है । श्वास-प्रश्वास के बिना न मन जीवित रह सकता है न शरीर । चैतन्य और शरीर के बीच का सेतु श्वास है। श्वास-प्रश्वास का नियमन ही शक्ति को जागृत करता है। जागृत-शक्ति ही शरीर को बलिष्ट, मन को पुष्ट और इन्द्रियों को तेजस्वी बनाता है। शरीरबल, मनोबल और इन्द्रिबल की तेजस्विता का उपयोग किस दिशा की ओर किया जाता है, यह एक चिन्तनीय प्रश्न है ? शक्ति, शक्ति ही होती है। उसका उपयोग सृजनात्मक या विध्वंसात्मक Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षा-जागरूकता की प्रक्रिया कार्यों में की जा सकती है। सजन कठिन और विध्वंस सरल होता है। द्वेषात्मक प्रवृत्ति विध्वंसात्मक कार्यों की ओर त्वरित गतिशील होती है। विध्वंस से विनाश होता है। वह अन्तर भावों को भी आंदोलित करता है। भावना से प्रभावित होते हुए मन और शरीर उससे बच नहीं पाते। कोई भी रोग शरीर पर उतरता है तो वह केवल शरीर तक ही सीमित नहीं रह पाता। शरीर के साथ मन और भावना को भी प्रभावित करता है। भविष्य में रोगी को डॉक्टर फीस देगा वर्तमान में बीमार होते ही डॉक्टर को बुलाकर दवा लेते हैं और फीस देने की प्रवृत्ति है। आने वाले युग में ऐसा नहीं होगा। किसी व्यक्ति पर पहले तो बीमारी उतर नहीं पायेगी क्योंकि शरीर-विज्ञान इतना विकसित हो जाएगा कि बीमारी शरीर पर उतर नही पायेगी। शरीर विज्ञानी ६ महीने पहले ही डॉक्टरी जांच से पता लगा लेगा कि शरीर पर यह बीमारी उतरने वाली है। उसका निराकरण अभिव्यक्ति से पहले ही अपनी औषधि से करने में वह समर्थ होगा। यदि किसी कारणवश उसे वह ठीक नहीं कर पायेगा तो उसे उस व्यक्ति के स्वास्थ्य तक औषधि आदि की व्यवस्था अपनी ओर से करनी होगी। साथ ही वह जब तक अस्वस्थ रहेगा, तब तक डॉक्टर को उसकी स्वास्थ्य सुरक्षा फीस देनी होगी। आकस्मिक दुर्घटना आदि की स्थिति अलग है। आयुर्वेद और स्वास्थ्य आयुर्वेद ने रोग की चर्चा करते हुए बताया कि वात, पित्त और कफ त्रिदोष की विषमता ही रोग है। वात, पित्त और कफ की समानता स्वास्थ्य है। वात, पित्त और कफ को विषम बनाने वाले निमित्तों के संयोग से ही व्याधि उत्पन्न होती है। निमित्त दो व्यक्तियों को एक जैसा मिलता है। एक को कफ की विकृति होकर श्वास की पीड़ा होने लगती है। दूसरे व्यक्ति को श्वास की पीड़ा नहीं होती। निमित्त के साथ दोनों के फेफड़ों में अन्तर होने से श्वास की पीड़ा एक को होती है दूसरे को सर्दी लगकर ही रह जाती है। रोग का तीसरा कारण अन्तरंग है। जिसे सूक्ष्म संस्कार का उदय (प्रकटीकरण) कह सकते हैं। सूक्ष्म संस्कार का उदय होने से निमित्त के बिना भी शरीर में रोग उत्पन्न होने लगता है। वह अन्तरंग सूक्ष्म संस्कार (कर्म) का कारण है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ प्रज्ञा की परिक्रमा प्रेक्षा साधना अप्रभावित होने की प्रक्रिया है। उसके प्रयोगों से निमित्त के कारण से होने वाली बीमारी भी उपशान्त होने लगती है। क्योंकि साधक उससे प्रभावित नहीं होता है। वात, पित्त आदि भी इतने जल्दी कुपित नहीं हो पाते । अन्तरंग सूक्ष्म कारण भी प्रेक्षा से निर्जरित होने लगते हैं। प्रेक्षा प्रयोक्ता के भी शरीर होता है। बीमारी हर किसी को हो सकती है, किन्तु प्रेक्षक विषम परिस्थिति में समता की दृष्टि का विकास कर लेता है। प्रेक्षा से दृष्टिकोण परिवर्तन प्रेक्षा साधक के दृष्टिकोण में परिवर्तन करती है। दृष्टिकोण ही व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करता है। दृष्टि की अयथार्थता ही जीवन में क्लेश, विषमता और अशान्ति उत्पन्न करती है। दृष्टिकोण यथार्थ होने पर उपचार भी शीघ्र हो जाता है। प्रेक्षा अध्यात्म चिकित्सा है। भाव चिकित्सा है। प्राण चिकित्सा है। कायोत्सर्ग चिकित्सा है। योग चिकित्सा है। प्रेक्षा के द्वारा चिकित्सा करने का कोई उद्देश्य नहीं है । प्रेक्षा शुद्ध अध्यात्म प्रक्रिया है। उससे अन्तरंग स्थिति को सम करने का उद्देश्य है। प्रेक्षा-ध्यान का उद्देश्य है-चित्त की निर्मलता, कषाय की उपशान्ति, वीतरागता । अन्तरंग स्थिति सम होने से बाह्य स्थिति भी स्वतः सम होने लगती है और रुग्णता भी दूर होने लगती है। बीमारी से व्यक्ति पीड़ित है उसे वह चाहता नहीं है। उसको दूर करने के लिए नाना औषध और चिकित्सा करवाता है। प्रेक्षा साधना मानसिक और भावात्मक बीमारियों को विशेष रूप से प्रभावित करती है। शरीर भी स्वस्थ बनता है, ऐसे कोई भी बीमारी केवल शारीरिक, केवल मानसिक, केवल भावात्मक नहीं हो सकती। शरीर, मन और भाव एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। परस्पर प्रभावित होते हैं। किसी भी चिकित्सा में केवल शरीर, मन और भावों के शोधन से कार्य पूरा नहीं होता। चिकित्सा क्षेत्र में आज नया शब्द प्रयोग में आने लगा है (साइकोसोमेटिक) मनोकायिक भी अपने आप में पूर्ण नहीं है। मन और काय से भी आगे भाव एवं सूक्ष्म संस्कार जीवन को प्रभावित करते हैं। प्रेक्षा-ध्यान के प्रयोग शरीर को स्वस्थ बनाते हैं। मन को स्वस्थ बनाते हैं। भावनाओं का परिष्कार करते हैं। चैतन्य को अनावृत करते हैं। प्रेक्षा से शरीर का संयम शरीर साधना के अनुरूप बने । ध्यान अथवा स्वाध्याय की समान आराधना हो सके। इस उद्देश्य को लेकर आसन, प्राणायाम का अभ्यास निहित माना Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ प्रेक्षा-जागरूकता की प्रक्रिया गया है। आसन और प्राणायाम से शरीर के विभिन्न अवयव लचीले, सौष्ठव, सुघड़ एवं सक्रिय बनते हैं। उससे ध्यान को धारण करने की क्षमता का विकास होता है। काय गुप्ति की साधना से ध्यान में प्रवेश सरलता से होता है। चित्त की निर्मलता तथा ध्यान के विकास के लिए शरीर की चंचलता का परिहार अनिवार्य है। चचलता तनाव से उत्पन्न होती है। तनाव मुक्ति की अचूक प्रक्रिया कायोत्सर्ग है। अस्वास्थ्य से भी तनाव उत्पन्न होने लगता है। तनाव विसर्जन से भी स्वयं स्वास्थ्य उपलब्ध होने लगता है। 'सव्व दुक्ख विमोक्खणं काउस्सगं समस्त दुःखों से विमुक्त करने वाला कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग की उपयोगिता ___ शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक अस्वास्थ्य यथार्थ है ? किसी भी अवस्था में स्वास्थ्य की उपलब्धि के लिए कायोत्सर्ग उपयोगी है। कायोत्सर्ग सब दुःखों से विमुक्ति देने वाला है। कायोत्सर्ग ऐसी सरल और सहज प्रक्रिया है, जिसे किसी भी बीमारी की अवस्था में व्यक्ति कर सकता है। कायोत्सर्ग के दो अर्थ हैं-शरीर का शिथिलीकरण, चैतन्य का जागरण। शरीर के शिथिलीकरण और चैतन्य के जागरण को साधने के लिए शरीर को लेटने, बैठने और खड़े रहने की किसी भी विश्राम पूर्णस्थिति में ठहरा सकते हैं। श्वास को भरते हुए अंगड़ाई लेते समय शरीर को तनाव देते हैं उसी प्रकार तीन बार तनाव दें फिर शरीर को ढीला छोड़े दें। श्वास को मन्द और शान्त करें। चित्त को पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक प्रत्येक अवयव पर ले जाकर शिथिलता का सुझाव दें। शिथिलता का अनुभव करें। शरीर की शिथिलता के साथ चैतन्य का बोध प्रत्येक अंग और कोशिका में करें। इससे सम्पूर्ण शरीर में ठहरा हुआ विष विसर्जित होने लगता है। व्यक्ति स्वास्थ्य को उपलब्ध होने लगता है। किसी विशेष अवयव में तनाव हो उस अवयव पर चित्त एकाग्र कर वहां रहे हुए तनाव और विष-मुक्ति का सुझाव दें। "तनाव और विष विसर्जित हो रहा है। सुस्ती, अनिद्रा, तनाव, रक्तचाप, दर्द आदि अनेकों समस्याओं का समाधान कायोत्सर्ग करता है। त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) को सम करता है। कायोत्सर्ग कलियुग का संजीवन है। प्रेक्षा-ध्यान शिविरों में सैकड़ों-सैकड़ों Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा व्यक्त्यिों पर अजमाया हुआ सिद्ध प्रयोग है। कायोत्सर्ग का पूरा प्रयोग ४५ मिनिट का है। कायोत्सर्ग में समय की कोई अवधि नहीं होती। व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार कर सकता है। इच्छित परिणाम के लिए कम से कम १५ मिनट तो अवश्य देना होता है। कायोत्सर्ग के प्रशिक्षण के लिए प्रेक्षा-ध्यान शिविर या तुलसी अध्यात्म नीड लाडनूं राज० साधना स्थल से सम्पर्क किया जा सकता है। प्रेक्षा साहित्य, प्रेक्षा-ध्यान, कायोत्सर्ग की कैसेटों से भी जानकारी उपलब्ध की जा सकती है। पाचन-संस्थान पर प्रेक्षा का प्रयोग शरीर में रोग का मुख्य कारण पाचन-संस्थान की गड़बड़ी है। पाचन-संस्थान शरीर में मुख्य अवयव है। जिससे सम्पूर्ण शरीर को शक्ति मिलती है। यंत्र के विकास से मानव जाति को अनेक समस्याओं का भी सामना करना पड़ रहा है। यंत्रों की आवाज से नाड़ी-संस्थान प्रभावित होता है। पाचन-संस्थान पर भी इनका बुरा असर आता है। यंत्र युग ने मनुष्य को त्वरा दी है। हर कार्य को वह जल्दी-जल्दी पूर्ण करने की कोशिश करता है। किसी भी कार्य को करते समय उसका ध्यान उस पर न रह कर उसके परिणाम अथवा अन्य कार्य पर जाता है। परिणाम यह होता है कि कोई भी काम भावपूर्ण नहीं हो पाता है। भोजन जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य जो जीवन संचालन के लिए अनिवार्य है उसे भी इतने अन्यमनस्क भाव से करता है, मानो भोजन न करके उसे किसी टिप्पन में भोजन रख रहा हो। भोजन ही जब भाव-क्रिया से नहीं होता, तब पाचन का काम सम्यक कैसे होगा? पाचन सम्यग नहीं होता तो उसका रासायनिक परिवर्तन ही शरीर के अनुकूल कैसे होगा? जब पाचन और उसका रस नहीं बनेगा तो शरीर का सामर्थ्य विकसित कैसे हो पायेगा? आज बौद्धिक काम करने वाले अधिकतर लोगों की शिकायत रहती है पाचन क्रिया ठीक नहीं। पाचन केवल पाचन से ही संबद्ध नहीं है। उससे अजीर्ण, कब्ज, अतिसार, रक्ताल्पता, कमजोरी शरीर में नाना व्याधियां होने लगती हैं।" पहला प्रयोग दीर्घ श्वास-प्रेक्षा पाचन तंत्र की समस्याओं के समाधान का पहला प्रयोग श्वास-प्रश्वास की क्रिया को ठीक करना है। गहरा लम्बा श्वास लेना, गहरा लम्बा प्रश्वास Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ प्रेक्षा-जागरूकता की प्रक्रिया छोड़ने का अभ्यास करना है। श्वास के समय पेट और नाभि का हिस्सा फूलता है, फैलता है। छोटा बच्चा श्वास-प्रश्वास करता है, तब उसका पेट सिकुड़ता और फैलता है। बच्चे को श्वास लेने का कोई शिक्षण नहीं दिया जाता बल्कि उसकी यह सहज क्रिया है। बड़े होने पर भय, चिन्ता, आवेग आदि से प्रभावित होने पर श्वास-प्रश्वास की क्रिया गलत होने लगती है। श्वास की चंचलता, श्वास-प्रश्वास का उल्टा क्रम जैसे श्वास लेते समय पेट का सिकुड़ना, छोड़ते समय पेट का फूलना । श्वास लेते समय श्वास-प्रश्वास की क्रिया का अभ्यास सम्यग करने से पाचनसंस्थान की कठिनाइयां स्वतः समाहित होने लगती हैं । श्वास-प्रश्वास सम्यग् करने से पाचन-संस्थान के विभिन्न अवयव सक्रिय बनते हैं। दिन में सामान्यतः व्यक्ति २२ हजार श्वास-प्रश्वास लेता है। श्वास-प्रश्वास की सम्यग् क्रिया से २२ हजार पाचन-संस्थान के अवयव सक्रिय बनते हैं जिससे उसमें रहा हुआ दोष शीघ्र दूर होकर शरीर स्वस्थ होने लगता है। दूसरा प्रयोग अग्निसार क्रिया पाचन-संस्थान को सक्रिय करने का दूसरा प्रयोग अग्निसार क्रिया है। अग्निसार क्रिया उड्डियान की स्थिति में कुंभक कर तीव्रता से पेट को गतिशील बनाया जाता है। एक बार कुंभक में २० बार पेट को गतिशील बनाए तो ५ बार में १०० बार हो जाता है। प्रतिदिन ५ बार करने से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। अपच ठीक होने लगता है। पेठ की अन्य विकृतियों को शमन करने के लिए भी यह उपयोगी है। तीसरा प्रयोग स्वतः सूचना पाचन-संस्थान की क्रिया को ठीक करने के लिए तीसरा प्रयोग स्वतः सूचना है। पाचन तंत्र के किसी बीमार अवयव पर अंगुलिया रख स्वस्थता का सुझाव देकर स्वस्थता का अनुभव करें तो वह अवयव स्वस्थ होने लगता है। आमाश्य, पक्वाश्य, लीवर आदि जो भी स्वस्थ अनुभव न हो तो उस स्थान पर चित्त को एकाग्र कर स्वस्थता का सुझाव देना होता है। आसन, प्राणायाम और कायोत्सर्ग का शरीर पर प्रभाव होता है। यह निर्विवाद सत्य है। ध्यान के द्वारा भी पाचन-संस्थान को ठीक किया जा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा की परिक्रमा सकता है। शरीर-प्रेक्षा, चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा के समय उन स्थानों पर सलक्ष्य ध्यान करना होता है। जिससे पाचन-संस्थान के स्वास्थ्य को पाया जा सकता है। चौथा प्रयोग मंत्र ___ भारतीय ऋषियों की यथार्थ दृष्टि ने विभिन्न आयामों से गुजर कर सत्य के विराट् स्वरूप को स्वीकार किया है। उन्होंने जहां आसन, प्राणायाम, भावना, कायोत्सर्ग आदि के द्वारा स्वास्थ्य को प्राप्त करने के सुझाव दिए हैं। वैसे ही मंत्र की विधियां भी स्वास्थ्य प्राप्त करने में कारगर सिद्ध होती हैं। लीवर की वेदना से पीड़ित व्यक्ति ध्यान मंत्र और (हूं हूं) से पाचन तंत्र को प्रभावित करता है। विभिन्न अवयवों के अलग-अलग मंत्र भी हैं। पारमार्थिक शिक्षण संस्था लाडनूं (राज०) की एक मुमुक्षु बहिन का लीवर खराब हो गया। उसे अनेक डॉक्टरों, वैद्यों एवं चिकित्सकों को दिखाया। कोई चिकित्सा नहीं हो सकी। वह निराश थी। उसको हूं का जप एवं ध्यान करवाया गया और तीन महीने के पश्चात् डॉक्टरों को दिखाया गया। वह स्वस्थ थी। पाचन-संस्थान पर सुझावों का प्रभाव मंत्र की तरह भावना का भी प्रभाव पड़ता है। किसी अवयव को भावना से प्रभावित किया जा सकता है। स्वस्थ अवयव को भावना से और अधिक स्वस्थ बनाया जा सकता है। बीमार अवयव को भावना से स्वास्थ्य प्रदान किया जा सकता है। पाचन-संस्थान के अवयवों पर अलग-अलग ध्यान केन्द्रित करें। उन अवयवों को शिथिलता का सुझाव दें। शिथिलता का अनुभव करें। उसके पश्चात् उन अवयवों की प्रेक्षा करें। देखें वहां पर क्या क्रिया-प्रक्रिया हो रही है। दर्द है, जलन है या और कुछ हो रहा है। केवल उन स्थानों की प्रेक्षा करें। प्रेक्षा में शरीर-प्रेक्षा एक विधि है। उस विधि से पाचन-संस्थान के प्रत्येक अवयव की प्रेक्षा करें। उससे पाचन-संस्थान के दोष क्षीण होने लगते हैं। "पाचन-संस्थान के अवयव स्वस्थ हो रहे हैं।" मधुरता और स्नेह से स्वस्थ होने के सुझाव दें। काम ठीक करें। रसों का स्राव समान हों। आमाशय को आदेशात्मक सुझाव भी दिया जा सकता है। तुम पाचन कार्य ठीक करो। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ प्रेक्षा-जागरूकता की प्रक्रिया भोजन के समय भावना का प्रयोग भोजन में बैठने से पूर्व जांच करें कि कौन-सा स्वर चल रहा है। जहां तक हो सके चन्द्र स्वर (बायां) में भोजन न करें। चन्द्र स्वर चल रहा हो तो उसे संकल्प के द्वारा परिवर्तित कर सूर्य स्वर चलाएं। संकल्प बल से सूर्य स्वर नहीं चल रहा हो, तो चन्द्र स्वर को अंगूठे से बन्द करने से सूर्य स्वर प्रारम्भ हो जाता है। सात बार सूर्य स्वर से श्वास-प्रश्वास का अभ्यास करें। ___ अपने हाथों की अंगुलियों को भोजन से चार अंगुल ऊपर रख कर यह भाव करें अंगुलियों से सात्त्विक प्राण धारा निकल कर भोजन को शुद्ध और सात्त्विक बना रही है। यह भोजन शुद्ध और सात्त्विक है कोई मुमुक्षु मुनि आ जाए तो अपना भोजन उनको अर्पित कर दूं। मिताहार में मैत्री भावना के पश्चात् भाव-क्रिया से युक्त भोजन में मौन रखें। किसी प्रकार की प्रतिक्रिया न करें। शुद्ध और सात्त्विक भाव का भोजन केवल पाचक ही नहीं होता, वृत्तियों को रूपान्तरित करने वाला होता है यह अनुभव तथ्य है। ०००० Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० शक्ति जागरण की प्रक्रिया : श्वास-प्रेक्षा श्वास जीवनी शक्ति हमारा शरीर छोटे-छोटे असंख्य कोषों से बना है ? शारीरिक, मानसिक या अन्य कोई क्रिया जब करते हैं उससे ये कोष क्षीण होते हैं और टूटते हैं। क्षीण और टूटने की इस क्रिया से हमें थकान अथवा सुस्ती अनुभव होती है। इस टूट-फूट की पूर्ति श्वास, जल और भोजन से होती हैं। भोजन स्थूल है। पानी उससे सूक्ष्म है। श्वास दोनों से सूक्ष्म है। भोजन के बिना प्राणी कुछ महीनों तक जीवित रह सकता है। पानी के बिना कुछ दिनों तक, लेकिन श्वास के बिना कुछ क्षण तक जीवित रहना मुश्किल है। जीवन यात्रा के लिए श्वास-प्रश्वास अनिवार्य तत्त्व है। श्वास से जीवनी शक्ति को ग्रहण करते हैं। सामान्यतः प्राणी श्वास से बहुत स्वल्य या शुद्ध वायु ग्रहण करता है प्रश्वास से स्वल्य मात्रा में दूषित वायु बाहर निकालता है। श्वास और प्रश्वास की क्षमता व्यक्ति में बहुत अधिक है, किन्तु उसका पूरा उपयोग नहीं करता है। श्वास और प्रश्वास का समुचित उपयोग दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा से किया जा सकता है। श्वास से जो ग्रहण किया जाता है वह केवल शुद्ध प्राणवायु अथवा ऑक्सीजन नहीं है। वायु के साथ अनेकानेक तत्त्व वायु में मिले हुए रहते हैं। श्वास के साथ वे फेफड़ों में भी जाते हैं, किन्तु फेफड़ों के कोष्ठकों की कुछ अपनी विशेषता हैं, वे शरीर के लिए आवश्यक वायु को ग्रहण कर अनावश्यक या दूषित वायु को प्रश्वास के द्वारा बाहर निकाल देते हैं। ग्रहीत वायु-प्राण शरीर में व्याप्त हो जाता है। नाड़ियों से विभिन्न अवयवों में कार्यरत हो जाता है। ऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता ऋषि कहते हैं : अपश्यं गोपाद्य मनिपद्यमानभा च परा च पथिमिश्चरन्तम् स सधीचीः स विषूचीर्वसा न आनरीवर्ति भुवनेष्वन्तः Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ शक्ति जागरण की प्रक्रिया : श्वास-प्रेक्षा मैंने प्राण को स्वयं देखा है, प्राण समस्त इन्द्रियों का पौषक है, भिन्न-भिन्न नाड़ियों (मार्गों) द्वारा शरीर में दौड़ता है, यही विश्व में शक्ति रूप है, ऊर्जा है। ऊर्जा की मात्रा जिसमें जितनी अधिक होती है, वह अधिक शक्ति संपन्न तेजस्वी होता है। योग में प्राणायाम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिसके द्वारा न केवल शक्ति को विकसित किया जाता है बल्कि मन का संयम कर चेतना का ऊर्ध्वारोहण किया जाता है। प्राणायाम ऐसा शक्तिशाली माध्यम है जिससे व्यक्ति बल, वीर्य और पराक्रम को उपलब्ध होता है। प्राणायाम जब तक प्रेक्षा के साथ नहीं जुड़ता है तब तक वह मात्र एक भौतिक शक्ति के रूप में रहता है। जिससे शरीर को बलिष्ठ, मन की एकाग्रता से प्राण के चमत्कार दिखाकर जगत् को चकित बनाया जा सकता है, लेकिन इससे आध्यात्मिक विकास कैसे संभव हो सकता है ? आध्यात्मिक विकास का एक सरल उपाय प्रेक्षा है। देखना, अनुभव करना, साक्षात् करना, राग-द्वेष रहित वर्तमान क्षण में उपस्थित रहना। आध्यात्म के विकास की जब चर्चा चलती है, लोग उत्सुक्ता से श्रवण को लालायित रहते हैं। जनता में अध्यात्म के गहन तत्त्वों को समझने की जिज्ञासा उभरी है। अध्यात्म की प्यास ज्यों-ज्यों गहन होती है, व्यक्ति उसके लिए अपने आपको समर्पित करने उत्सुक होने लगता है। यह समर्पण ही व्यक्ति को साधना की ओर प्रेरित करता है। प्राण ही जीवन है। सामान्य सा दिखाई देने वाला यह तत्त्व समस्त विश्व का आधार है। प्राण बिना कोई तत्त्व नहीं है। प्राण ही हर प्राणी को जीवित बनाता है। प्राण विहीन व्यक्ति आलसी, अकर्मण्य, निराश और शक्ति विहीन बन जाता है। प्राण ही स्फूर्ति, सक्रियता, उत्साह और शक्तिवान बनाता है। प्राणवान् ही साधना के क्षेत्र में विकास कर सकता है। प्राण को पुष्ट एवं संवर्धन करने के लिए प्राणायाम परम आवश्यक है। प्राणायाम से नवीन प्राण को शरीर एवं नाड़ियां अच्छी तरह से पचा लेती है। पचा हुआ प्राण, आंख, हाथ, पांव, मुख और मस्तक आदि विभिन्न अवयवों से बाहर विकीर्ण होता है। अधरोत्तर प्राणायाम प्राण-साधना का एक उत्कृष्ट प्रयोग है, जिसमें सम्पूर्ण शरीर के एक-एक रोम से प्राण को ग्रहण कर चैतन्य को अनावृत किया जाता है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ प्रज्ञा की परिक्रमा प्राण का जागरण साधना के द्वारा होने लगता है, तो जीवन का रूपान्तरण हो जाता है। शरीर में लाघव आने लगता है। नाना प्रकार की व्याधियों का शमन होने लगता है। साधना का आधार है-शक्ति। शक्ति जागरण में प्राण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राण ही इस शरीर का जीवन, शक्ति संपन्नता एवं समस्त सक्रियता का मूल है। प्राण शक्ति के बिना सभी निस्तेज, रूग्ण और क्रिया शून्य हो जाते हैं। प्राण का प्रस्फोट ही ऊर्ध्वारोहण का कारण बनता है। प्राण ही पौरुष को जागृत करता है। प्राण ही वह शक्ति है जिससे अन्तरंग चैतन्य जागृत करता है। प्राण सूक्ष्म शक्ति है जिसे तेजस् कहा है और यह कुण्डलिनी, शक्ति, ऊर्जा, विद्युत-प्रवाह, नाना संकेतों से पहचानी जाती है। प्राणवान् व्यक्ति ही आत्म विश्वासी, दृढ़ निश्चयी, अच्छी आदतों वाला हंसमुख और सच्चा धार्मिक होता है। प्राणहीन व्यक्ति निराशा, अकर्मण्य, कुण्ठा, कुबुद्धि से ग्रसित प्रभावहीन होता है। नाड़ी शोधन आवश्यक प्रदूषण के विषाक्त वातावरण से सब वस्तुएं दूषित होती जा रही हैं। वातावरण में शुद्ध वायु की मात्रा अल्प होने से श्वास-प्रश्वास की गति भी शीघ्र होने लगी है। शीघ्र श्वास से स्वभाव जन्य विकृतियां ओर नाना प्रकार की व्याधियां बढ़ती जा रही हैं। व्याधियों के शमन के लिए ऐलोपेथी औषधियों का अधिकाधिक उपयोग होने लगा हैं। ऐलोपेथी औषधियों का नाड़ी एवं शरीर पर जबरदस्त प्रभाव होता है। जो दोष बाहर निकलने के लिए किसी बीमारी के रूप में अभिव्यक्त हो रहा था। औषधि उसे पुनः भीतर धकेल देती है, उसका परिणाम होता है दूसरी बीमारी का उदय। नाड़ी-शोधन प्राणायाम से पूर्व करने की क्रिया है। नाड़ी शोधन होने से नाड़ियों का विष बाहर निकल जाता है। जब तक नाड़ियों में मल रहता है प्राण का प्रवाह सुषुम्ना में नहीं हो सकता। सुषुम्ना में प्राण के प्रवाह के बिना धारणा, ध्यान, समाधि फलित कैसे हो सकती है ? समस्त नाड़ी तंत्र का दोष परिष्कृत होने पर ही प्राणायाम की योग्यता प्राप्त होती है। प्राणायाम से नाड़ियां ही साधना में साधक को अग्रसर करती हैं। नाड़ी शोधन की अनेक प्रक्रियाएं हैं। दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण और सरल प्रक्रिया है। दीर्घ, लम्बा, गहरा श्वास लेना, छोड़ना जिसे योग Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ शक्ति जागरण की प्रक्रिया : श्वास-प्रेक्षा में पूरक ओर रेचक कहा जाता है। फेफड़ों की श्वास ग्रहण करने की क्षमता लगभग ६ लीटर है। सामान्य श्वास-प्रश्वास में मुश्किल से आधा या एक लीटर श्वास ग्रहण करते हैं और छोड़ते हैं। दीर्घ-श्वास को सम्यक् प्रकार करने के लिए श्वास-प्रश्वास के नाड़ी तंत्र को जानना आवश्यक है। श्वास का यात्रा पथ श्वसन तंत्र है। श्वसन क्रिया के लिए प्रमुख सात अवयव हैं-(१) नाक के नथुने (२) कंठ (३) स्वर-यंत्र (४) टेंटुआ (५) वायु नलिकाएं (६) फेफड़े (७) महा प्राचीरा पेसी (डायाफ्राम)। नाक के नथुनों में छोटे-छोटे बाल होते हैं जिन्हें सिलीया कहते हैं। जिससे धूल के कणों को वे अन्दर जाने से रोकते हैं। नाक का यह मार्ग अति घुमावदार है और स्नेहिल है। घुमावदार होने से ठण्डी और गर्म वायु को सम बना देता है। आर्द्रता होने से रूक्ष वायु स्निग्ध बन जाती है, जिससे फेफड़ों में रूक्षता नहीं बढ़ पाती। दूषित कण अथवा किटाणु नाशिका पथ में ही रुक जाते हैं। इसके पास टेंटुआ हवा नली शुरु होती है। गोल नली अन्दर की ओर होती है। इसमें श्लेष्म झिली होती है। जो सूक्ष्म कणों को फेफड़ों में जाने से रोकती है। फेफड़ों में हवा जाने की दो नलिकाएं हैं। एक दाएं फेफड़े में और दूसरी बाएं फेफड़े में आ जाती है। फेफड़ों में अनैच्छिक पेशियों से बने स्पंज के सदृश कोष्ठक होते हैं। जैसे स्पंज लचीला छिद्रमय होता है। गले से नीचे की ओर दो नालिका गुजरती है। एक भोजन की नली ओर दूसरी श्वास की नली। उन दोनों पर ढक्कन रहता है। श्वास अन्दर जाता है तब भोजन की नली बंद हो जाती है। भोजन अन्दर जाता है तब श्वास की नली बन्द हो जाती है। बन्द होने वाला ढक्कन कभी शीघ्रता में पूरा बन्द नहीं होता है तब भोजन अथवा पानी का अंश श्वास की नली में चला जाता है, तत्काल उसे वह छींक, डकार द्वारा बाहर फैंक देता है। श्वास नालिका के ऊपर सन्दुकनुमा स्वर-यंत्र है, जिसके माध्यम से भाषा का उपयोग होता है। स्वर-यंत्र के दोनों ओर नाड़ी तंत्र होता है। जब स्वर-यंत्र द्वारा वायु खींचते हैं इस क्रिया से सहज-श्वास, दीर्घ-श्वास में परिणत होने लगता है। इस स्थान पर चित्त को केन्द्रित करने से श्वास-प्रश्वास बिना किसी कठिनाई के सुगमता से दीर्घ होकर आने जाने लगता है। आते-जाते हुए श्वास पर सजगता से प्रेक्षा करने से फेफड़ों की क्षमता बढ़ने लगती है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ प्रज्ञा की परिक्रमा डायाफ्राम पेट और सीने के हिस्से को पृथक् करता है। दीर्घ-श्वास में डायाफ्राम फैलता है जिससे श्वास-प्रश्वास की मात्रा बढ़ जाती है। दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा से शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक समस्याओं का समाधान होता है। शरीर व्याधि मन्दिर होता है। वह नाना व्याधियों से आक्रांत है। शरीर में जब व्याधि होती है तो मानसिक शान्ति रख पाना बहुत कठिन हो जाता है। मानसिक अशान्ति भावों में विकृति उत्पन्न करती है। भाव विकृति से व्यक्ति अधोगति की ओर अग्रसर होता है। विकृति जब बाहर निकलने की कोशिश करती है, उसे रोग की संज्ञा से अभिहित किया गया है। रोग अन्तर् के विकारों की अभिव्यक्ति है। दीर्घ-श्वास की दो क्रियाएं पूरक और रेचक हैं। "पुरकात् शक्ति संचयः।" 'रेचनात् व्याधि क्षयः।" पूरक से शक्ति का संचय होता है। रेचन से रोग का नाश होता है। पूरक और रेचक का सम्यक् दर्शन ही प्रेक्षा है। दीर्घ-श्वास के प्रयोग का लयबद्ध और समताल करना आवश्यक है। उससे ही शरीर में रही विकृति निरसन होती है। सर्वप्रथम शरीर को स्थिर, शिथिल करें। श्वास को गहरा और लम्बा करें अर्थात दीर्घ-श्वास-प्रश्वास करें। प्रत्येक श्वास के साथ यह भाव करें कि श्वास के साथ शक्ति अन्दर आ रही है, रोम-रोम में शक्ति विकसित हो रही है। स्वस्थता बढ़ रही है। रुग्णता क्षीण हो रही है। श्वास और प्रश्वास के साथ भावना करें। १० से १५ मिनट के इस प्रयोग से निराश, हताश ओर पीड़ित व्यक्ति भी प्राण और चैतन्य से भर जाता है। नव जीवन का संचार होने लगता है। दूसरा प्रयोग पूर्व दिशा की ओर मुख कर सुखासन में ठहरें। श्वास और प्रश्वास को दीर्घ और गहरा करें। पूर्व और उत्तर दिशा में विशेष क्षेत्र महाविदेह है। इस क्षेत्र में निरन्तर अर्हत् विराजते हैं । अर्हत् का तात्पर्य सर्व शक्तिशाली चेतना। इस क्षेत्र के सबसे निकट विराजित अर्हत् श्री सीमंधर स्वामी हैं। दीर्घ-श्वास भरते हुए यह भाव करें कि अनंत शक्ति संपन्न अर्हत् से प्राण-धारा श्वास के साथ रोम-रोम में भर रही है। प्रश्वास करें तब शक्ति अपने चारों ओर फैलकर जगत् को प्रभावित कर रही है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति जागरण की प्रक्रिया : श्वास-प्रेक्षा १०५ अर्हत् के स्थान पर सद्गुरु जिस दिशा में विराज रहे हैं। उस ओर मुख कर भी प्राण धारा को ग्रहण करने का संकल्प किया जा सकता है। सद्गुरु शक्तिशाली ऊर्जा का केन्द्र हैं। प्राण शक्ति को जागृत करने का यह महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। समवृत्ति-श्वास-प्रेक्षा को लयबद्ध करना आवश्यक है। समवृत्ति-श्वास प्रेक्षा में एकलयता, विराम के समय श्वास संयम, श्वास लेने और छोड़ने के मध्य ठहराव की समग्रता से प्रेक्षा करें। शक्ति जागरण की अनेक प्रविधियां हैं। उन सबको एक साथ निरूपित नहीं किया जा सकता। अतः कुछ विधियों की ही यहां चर्चा की गई हैं। ०००० Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज में जीने वाला स्वच्छन्दता से सब कुछ नहीं कर सकता। अकेला व्यक्ति जंगल में स्वेच्छा से कुछ भी कर सकता हैं, किन्तु समाज के साथ जीने वाले को समाज की व्यवस्था और व्यवहार के अनुरूप जीवन-चर्या को ढालना होता है। यदि वह समाज की व्यवस्था और व्यवहार के अनुरूप अपनी जीवन-चर्या को नहीं बनाता है। तो वह सभ्य और श्रेष्ठ नहीं कहला सकता है। एक व्यक्ति समाज की रेखाओं से ऊपर उठ कर आदर्श जीवन जी सकता है, किन्तु ऐसे व्यक्ति दो चार ही होते हैं। दो चार व्यक्तियों से समाज नहीं बन जाता है। समाज में ही रह कर सामान्य जीवन जिया जा सकता है, इसलिए समाज-शास्त्री सामाजिक व्यक्ति के लिए न्यूनतम मर्यादा की व्यवस्था करते हैं। आवेग और उप-आवेग का भी समाज सामान्यीकरण कर लेता है। एक सीमा तक आवेग और उप-आवेग भी समाज का सन्तुलन बनाए रखते हैं। जब वे सीमा को पार कर दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा उत्पन्न करते हैं तब व्यक्ति और समाज के लिए चिन्ता का विषय हो जाता है। काम, क्रोध, अहंकार, माया, लोभ आदि आवेग है। हास्य, रति, भय, शोक और दुगुंछा आदि उप-आवेग है। क्रोध आदि आवेग हर व्यक्ति में होते हैं। व्यक्ति साधना द्वारा जब तक वीतराग नहीं बन जाता है, तब तक वह क्रोध आदि आवेगों से पूर्णतया विरत नहीं हो सकता, पर सब वीतराग बन जाएं, यह संभव नहीं हैं, फिर भी अपने आवेगों पर संयम हो-यह समाज और व्यक्ति की अपेक्षा है। उप-आवेग भी समाज व्यवस्था में कुछ सीमा तक सन्तुलन रखने में सहायक बन सकते हैं। किन्तु वे ही रेखा को पार कर समाज को पीड़ित भी कर सकते हैं। आवेग ग्रसित व्यक्ति आवेग और उप-आवेग व्यक्ति और समाज के लिए समस्या बने हुए हैं। अधिकार की प्रबल भावना के आगे कर्त्तव्य का दीपक टिमटिमाने लगता है। अधिकार की प्रबल आकांक्षा का ही प्रतिफल है शास्त्राओं की प्रतिस्पर्धा । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग यह स्पर्धा ही संघर्ष, ईर्ष्या, विद्वेष आदि वृत्तियों की जननी है, जिसका फल है तनाव । तनाव से ही मानव जाति के लिए विकटतम परिस्थिति पैदा हो जाती है। व्यक्ति को अपना ही असंतुलन विनाश के कगार की ओर ले जा रहा है। समस्याओं के समाधान के लिए निकला हुआ व्यक्ति प्रतिदिन और अधिक समस्याओं से घिरता जा रहा है। आवेग और उप-आवेग की भीषणतम अग्नि से समाज के श्रेष्ठ गुण भस्म होते जा रहे हैं। प्रबुद्ध वर्ग हिंसा, लूट, तोड़फोड़, बलात्कार आदि की प्रतिदिन घटित होने वाली घटनाओं से चिन्तित और आशंकित है। __ भय और शंका से मानव ने जो कुछ शस्त्रास्त्र संग्रह और उत्पादन किया है, वह किसी आकस्मिक भूल अथवा दुर्घटना से प्रभावित होकर कितना भीषण विनाशकारी हो सकता है, इसकी कल्पना ही भयावह है। तब इस धरती पर न घास मिलेगी, न पेड़-पौधे। प्रथम तो मनुष्य जाति का बचना ही बहुत मुश्किल है। फिर भी कोई संयोग से बच भी जायेगा तो बड़ा कुरूप, भद्दा और कुत्सित होगा। वह मानव कहला कर भी जीवित लाश के समान पृथ्वी पर चलेगा। अमेरिकन सुरक्षा संस्थान की सुरक्षा योजना की रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि अणु आयुधों से सुरक्षा एवं मार करने के लिए ऐसे सुरक्षित नगरों का निर्माण हुआ है जहां से अणु आयुधों का संचालन होता है। वहां पर सुरक्षा की हिदायतों के साथ एक पिस्तोल भी रखी रहती है वह इसलिए कि कोई अधिकारी उन्माद अथवा प्रमाद वश कभी कुछ करने को उद्यत हो तो पिस्तोल से उसकी हत्या कर दी जाए, अधिकारी के लिए तो उन्होंने व्यवस्था कर दी, परन्तु राष्ट्राध्यक्ष के सिर पर उन्माद सवार हो जाए, तो क्या होगा ? यह प्रश्न अनुत्तरित है। अतः मानव को अपने आवेगों पर संयम करना सीखना ही होगा, अन्यथा उसे शान्ति और आनन्द नहीं मिल सकता। क्रोध के आवेग से आज व्यक्ति, परिवार और समाज से विखंडित हो रहा है। क्रोध तात्कालिक आवेग है, परन्तु बार-बार आवृत्तियों से उसकी भी आदत बनने लगती है। क्रोध की आदत से व्यक्ति पुनः पुनः उत्तेजित होता है, जिसका परिणाम स्वयं एवं परिवार पर फैलकर समाज में व्याप्त होने लगता है। समाज में राष्ट्र और अन्त में राष्ट्र से विश्व सबको यह भयंकर ज्वाला अपनी चपेट में ले लेती है। क्रोध बुरा है, यह निर्विवाद हैं, परन्तु क्या किसी का ध्यान उसके शमन की विधि और प्रक्रिया पर भी गया है ? Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग क्रोध के आवेग को शमन करने की सरल विधि है - दीर्घ श्वास- प्रेक्षा । दीर्घ श्वास- प्रेक्षा एक रसायन है जिससे व्यक्ति के अन्तरंग स्रावों का परिवर्तन होने लगता है। आवेग अथवा उप-आवेग के उत्तेजित होते ही श्वास भी चंचल हो जाता है। अतः आवेग के शमन का पहला सूत्र है - श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया को सम्यक् एवं दीर्घ बनाना । जीवन की व्यस्तता तथा त्वरा ने मानव के मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न किया है जिसका सीधा प्रभाव श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया पर होता है। तनाव से श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया यथार्थ न रह कर विपरीत होने लगती है। छोटे बच्चे को देखें, श्वास-प्रश्वास के समय उसकी नाभि व पेट स्वाभाविक रूप से फूलते व सिकुड़ते हैं । यही सही विधि है । स्वाभाविक क्रिया के लिए उसे किसी से प्रशिक्षण लेने की आवश्यकता नहीं है। श्वास-प्रश्वास अस्वाभाविक तब होता है जब कोई व्यक्ति भूख प्यास अथवा अन्य आवेगों से ग्रसित हो जाता है। प्रज्ञा की परिक्रमा श्वास-प्रश्वास की क्रिया को संतुलित रखने का तात्पर्य है - शान्त रह कर श्वास-प्रश्वास को दीर्घ एवं लय-बद्ध बनाना । दीर्घ- श्वास- प्रेक्षा से श्वास पर संयम और चैतन्य की जागरूकता बढ़ती है । जागरूक अवस्था में आवेग को उत्पन्न होने और ठहरने का अवसर नहीं मिलता। स्वभाव - परिवर्तन के लिए श्वास- प्रेक्षा अत्यधिक सरल प्रक्रिया है । दीर्घ श्वास से रक्त कणों में परिवर्तन होने लगता है। रक्त का परिवर्तन न केवल शरीर को प्रभावित करता है, अपितु स्वभाव पर भी अपना प्रभाव डालता है जिससे व्यक्ति आवेश और आवेग पर संयम करने में सक्षम होने लगता है। दीर्घ श्वास का अभ्यास चित्त को शान्त बनाता है। जब भी कोई आवेगात्मक स्थिति का मानस पर आक्रमण होता है, वह सर्वप्रथम श्वास को चंचल और विषम बनाता है। चचलता और विषमता उतरते ही प्रेक्षा का साधक जागरूक होकर उसकी प्रेक्षा करने लगता है जिसका परिणाम है- आवेग की उपशान्ति । आवेगात्मक स्थितियां बेहोशी में ही अधिक बढ़ती हैं । दीर्घ श्वास- प्रेक्षा की प्रक्रिया दीर्घ श्वास-प्रेक्षा की प्रक्रिया में सर्वप्रथम सुखपूर्वक किसी स्थिर आसन में ठहरा जाता है । मेरूदण्ड (रीढ़ की हड्डी) को सीधा रख कर गर्दन को Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग सीधा रखा जाता है। ठुड्डी हंसली से चार अंगुल ऊपर रहती है। ब्रह्म मुद्रा में हाथ नाभि के पास गोद पर रहते हैं। बायां हाथ नीचे, दायां हाथ ऊपर रख कर अंगूठे आगे से एक दूसरे से स्पर्श करेंगे। यही ब्रह्म मुद्रा है। शरीर की स्थिर स्थिति के पश्चात् स्वर यंत्र हंसली के पास जो कोमल गड्डा-सा दिखाई देता है वहां पर अपने चित्त को केन्द्रित करना पड़ता है। श्वास-प्रश्वास की इसी स्थान से नियंत्रित किया जाता है। श्वास-प्रश्वास नाक के नथुनों से ही आएगा और जाएगा, किन्तु श्वास का खिंचाव स्वर यंत्र से होता रहेगा जिससे श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया दीर्घ होने लगती है। इसका सम्यक् अभ्यास प्रेक्षा-ध्यान में अत्यन्त उपयोगी है, श्वास-प्रश्वास के इस क्रम में जब श्वास अन्दर फेफड़ों में भरता है तब डायाफ्राम पेट की ओर फैलता है, जिससे पेट और नाभि का हिस्सा सिकुड़ता व फैलता है। सिकुड़न और फैलाव का क्रम इतना स्पष्ट होता है जिस पर चित्त को एकाग्र करना सहज होता है। दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा में सर्वप्रथम इस स्थूल क्रिया पर चित्त को एकाग्र किया जाता है। उसके पश्चात् दोनों नथुनों के भीतर जहां श्वास एक छिद्र में मिलता है, वह संधिस्थल है। वहां पर चित्त को एकाग्र किया जाता है, जिससे अनुभव होने लगता है कि कौन से नथुने से श्वास आ रहा है, कौन से नथुने से प्रश्वास हो रहा है। श्वास और प्रश्वास में उसकी गति, दवाब, स्पर्श और शीतलता एवं उष्णता का अनुभव किया जाता है। कोई भी श्वास और प्रश्वास बिना जानकारी के न अन्दर जाना चाहिए, न बाहर लौटना चाहिए। जहां श्वास वहां चित्त । श्वास और चित्त एकरस बन जाते हैं। श्वास अन्दर जाता है तो चित्त श्वास अन्दर के साथ अन्दर; श्वास बाहर जाए तो चित्त भी श्वास के साथ बाहर। श्वास-प्रेक्षा के इस प्रयोग में श्वास-प्रश्वास की एकलयता बन जाती है। श्वास अन्दर जाकर एक क्षण रुकता है, फिर बाहर की ओर यात्रा करने लगता है। बाहर से पुनः अन्दर की ओर लौटते समय भी एक क्षण बाहर श्वास रुकता है। कुछ दिनों के अभ्यास के पश्चात् श्वास और प्रश्वास को पांच-पांच सैकण्ड तक अन्दर और बाहर रोका जा सकता है जिसे श्वास संयम कहा जाता है। समवृत्ति-श्वास-प्रेक्षा का प्रयोग श्वास-प्रेक्षा के दो सप्ताह के अभ्यास के पश्चात् समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा का अभ्यास किया जा सकता है। समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा में संकल्प से श्वास Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० प्रज्ञा की परिक्रमा को बाएं नथुने से ग्रहण कर दाएं नथुने से प्रश्वास किया जाता है। फिर दाएं नथुने से श्वास ग्रहण कर बाएं नथुने से प्रश्वास किया जाता है। यह क्रम केवल संकल्प से किया जाता है। प्रारम्भ में संकल्प से केवल चित्त को बाएं नथुने के साथ अन्दर ले जाते हैं। दाहिने नथुने से चित्त को प्रश्वास के साथ बाहर लाते हैं। पुनः दाहिने से चित्त और श्वास को अन्दर ले जाते हैं, बाएं से बाहर प्रश्वास करते हैं। यह क्रम यदि किसी से संकल्प से नहीं होता है, तो दाहिने हाथ के अंगूठे से नथुने को बंद कर अनुलोम-विलोम प्राणायाम की तरह श्वास-प्रश्वास भी किया जा सकता है। अभ्यास होने के पश्चात् हाथ के अंगूठे का उपयोग नथुनों पर नहीं करना चाहिए । श्वास- प्रेक्षा का यह अभ्यास प्रेक्षा प्रशिक्षण शिविर अथवा प्रेक्षा प्रशिक्षक के निर्देशन में सरलता से सीखा जा सकता है। दीर्घ- श्वास-प्रेक्षा का प्रतिदिन पन्द्रह मिनट का अभ्यास स्वभाव - परिवर्तन की भूमिका का निर्माण कर देता है । कायोत्सर्ग में परिवर्तन के प्रयोग किसी वृत्ति का पुनरावर्तन स्वभाव बन जाता हे। स्वभाव की प्रगाढ़ता आदत बन जाती है। आदत से मूर्च्छा इतनी गहरी हो जाती है कि व्यक्ति को चाहे अनचाहे उसमें संलग्न होना पड़ता है। व्यक्ति की यह परवशता स्वतंत्रता को लांघ जाती है। उसका पौरुष पराक्रमी नहीं रहता । किसी भी स्थिति में अपने आप को असहाय अनुभव करता है। आवेग की स्थिति में आने आप को असहाय अनुभव करता है। आवेग की स्थिति में जो घटनाएं घटती हैं, उनसे वह स्वयं आश्चर्य चकित रह जाता है कि यह कैसे हो गया? बहुधा तो ऐसा होता है कि उसने कितनी बार आवेश में गाली बोलना, हाथ चलाना आदि क्रियाओं को न करने का निश्चय किया, परन्तु अवसर आते ही वे सब बातें स्वतः दुहरा दी गईं। शराब, सिगरेट, अफीम, भांग, गांजा, सुल्फा, मिरजुवाना, एल. एस. डी. आदि नशीले पदार्थों के उपयोग न करने का कितनी बार मानसिक निश्चय किया जाता है, वाचिक संकल्प दुहराया जाता है, लेकिन समय आते ही सब निश्चय और संकल्प तिरोहित हो जाते हैं न जाने कहां से एक तरंग उठती है, व्यक्ति सारे निश्चयों और संकल्पों को तोड़ कर नशे की आदत से ग्रसित हो जाता है। समझाने वाले लोगों की कमी नहीं है, बुद्धि के स्तर पर वह Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग समझ भी जाता है, किन्तु उसकी क्रियान्विति नहीं हो पाती । वह व्यसन मुक्त नहीं रह पाता, व्यसनों की गिरफ्त में आ जाता है। व्यसन मानो उसके प्राणों में घुल गए हों। उपदेशकों के उपदेश सुनकर वह भी हैरान हो जाता है कि क्या करें ? व्यसन-मुक्ति चाहते हुए भी व्यसन से मुक्त क्यों नहीं हो पाता है ? प्रश्न सामयिक और आवश्यक भी है। क्या कठिनाई है कि जिससे व्यक्ति व्यसन और आवेग से मुक्ति की आकांक्षा होते हुए मुक्त नहीं हो पाता है। आवेग और व्यसन शरीर, मन, बुद्धि और चैतन्य को प्रभावित करते हैं। उससे प्रभावित चैतन्य, बुद्धि, मन और शरीर विभिन्न प्रवृत्तियों में संलग्न होते हैं। परिणाम यह होता है कि हमें लगता है कि बुद्धि ऐसा कैसे कर रही है, मन ऐसे कैसे हो रहा है ? शरीर पर ऐसा कैसे हो रहा है ? प्रश्न सीधा है, उसका समाधान भी सीधा है। आवेग और व्यसन शरीर के साथ जुड़ कर उससे संबंधित सभी पक्षों को प्रभावित करते हैं। आवेग और व्यसन-मुक्ति के सदुपदेश, अथवा मानसिकता से उभरे प्रश्न का सरल समाधान है। व्यसन और आवेग जहां अन्तर् मानस, वृत्तियों से उभर कर प्राण में फैलते हैं उसे मिटाने हेतु जो व्यवस्था अथवा सदुपदेश दिया जाता है, वह शरीर के स्तर पर स्थूल मन और बुद्धि तक जाता है। मनोविज्ञान मान रहा है-मन के पीछे भी अन्तर्मन है, जो स्थूल चित्त पर उतर रहे प्रतिबिम्बों का आधार है। ये प्रतिबिम्ब और तरगें अन्तर् से आती है। अन्तर्मन के पीछे भी अति सूक्ष्म मन अथवा वृत्तियां हैं जो अन्तर्मन और स्थूल मन को आन्दोलित करती रहती अन्तर् चित्त की व्यसन-मुक्ति ___ मन, अन्तर्मन, सूक्ष्म-मन, वृत्तियां-इनसे समुद्भूत संस्कारों का कैसे विलय हो, जिससे आवेग और आवेश एवं व्यसनों से मुक्ति पाई जा सके, पर स्थूल मन और स्नायुतन्तुओं का नैरन्तरिक अभ्यास आवेग और व्यसनों से मुक्त होने में बाधक बनता है। यदि सही सच्चाई है, तब साधना अथवा स्वभाव परिवर्तन की चर्चा का क्या मूल्य रह जाता है ! स्वभाव-परिवर्तन के प्रयोग की क्या अपेक्षा है ? प्रतिप्रश्न से भी समस्या का समाधान नहीं हो पाता। स्वभाव परिवर्तन के इस प्रश्न को दो कोणों से समाहित किया जा सकता है। पहला कोण है-बुद्धि और चेतन के स्तर पर आई हुई समस्या Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ प्रज्ञा की परिक्रमा को बुद्धि और चिन्तन से परिष्कृत करना। दूसरा कोण है-अन्तरंग भाव और संस्कारों को अभ्यास द्वारा रूपान्तरित करना। आवेग क्यों, कैसे, किस प्रकार उदय में आते हैं ? उनको उत्तेजित करने वाली कौन-सी परिस्थितियां हैं ? इस विश्लेषणात्मक चिन्तन से वेग स्वतः मन्द होने लगता है। क्रोध, काम, मोह से उत्पन्न तरंगों से शरीर में क्या-कया रूपान्तरण हो जाता है जिससे आवेग तिरोहित होने लगता है। व्यसनों की भी प्रारम्भिक स्थिति यही हैं जिन आकर्षणों अथवा साथियों के उत्प्रेरण से व्यक्ति व्यसनों की ओर उन्मुख होता है, समय पर उचित परामर्श, उनसे होने वाली दुरावस्था के प्रति यथार्थ बोध पाकर व्यक्ति व्यसन-मुक्त हो जाता है, यह अवस्था प्रारम्भिक है। व्यसन और आवेग अभी तक आदत नहीं बने हैं, केवल आकर्षण इस ओर प्रेरित करता है। जब अन्तर्मन और सूक्ष्म-मन पर आवेग और व्यसन की परतें गहरी जम जाती हैं। तब उनको वहां से हटाना अत्यन्त कठिन हो जाता है। यह अवस्था आदत कहलाती है। उसे परिवर्तित करने के लिए कायोत्सर्ग में संकल्प का उपयोग किया जाता है। कायोत्सर्ग का उपयोग कायोत्सर्ग शरीर की शिथिलता के साथ चैतन्य को जागृत रखता है। इसमें शरीर की सक्रियता स्थूल रूप से विराम पा लेती है। विराम की इस स्थिति में चेतन मन सो जाता है, अन्तर्मन जागृत होने लगता है। अन्तर्मन जिन संस्कारों से संस्कारित है उसका प्रभाव हमारे जागृत मन पर आता है, अतः जिस व्यसन से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं, अन्तर्मन उसे छोड़ना नहीं चाहता है। अन्तर्मन से भी आगे सूक्ष्म मन एवं वृत्तियों में वे गहरे पैठे हुए हैं। उन व्यसनों को निर्मूल करना अत्यन्त दुरूह है। कायोत्सर्ग, प्रायश्चित, विशोधि निशल्यकरण की प्रक्रिया है। जमे हुए संस्कारों को परिमार्जित अथवा विलय कायोत्सर्ग द्वारा किया जाता है। कायोत्सर्ग साधना पद्धति का महत्त्वूपर्ण अंग है। कायोत्सर्ग से शरीर के प्रत्येक अवयव को शिथिल कर श्वास को मन्द और शान्त बनाया जाता है। स्थूल मन को भी निर्विषयी बना कर अन्तर् और सूक्ष्म मन की गांठों (ग्रंथियों) को सुझावों (भावना) के द्वारा खोला जाता Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग ११३ कायोत्सर्ग का यह प्रयोग कुशल निदेशक के निर्देशन में करना उपयुक्त रहता है। प्रयोक्ता के शरीर, मन एवं भावना की स्थितियों का अवलोकन कर उचित सुझाव देकर भावना से चित्त को प्रभावित किया जा सकता है। कायोत्सर्ग में भावना का अभ्यास ज्यों-ज्यों व्यक्ति में तनाव बढ़ता है, सहने की क्षमता कम हो जाती है। छोटी-छोटी घटना से मन उत्तेजित होने लगता है। स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है। आवेश की बार-बार आवृत्ति से व्यक्ति अपने आपको संभाल नहीं पाता। स्वयं दुखी, परिवार में अशान्ति और वातावरण क्लेशपूर्ण बना रहता है। इन सबसे मुक्ति पाने के लिए भावना का अभ्यास आवश्यक है। यह प्रयोग किसी भी समय किया जा सकता है, लेकिन रात्रि-शयन करते समय यह प्रयोग विशेष लाभप्रद होता है। सोते समय श्वास भरते हुए हाथों को कंधे की ओर ले जाकर तनाव दिया जाता है। श्वास छोड़ते हुए हाथों को शरीर के बराबर ले आते हैं। इस प्रकार तीन बार अभ्यास करते हैं। शरीर को पूरी तरह शिथिल छोड़ देते हैं। कहीं पर भी तनाव न रहे, ऐसी भावना से चित्त को भावित करते हैं। शरीर की पकड़ को छोड़ कर आंखें मूंद लेते हैं। श्वास-प्रश्वास पर चित्त को केन्द्रित कर, मन में भावना भरते हैं कि श्वास के साथ शान्ति भीतर जाकर रोएं-रोएं में समा रही है। श्वास छोड़ें तब शान्ति चारों ओर कमरे में फैल रही है। जब तक नींद न आवे, श्वास के साथ इस प्रकार भावना की जाती है। इस प्रयोग के चार परिणाम हैं १. नींद तत्काल एवं गहरी आती है। २. दुःस्वप्न दूर होते हैं। ३. स्वभाव परिवर्तन होने लगता है। ४. स्मृति का विकास होता है। व्यसन मुक्ति के लिए प्रयोग व्यसन प्रारम्भ में आदत नहीं होता। प्रारम्भ में तो स्नायुतंत्र भी उसका प्रतिरोध करता है। पर शनैः शनैः वह उस आदत का अभ्यासी बन जाता है। अभ्यास के साथ नसों से एक विशेष द्रव्य रक्त में मिलता रहता है, उसकी Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ प्रज्ञा की परिक्रमा कमी अथवा उपस्थिति से शरीर में रासायनिक परिवर्तन होता है। रासायनिक परिवर्तन आन्तरिक भाव, मन और इन्द्रियों को उत्तेजित करता है, जिससे शरीर असत् की ओर गतिशील बनने लगता है। वह इतना अधिक प्रभावी हो जाता है कि उसकी पकड़ से मुक्त होना उनके वश की बात नहीं रहती । व्यसनी स्वयं को दोषी और अपराधी महसूस करने लगता है अथवा समाज के प्रति विद्रोह की भावना से भर जाता है। उसकी अपनी अवधारणा बन जाती है। वह परिवार व समाज की अवहेलना कर मनमाने ढंग से जीने का प्रयत्न करता है । प्रेक्षा- ध्यान शिविरों में आने वाले व्यक्तियों में कुछ व्यसन से ग्रस्त भी होते थे। उनकी कठिनाई को देखते हुए व्यसन- - मुक्ति के प्रयोगों की खोज का क्रम चला। व्यसन-मुक्ति केवल उपदेश देने, डांटने और डराने से नहीं हो सकती है। उसके लिए सही समझ पैदा करना और उसके अन्तश्चित पर जमी आकर्षण की धारणा को संकल्प द्वारा परिवर्तित करने से ही व्यसन मुक्त बना जा सकता है। अनेक व्यक्तियों पर सफल प्रयोग से यह सिद्ध हो चुका है कि जो व्यक्ति व्यसन मुक्ति का इच्छुक है, उसे प्रेक्षा-ध्यान शिविर के अभ्यास के दौरान संकल्प योग का विशेष प्रयोग करवा कर निर्व्यसनी बनाया जा सकता है। बालोतरा में ३४ वें प्रेक्षा- ध्यान शिविर में एक व्यक्ति जो विभिन्न व्यसनों से ग्रस्त था, व्यसन मुक्ति की आकांक्षा से शिविर में शामिल हुआ । उसने प्रेक्षा- ध्यान प्रयोगों के साथ तीन दिन संकल्प योग का अभ्यास किया। यह एक सुखद आश्चर्य है कि वह बिना किसी कष्ट के व्यसन मुक्त हो गया। जब वह किसी कार्यवश बाजार गया तो मित्र मण्डली ने उसे चाय व सिगरेट दी । चाय को देखते ही उसे उल्टी होने लगी। उसने मित्रों से कहा- आप जिन्द न करें। मैंने तीन दिनों से व्यसन मुक्ति का एक प्रयोग किया है। मुझे इच्छा नहीं हो रही है कि मैं चाय, सिगरेट, शराब या अन्य कोई नशा करूं । प्रातः नाश्ते के लिए सभी के साथ वह भी बैठा था। नाश्ते में काली द्राक्षा दी गई। द्राक्षा का पानी भी गिलास में था । द्राक्षा के काले पानी को देखकर उसे शराब का भ्रम हो गया । होठों के नजदीक लाते ही उबकाई आने लगी । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग . जीवन-विज्ञान-प्रशिक्षण--शिविर में विभिन्न जिलों से आए अध्यापकों में से जैसलमेर, बीकानेर, जालौर आदि सथानों के कई अध्यापक जो वर्षों से सिगरेट, जर्दा एवं नशीले पदार्थों से ग्रसित थे, संकल्प के प्रयोग से व्यसन मुक्त हो गए। संकल्प प्रयोग क्या है ? संकल्प के प्रयोग में भावना द्वारा मन और चित्त को भावित किया जाता है। भावित मन पर जमे हए संस्कारों को धो डालता है। जो संस्कार मानस पर अंकित हो भावों तक गहरे चले जाते हैं, उनका भी संकल्प के प्रयोग से निरसन किया जाता है। प्रयोग करते समय आंखें मूंद कर सुखासन में मेरुदण्ड को सीधा रख कर बैठा जाता है। बाएं हाथ की हथेली को नाभि का स्पर्श कर स्थिर रखा जाता है। दाहिना हाथ घुटने के तीन अंगुल ऊपर रहता है। अंगुलियां खुली रहती है। श्वास-प्रश्वास दीर्घ और गहरा करते हैं। प्रत्येक श्वास की टकराहट नाभि को सक्रिय बनाती है। वहां से ऊर्जा का प्रवाह हाथ के अंगठे व अंगलियों की ओर बहने लगता है। ऊर्जा की धारणा की जाती है। ऊर्जा के प्रवाह को तीव्रतम बनाने के लिए मन्त्र-ध्वनि का भी प्रयोग करते हैं। इस अवधारणा के साथ अपने चेहरे का चित्र स्पष्ट दर्पण में प्रतिबिम्बित देखा जाता है। प्रयोग करने वाला अपने चेहरे को देख कर दर्शन-केन्द्र पर (भृकुटी के मध्य) चित्त को एकाग्र करता है और स्पष्ट अनुभव करता है कि हाथ ललाट की ओर आकर स्पर्श करने लगा है। स्पर्श होते ही प्रयोक्ता का चित्त अंतर्जगत् में प्रविष्टि हो जाता है। व्यसन मुक्ति के सुझाव एवं संकल्प का प्रयोग करने वाला सुझाव ग्रहण कर व्यसन मुक्त बन जाता है। संकल्प को परिपक्व बनाने की दृष्टि से संकल्प के इस प्रयोग को तीन बैठकों में दुहराया जाता है। भावना के विविध प्रयोग ___ भावना और अनुप्रेक्षा एकार्थक शब्द हैं। प्रेक्षा के द्वारा जिस सत्य को जाना. उसको अनुप्रेक्षा द्वारा बार-बार अनुभव करना । प्रेक्षा का अनुशासन करने वाली भावना अनुप्रेक्षा है। प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा शब्द प्राचीन हैं। युवाचार्य श्री ने प्रेक्षा को ध्यान का सन्दर्भ देकर गरिमापूर्ण स्थान दिलाया है। प्रेक्षा यथार्थ के साक्षात्कार की घटना है। यथार्थ क्षणिक न रह कर स्थायी बने, उसके लिए अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ प्रज्ञा की परिक्रमा अनुप्रेक्षा से स्वभाव परिवर्तन ___ अनुप्रेक्षा भाव परिवर्तन का सफल प्रयोग है। भाव प्रगाढ़ता भी अनुचिन्तन से ही होती है। 'अनुरागात् विरागः' अनुराग से विराग होता है। 'विषस्य विषमौषधम्' विष की औषध विष है। दवा की अनेक बोतलों पर लिखा होता है-'पॉयजन' । क्या दवा रोग को मिटाने के लिए है ? क्या विष रोग को मिटाता है ? विष का बढ़ना ही रोग है। प्राकृतिक चिकित्सक यही कह रहे हैं। विष का ठहराव ही रोग है। विष का निरसन ही रोग को दूर करता है। विष दूसरे प्रकार के विष को शमित भी कर सकता है। उसकी मात्रा को बढ़ा-घटा कर विष को शमन किया जा सकता है। अनुचिन्तन से भी भाव परिष्कृत और विकृत होते हैं। विकृति का परिष्कार हो, विष निर्विष बनें, राग वीतरागता में बदले। अनुप्रेक्षा से विकृति, विष, राग का निरसन कर भाव को रूपान्तरित किया जाता है। रूपान्तरण ही स्वभाव परिवर्तन है। परिवर्तन के लिए अनुप्रेक्षा भय की विभिन्न घटनाओं से व्यक्ति का चित्त प्रभावित होता है। प्रभाव इतना शक्तिशाली बन जाता है कि व्यक्ति अनचाहे उससे प्रभावित हो जाता है। भय के अनेक कारण हैं-जन्म, जीवन, रोग, जरा, मृत्यु | भय के कारणों की एक लम्बी सूची बन सकती है। भय उत्पन्न होने के सहस्रों कारण हो सकते हैं, उनके निरसन का एक उपाय है, अभय की अनुप्रेक्षा। अभय की अनुप्रेक्षा कायोत्सर्ग में शरीर को स्थिर, शिथिल होने का निर्देश दिया जाता है। शरीर के एक-एक अवयव को शिथिलता का सुझाव देकर शिथिलता का अनुभव किया जाता है। पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक प्रत्येक अवयव को शिथिल कर अभय की अनुप्रेक्षा का अभ्यास सरलता से किया जा सकता है। शरीर की स्थिति शिथिल हो जाती है, तब श्वास-प्रश्वास को शान्त और मन्द किया जाता है। मन्द-श्वास जब अन्दर जाता है तो उस समय यह भाव करना होता है कि हरे रंग के परमाणु श्वास के साथ फेफड़ों में फैलते जा रहे हैं। शरीर, श्वास, मन की स्थिर स्थिति में अभय की अनुप्रेक्षा की जाती है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग ११७ 'अभय का भाव पुष्ट हो रहा है, भय का भाव क्षीण हो रहा है। (नौ बार उच्चारण किया जाता है) स्वल्प समय पश्चात् मानसिक रूप से उच्चारित करते हुए अभय के भाव को पुष्ट करना होता है। 'अभय का भाव पुष्ट हो रहा है, भय का भाव क्षीण हो रहा है' इस वाक्य को चमकते हुए अक्षरों में धीरे-धीरे फेफड़ों पर पांच मिनट पढ़ना होता है। चित्त को आनन्द केन्द्र पर केन्द्रित किया जाता है, जहां दोनों पसलियां सामने मिलती हैं आनन्द केन्द्र पर चमकते हुए हरे रंग का ध्यान किया जाता है। (पांच मिनट) _ 'अभय' इस मन्त्र का कुछ देर तक उच्चारण करते हैं। चमकते हुए अक्षरों में कंठ से फुफ्फुस तक चित्त को फैलाकर 'अभय' मन्त्र का मानसिक जाप किया जाता है। (पांच मिनट) सहिष्णुता की अनुप्रेक्षा परिवार, समाज, राष्ट्र आज क्यों परस्पर दूर हो रहे हैं ? उसके कारणों की खोज में जायें तो पायेंगे कि टूटन और क्लेश का कारण है असहिष्णुता। व्यक्ति में सहने की क्षमता कम होती जा रही है। छोटा बच्चा भी सहन नहीं कर सकता है। परिवार में एक दूसरे को सहे बिना सुखद जीवन जिया जा सकता है ? असहिष्णुता की प्रतिपक्ष भावना है सहिष्णुता । सहिष्णुता के विकास में व्यक्ति शान्त रह सकता है। शान्त रहने वाला ही सम्यक् अनुचिन्तन और सच्चा कर्म कर सकता है। सहिष्णुता के विकास और आवेग आदि परिस्थितियों के शमन की दृष्टि से सहिष्णुता की अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता है। सहिष्णुता के विकास के साथ स्वयं व्यक्ति का जीवन और परिवार के सदस्यों के जीवन में सहने की क्षमता का विकास होता है। कायोत्सर्ग की मुद्रा में लेटकर अथवा बैठे-बैठे सहिष्णुता की अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता है। सर्वप्रथम शरीर के प्रत्येक अवयव को 'शिथिलता के लिए सूचित किया जाता है। चित्त को कंठ से फुफ्फुस तक फैलाया जाता है। नीले रंग का श्वास लेते हुए अनुभव करते हैं कि नीले रंग के परमाणु भीतर प्रवेश कर रहे हैं। 'सहिष्णुता का भाव पुष्ट हो रहा है, मानसिक सन्तुलन बढ़ रहा है' (नौ बार उच्चारण) उपरोक्त वाक्य चकमते हुए नीले अक्षरों में धीरे-धीरे फुफ्फुस Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ I प्रज्ञा की परिक्रमा पर पढ़ते हैं (पांच मिनट ) । सहिष्णुता के भाव को प्राणों में घुलने देते हैं विशुद्धि केन्द्र (कंठ) पर चित्त को एकाग्र किया जाता है । विशुद्धि केन्द्र पर चमकते हुए नीले रंग का ध्यान किया जाता है। अनुभव किया जाता है कि सहिष्णुता का भाव पुष्ट हो रहा है । सहिष्णुता के भावों को रोम-रोम में (प्राण-प्राण में) अनुभव करना होता है। (पांच मिनट ) सहिष्णुता का मन्त्र है 'अनन्त शक्ति ।' 'अनन्त शक्ति' मन्त्र को चमकते हुए अक्षरों में कंठ फुफ्फुस तक के स्थान पर देखना होता है। 'अनन्त शक्ति' मन्त्र का मानसिक जाप करते हुए सहिष्णुता को प्राणों में घुलने देते हैं। सहिष्णुता की तरह मुदिता, करुणा, मैत्री आदि की अनुप्रेक्षा भी की जा सकती है । ममत्व, अनुराग, प्रियजन की आकस्मिक मृत्यु से भी मन पर आघात पहुंचता है। कई बार आघात इतना गहरा होता है कि व्यक्ति का मानस विक्षिप्त सा हो जाता है। विक्षिप्तता को मिटाने के लिए, आसक्ति को तोड़ने के लिए अनित्य अनुप्रेक्षा उपयोगी होती है । प्राण का स्वभाव पर प्रभाव स्वभाव परिवर्तन में प्राण का महत्वपूर्ण स्थान है। शरीर में प्राण ऊर्जा ही एक ऐसी शक्ति है जो व्यक्ति के विकास और हास का कारण बनती है । कोई भी आदत प्राण शक्ति को प्राप्त किए बिना अधिक समय तक टिक नहीं सकती । प्राण शक्ति है, ऊर्जा है, उसका उपयोग जिस दिशा की ओर किया जाता है उस दिशा की ओर होने लगता है। स्वभाव परिवर्तन में प्राण ऊर्जा का दो तरह से उपयोग किया जा सकता (१) संकल्प द्वारा प्राण जागृत कर स्वयं में परिवर्तन | (२) प्राण की ऊर्जा को स्वयं में संग्रह कर दूसरे व्यक्तियों को शक्ति प्रदान करना । प्राण ऊर्जा ही व्यक्तित्व को जीवन्त बनाती है। ऊर्जा के चूकने से ही व्यक्ति निस्तेज बनता है। प्राण ऊर्जा को जागृत बनाए रखना ही तेजस्विता, कर्मशीलता है । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग प्राण ऊर्जा को जागृत करने का पहला प्रयोग है-प्राणायाम। श्वास-प्रश्वास से केवल जीवन ही नहीं चलता, प्राण का भी उत्पादन होता है। प्राणायाम से प्राण-ऊर्जा को उत्पन्न किया जा सकता है। प्राण-प्रयोग की प्रक्रिया से भी प्राण ऊर्जा को बढ़ाया जा सकता है। आतापना के द्वारा भी प्राण ऊर्जा बढ़ती है। ध्यान के द्वारा भी ऊर्जा को विकसित किया जाता है। पन्द्रह मिनट का अनुलोम-विलोम प्राणायाम ऊर्जा की आवश्यकता को पूरी कर देता है। अन्य उपायों द्वारा भी प्राण ऊर्जा को विकसित किया जा सकता है। प्राण ऊर्जा के विकसित होने से स्वयं के भाव को रूपान्तरित किया जा सकता है। किसी आदत अथवा व्यसन से मुक्त होने के लिए प्राण के प्रवाह को उनके केन्द्रों की ओर प्रवाहित कर मुक्ति प्रदान करता है। प्राण ऊर्जा से दूसरों के भावों को रूपान्तरित किया जा सकता है। हमारे शरीर में प्राण के ग्रहण और निष्कासन के केन्द्र हैं, हाथ ओर पांवों की अंगुलियों से प्राण ऊर्जा बहती है। चैतन्य केन्द्रों से भी ऊर्जा को दूसरों को प्रदान किया जा सकता है। प्राण को चक्षुओं के माध्यम से भी दूसरों तक पहुंचाया जाता है। प्राण और भाव दोनों मिलकर नवीन सृष्टि का सृजन कर सकते हैं। दूसरे व्यक्ति के स्वभाव और आदतों में परिवर्तन करने के लिए प्राणयुक्त भाव का उपयोग किया जाता है। दूसरे के स्वभाव और आदतों के परिवर्तन के लिए अपने आपको तैयार करना होता है। इसका तात्पर्य है कि जो व्यक्ति भाव परिवर्तन के लिए प्रयोग कर रहा है, उसे प्रारम्भ में तीन मिनट दीर्घ-श्वास का अभ्यास करना होता है। प्रत्येक श्वास-प्रश्वास में मैत्री भाव को पुष्ट बनाते हुए प्रयुक्त के साथ मैत्रीभाव स्थापित करना होता है। वह प्रयुक्त की ओर प्राणधारा बहती हुई अनुभव करता है। प्राणधारा से प्रयुक्त प्रभावित हो रहा । प्रयुक्त को लिटाकर (कायोत्सर्ग में) हाथों की अंगुलियों को आगे से थोड़ा मोड़ कर यह भाव करें कि अंगुलियों से प्राणधाराएं बरस रही हैं। प्रयुक्त को भी निर्देश दें कि वह अनुभव करे कि प्राणधारा बरस रही है। उससे मेरे स्वभाव में परिवर्तन हो रहा है। मैं शान्त हो रहा हूं। मेरे भीतर शान्ति का सागर लहराने लगा है। इस प्रकार अन्य भावों को भी शब्दों में बांधकर प्रयोग किया जा सकता है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० प्रज्ञा की परिक्रमा व्यसन मुक्ति और आदत परिवर्तन के लिए कायोत्सर्ग की अवस्था में छोटे-छोटे वाक्यों द्वारा तादात्म्य से मधुरता से सुझाव देकर किसी को व्यसन मुक्त बनाया जा सकता है मैं व्यसन मुक्त हो गया हूं, नशीले पदार्थ विष युक्त होते हैं। मैं उनको अब नहीं पी सकता। नशीले पदार्थों में बड़ी तेज बदबू आ रही है। मैं अब व्यसन नहीं कर सकता। मैं व्यसन मुक्त हो गया हूं। रसायन परिवर्तन से भाव परिवर्तन ग्रन्थियों के स्राव (रसायन) परिवर्तन से भाव परिवर्तन होता है। भाव रसायन को प्रभावित करता है। रसायन जीवन व्यवहार को बदलता है । व्यवहार की पुनरावृत्तियां आदत बनती हैं। आदत से व्यक्ति आक्रान्त हो असह्य हो जाता है, चाहने पर भी इस आदत से मुक्त नहीं हो पाता। उसके वश की बात नहीं रहती है। रसायन परिवर्तन के लिए प्राचीन और नवीन पद्धतियों में औषध का उपयोग किया जा रहा है । औषध से ग्रन्थियों का स्राव परिवर्तन हो सकता है । किन्तु औषध सर्वसुलभ नहीं हो सकती। कुशल डॉक्टर के बिना उनका उपयोग खतरे से खाली नहीं रहता । मात्रा की न्यूनाधिकता मस्तिष्क और स्नायु तंतुओं को खतरे में डाल सकती है । औषध के सहगामी परिणाम भी भयावह हो सकते हैं । 1 I भावना के द्वारा स्रावों (रसायनों) के परिवर्तन का भावों द्वारा रसायन परिवर्तन का मार्ग सरल और सर्वगम्य है। भावना के विविध प्रयोग और विविध उपयोग है । व्यक्ति के सर्वांगीण विकास, स्वभाव परिवर्तन के लिए भावना के प्रयोग अद्भुत हैं । भावना के प्रयोग के लिए स्थिर आसन में शरीर को शिथिल करने का अभ्यास सर्वप्रथम किया जाता है। शरीर की शिथिल स्थिति में श्वास को लयबद्ध बनाना होता है। लयबद्ध श्वास के सयम भावना की निश्चित शब्दावली का उपयोग किया जाता है। शरीर में विभिन्न भावनाओं की अभिव्यक्ति के स्थान है। उन पर ध्यान केन्द्रित कर भावना की शब्दावली के साथ ग्रन्थियों के स्रावों का परिवर्तन किया जाता है । ग्रन्थियों और उनके स्रावों को नियन्त्रण करने वाली उन प्रमुख ग्रन्थियों पर ध्यान केन्द्रित कर भावित किया जाता है। क्रोध, आवेग आदि वृत्तियों के लिए एड्रिनल, गोनाड्स के स्रावों का परिवर्तन करना आवश्यक है। दोनों ग्रन्थियों पर ध्यान केन्द्रित कर भावना के द्वारा स्रावों का सन्तुलन किया जाता है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग १२१ संतुलित ग्रन्थियों से उत्तेजित वृत्ति होने पर भी वे तत्काल प्रभावित नहीं होती। पिच्युटरी, पिनियल प्रमुख ग्रन्थि कहलाती हैं। भावनाओं को रूपान्तरित करने में भी इनका महत्वपूर्ण स्थान है। योग अथवा साधना में दर्शन केन्द्र, ज्योति केन्द्र के विकास पर बड़ा बल दिया गया है। दर्शन और ज्योति केन्द्र से स्रावों का सन्तुलन बनने लगता है जो व्यक्तित्व का विकास, स्वभाव परिवर्तन की आधारशिला है। भाव से विचार, चिन्तन, क्रिया सभी प्रभावित होते हैं। भावना के प्रयोग के लिए बहुत अवकाश है। चिकित्सा, मनोविज्ञान, अध्यात्म के अतिरिक्त जीवन व्यवहार, स्वभाव परिवर्तन, विकास की विभिन्न शाखाओं में भावना का उपयोग किया जाता है। स्मृति, विकास, शिक्षा और शिक्षण में भी भावना का अधिक से अधिक उपयोग किया जाने लगा है। दैनन्दिन की समस्याओं का समाधान भी भावना प्रयोग से सम्भव है। ०००० Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अभिनव सामायिक अनुष्ठान सामायिक जैन साधना की महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। जैन दर्शन का संपूर्ण सार एक शब्द में अभिव्यक्त किया जाए तो वह सामायिक (समता) ही हो सकता है। समता साधना का आधार है। समता साधना काल में साधन पूर्णता साध्य है । प्रेक्षा समता की आराधना का मार्ग है। सामायिक जैन उपासक के लिए अनिवार्य उपक्रम है। श्रावक के बारह व्रतों में नवां व्रत सामायिक की आराधना का है। बारह व्रतधारी श्रावक को प्रतिदिन सामायिक करना अनिवार्य है। पांच अणुव्रत - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, इच्छा-परिमाण (अपरिग्रह) शिक्षाव्रत - दिग्व्रत, भोगोपभोगव्रत, अनर्थदण्ड - व्रत, सामायिक - व्रत, देशावकाशिक, पौषधोपवास, यथासंविभाग- व्रत। इस प्रकार बारह व्रत की परिकल्पना भगवान् महावीर ने की थी । भगवान् महावीर के समय इन व्रतों का अनुपालन करने वाले लाखों श्रावक थे। उसका प्रभाव सामाजिक जीवन पर पड़ा । अणुव्रत के माध्यम से भगवान् महावीर ने श्रावक के चरित्र को प्रभावी और आचारनिष्ठ बनाया। विचारों में अनेकान्त और आचरण में समता की सरिता प्रवाहमान की । जैन श्रावक जितना सहिष्णु, समतानिष्ठ और सहनशील होता है । यह अपने आप में एक आदर्श है। समता का व्यवहार में अवतरण श्रावक की अध्यात्म-निष्ठा ने ही उसे धर्म के तत्त्व को गहराई से पहचानने और उसे जीवन व्यवहार में जीने की प्रेरणा प्रदान की । आनंद आदि श्रावकों के जीवन व्रत इस बात के साक्षी हैं कि संपन्नता के शिखर पर पहुंचकर संयम और श्रम में कैसे निरत रहा जा सकता है। व्यक्तिगत उपभोग नाम मात्र का था । करोड़ों का वैभव होते हुए भी अपने लिए कुछ एक वस्त्र एवं सीमित भोजन की व्यवस्था कर संपूर्ण सम्पत्ति का सम विभाग कृषि, परिवार, चिकित्सा एवं लोक कल्याण में कर इच्छा - परिणाम व्रत को पुष्ट किया । किसी भी आदर्श को व्यवहार तक लाने के लिए उसे प्रायोगिक रूप देना ही होता है। भगवान् महावीर ने समता के आदर्श को जीवन-व्यवहार में Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनव सामायिक अनुष्ठान १२३ उतारने के लिए प्रथम सोपान सम्यग-दर्शन को बताया। सम्यग्-दर्शन से सम्यग-ज्ञान का मार्ग प्रशस्त होता है। सम्यग-दर्शन और ज्ञान जब आचरण में उतरता है तब सम्यग-चारित्र बन जाता है। सम्यग-दर्शन, ज्ञान और चारित्र की समन्विति से समता उपलब्ध होती है। श्रावक सम्यग-दर्शन की भूमिका को उपलब्ध कर अणुव्रत स्वीकार करता है। अणुव्रत को पुष्ट और पूर्ण बनाने के लिए ही शिक्षा-व्रत को स्वीकार करता है। अणुव्रत हो अथवा शिक्षाव्रत, सबका उद्देश्य व्यक्ति के चित्त में समत्व का विकास करना है। इसको इस प्रकार की अभिव्यक्ति दी जा सकती है कि समत्व के विकास से अणुव्रत, शिक्षाव्रत स्वयं प्रगट होने लगते हैं। सामायिक का संकल्प सूत्र भगवान् महावीर आदर्शवादी थे तो व्यवहारवादी भी। वे आदर्श और व्यवहार का समन्वय करके चलते थे। उन्होंने साधक को जहां आदर्शोभिमुख बनाया वहां साधना की व्यावहारिक व्यवस्था भी प्रदान की। साधु और श्रावक की चर्चा साधना की व्यवहारिक भूमिका है। श्रावकाचार में सामायिक का अनुष्ठान एक अध्यात्मिका अनुष्ठान है। भगवान् महावीर के समय सामायिक का अनुष्ठान कैसे किया जाता था, उसकी प्रविधि शास्त्रों में उपलब्ध है। सामायिक का संकल्प सूत्र कहता है-"करेमि भन्ते ! सामाइयं" हे भगवान् ! मैं सामायिक करता हूं। उसमें सावज्जं जोगं पच्चक्खामि-सावद्य पापकारी प्रवृत्ति का प्रत्याख्यान करता हूं। साधुचर्या में यह संकल्प जीवन पर्यन्त होता है। वहां श्रावक सावधि अन्तरमुहूर्त के लिए प्रत्याख्यान करता है। सामायिक का अनुपालन दो करण और तीन योग से होता है अर्थात् किसी दुष्प्रवृत्ति को मन, वचन और काया द्वारा करना नहीं, करवाना नहीं, उसकी अनुशंसा करनी नहीं। पहले की हुई दुष्प्रवृत्ति से निवृत्त होने के लिए गुरु साक्षी से आलोचना करता है। सामायिक का यह क्रम जैन समाज में प्रचलित है। सामायिक के इस प्रत्याख्यान में कितनी सजगता रही है। यह विमर्शनीय प्रश्न है ? सामायिक का संकल्प करते समय घड़ी का अवलोकन करते हैं। घड़ी की सूई घूमकर पचास मिनट पर आ जाती है और सामायिक सम्पन्न हो जाती है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ प्रज्ञा की परिक्रमा ___मानो, सामायिक का संकल्प घड़ी ने किया हो। प्रारम्भ में सम्भवतः सामायिक के अवतरण की विधियां ज्ञात थीं किन्तु वर्तमान में वे लुप्त प्रायः हो गई हैं। केवल संकल्प के सूत्र उपलब्ध हैं, जिनमें सामायिक के अनुष्ठान का विवरण है, किन्तु समता की विधि का कोई उल्लेख नहीं है। केवल विवरण को दुहराने से कोई परिणाम उपलब्ध नहीं हो सकता। विवरण और प्रयोग दो भिन्न दिशाएं हैं। विवरण से सूचना मिल सकती है। प्रयोग के बिना अनुभव नहीं किया जा सकता। प्रयोग जागरण का अवतरण करता है। अभिनव सामायिक अनुष्ठान प्रविधि प्रारम्भ में वन्दे अर्हम्, वन्दे सच्चं, वन्दे गुरुवरम् वन्दना आसन में करें। अभिनव सामायिक अनुष्ठान में संकल्प के पश्चात् चतुर्विशति (चौबीस तीर्थंकरों) का स्मरण कायोत्सर्ग की मुद्रा में किया जाता है। वर्तमान में मन, वाणी और काया को समता में प्रतिष्ठित करने के लिए "असिआउसा" दीर्घश्वास-प्रेक्षा और त्रिगुप्ति संयम का अभ्यास किया जाता है। प्रथम प्रयोग - कायोत्सर्ग के साथ समता की स्थिति को अधिक गहरी और गतिमान बनाने के लिए नमस्कार महामंत्र के प्रत्येक पद के आदि अक्षर "अ सि आ उ सा" का जप रूप में उपयोग किया गया है। जप का तात्पर्य "तदर्थभावनं जपः" समता के उस भाव को पुष्ट बनाने के लिए परमेष्ठी मंत्र से अधिक कौन श्रेष्ठ मंत्र हो सकता है ? पन्द्रह मिनट के इस जप अनुष्ठान को भी तीन भाग-पांच-पांच मिनट में विभाजित किया गया है। उच्चस्वर जप, मध्यम जप, उत्तम जप। उच्चस्वर जप पूर्ण उच्चारण लयबद्ध एवं शान्त स्वर में किया जाए। मध्यम जप केवल होठों में धीरे-धीरे स्मरण किया जाता है। उत्तम जप में जागरूक रहकर मानस जप किया जाए। दूसरा प्रयोग - चित्त को नाभि पर केन्द्रित कर दीर्घ-श्वास से होने वाले और पेट के सिकुड़ने और फैलने के स्पंदनों का अनुभव करे। तीन मिनट के बाद चित्त को दोनों नथुनों के भीतर सन्धि स्थल पर केन्द्रित कर, आते-जाते हुए श्वास-प्रश्वास की प्रेक्षा करें । दीर्घ-श्वास लयबद्ध लें । पहला, दूसरा, तीसरा सभी श्वास-प्रश्वास एक जितने ही हों । श्वास रोकने का प्रारम्भ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनव सामायिक अनुष्ठान १२५ में प्रयत्न नहीं करें। सुख पूर्वक जितना लम्बा, गहरा श्वास-प्रश्वास आता है. उसे धीरे-धीरे वैसे ही आने दें। दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा केवल श्वास और प्रश्वास का नियमन नहीं है। श्वास-प्रेक्षा मन वाक् और शरीर को स्थिर, शान्त बनाने का अचूक तरीका है। श्वास और मन एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। श्वास शान्त एवं दीर्घ होते ही मन शान्त और स्थिर होने लगता है। काम, क्रोध, आवेगात्मक स्थिति में श्वास सर्वप्रथम उत्तेजित होता है। श्वास उपशान्त होते ही आवेग स्वयं उपशान्त होने लगता है। श्वास-प्रेक्षा से आवेग का शमन होता है। दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा से शुद्ध वाय फेफड़ों में अधिक मात्रा में पहुंचता है। दीर्घ-रेचन से फेफड़ों में ठहरा हुआ कार्बनडाइ आक्साइड (दूषित वायु) बाहर निकलता है जिसका सीधा असर व्यक्ति के स्वास्थ्य पर आता है, वह अपने आप को स्वस्थ और शान्त अनुभव करने लगता है। मन की चंचलता का भी श्वास-प्रेक्षा से निरसन होने लगता है। श्वास-प्रेक्षा से चित्त सरलता से एकाग्र हो वर्तमान में उपस्थिति रहने लगता है, जिससे समता सहज फलित होती है। तीसरा प्रयोग-त्रिगुप्ति की आराधना अथवा प्रेक्षा-ध्यान है। मन, वाणी और काया को स्थिर करते हुए समता के भाव में चित्त को लीन करें। शरीर को शिथिल रखें। स्वर-यंत्र को भी शिथिल करें। विचार स्थिरता के पश्चात् दर्शन-केन्द्र पर चित्त को केन्द्रित करते हुए वहां पर होने वाले स्पंदन, कम्पन, भारीपन, हल्कापन या अरुण (लाल रंग) ज्योति का अनुभव करें। इस प्रकार १५ मिनट "अ सि आ उ सा" का जप एवं १५ मिनट दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा, १० मिनट त्रिगुप्ति संयम के अभ्यास से ४० मिनट होते हैं। सामायिक का प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग आदि में लगभग ५ मिनट लग जाते हैं। शेष ५ मिनट में परमेष्ठी-वन्दना एवं सामायिक की आलोचना इस प्रकार ५० मिनट में अभिनव सामायिक का अनुष्ठान पूर्ण हो जाता है। सामायिक की अन्तिम परिणति---मुक्ति सामायिक का यह आध्यात्मिक क्रम चेतना में अभिनव क्रान्ति को घटित करता है, जिससे व्यक्ति का भाव-परिवर्तन और व्यक्तित्व का सर्वांगीण Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ प्रज्ञा की परिक्रमा विकास संभव होता है। सामायिक के अनुष्ठान का विधिवत् प्रशिक्षण प्राप्त कर उसका प्रयोग करने से समता जीवन और व्यवहार में उतरने लगती है। सामायिक का यह प्रयोग केवल अध्यात्म के विकास का ही साधन नहीं है। इससे व्यवहार और व्यक्तित्व में भी रूपान्तर होता है । व्यवहार में आने वाले परिवर्तन से जीवन की दिशा ही परिवर्तित हो जाती है। सामायिक के इस अनुष्ठान से शारीरिक, मानसिक आध्यात्मिक स्वास्थ्य को उपलब्ध होकर चैतन्य की परम अवस्था मुक्ति को उपलब्ध हो सकते हैं। मुक्ति कोई पद अथवा स्थान नहीं। विषमता बन्धन लाती है, समता मुक्ति । मुक्ति चैतन्य का स्वरूप है, अवस्था है। वह समता से घटित होती है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ आलोक कल एक युवक आया। जीवन में कुछ कर गुजरने की उसकी तीव्र आकांक्षा थी किन्तु वह कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा था कि उसे क्या करना है। उसने मुझसे कहा-'यह जीवन अत्यन्त कीमती है, ऐसा मैंने शास्त्रों और प्रवचनों में पढ़ा व सुना है। मुझे बताएं जीवन की महत्ता को कैसे पूरा किया जाये ?' ___ मैं उसके प्रश्न को सनकर मौन हो गया। मेरी मौन-भंगिमा को वह एकटक देखने लगा। प्रश्न उसका वैसे ही प्रस्तुत था। वह मेरी गम्भीर मुद्रा को देख स्थिर हो गया। मैंने कोई प्रत्युत्तर उसमें उडेलने की कोशिश नहीं की। मैं शान्त मन से उनके प्रश्न को दुहराने लगा। वह प्रश्न भी गहराई में जा रहा था। मैंने देखा कि उसके गम्भीर चेहरे पर गुलाबी फूट रही थी। उसका अन्तर अभिव्यक्ति के लिए उत्कंठित-सा लग रहा था, फिर भी वह मौन था। प्रश्न को जब तक हम गहराई से और निकटता से अनुभव नहीं करते तब तक प्रश्न ऊपर, ऊपर ही तैरता रहता है। प्रश्न को गहराई से खोजने की कोशिश करने पर सत्य स्वयं प्रस्तुत हो जाता है। आज हर प्रश्न का समाधान बाहर से पाने की कोशिश होती है। शास्त्रों एवं महापुरुषों की ओर ताका जाता है किन्तु बाहर से आये समाधान से अन्तर को आलोकित नहीं किया जा सकता है। अन्तर् को आलोकित केवल आत्म-विज्ञान ही कर सकता है। आत्म-विज्ञान और सम्यग्-ज्ञान भिन्न नहीं है। हर चेतन अपने आप में दिव्य आलोक से आलोकित है। वह अनन्त प्रकाश से प्रकाशित है। प्रश्न केवल इतना ही अवशिष्ट रह जाता है कि उस आवृत चेतन का बोध कैसे किया जाए। इसको समग्रता से जानना ही सजग होना है। दिव्य प्रकाश प्राप्त करता है। जब तक बाह्य से तादात्मय स्थापित करने का प्रयत्न चलेगा, तब तक अपने आपको व्यक्त नहीं कर सकते। अपने आप Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ प्रज्ञा की परिक्रमा को व्यक्त न होने देने का कारण स्वयं की मूर्च्छा ही है। मूर्च्छा में सम्यग् ज्ञान का प्रकाश आवृत रहता है। सम्यग् ज्ञान आते ही हमारा साध्य स्पष्ट हो जाता है। स्पष्टता से स्थिरता आती है। स्थिरता का ही दूसरा नाम सम्यग् दर्शन है। उसका जीवन व्यवहार में आचरण सम्यक् चरित्र है। महावीर ने जिस सम्यग् - ज्ञान, दर्शन, चारित्र का उल्लेख किया है, जिसे मोक्ष मार्ग कहा गया है वह यही है कि हम अपने आप में जागृत हो जाएं। युवक के मुखमण्डल पर आलोक की रेखा चमक रही थी । OOOO Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ स्वतन्त्रता के बदलते मूल्य स्वतंत्र ‘स्व शासन' कितना प्यारा शब्द ! कुछ शब्द ऐसे प्रिय होते हैं, उनकी व्याख्या नहीं की जा सकती। जब वे अस्तित्व की अभिव्यक्ति पाते हैं, तब चैतन्य में एक नव स्पंदन स्फुरित होने लगता है। क्या स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है ? अथवा किसी व्यक्ति, जाति या राष्ट्र का ही यह अधिकार है ? प्रश्न सीधा और सपाट है, क्या एक व्यक्ति और जाति को ही स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार है ? जो राष्ट्र स्वतंत्रता का जीवन जी रहे हैं। उनके नीचे अनेकों राष्ट्र जाति और व्यक्ति परतंत्रता का जीवन अत्यन्त निम्न अवस्था से जी रहे हैं। क्या यह स्वतंत्रता में विश्वास की विडम्बना नहीं है ? क्या स्वतंत्रता का अर्थ मात्र राज्य सत्ता का परिवर्तन है ? तब उस विराट उद्देश्य की पूर्ति कैसे हो पाएगी? स्वतंत्रता 'वैयक्तिक सच्चाई है जिसे प्राप्त हुए बिना व्यक्ति पूर्णता को उपलब्ध नहीं हो सकता। स्वतंत्रता और राज्य सत्ता स्वतंत्रता का सीधा संबंध राज्य सत्ता से नहीं है, राज्य सत्ता कब किस पार्टी अथवा व्यक्ति को उपलब्ध हो जाती है। जिस व्यक्ति अथवा पार्टी को उपलब्ध होती है तब क्या दूसरी पार्टी वाले की सत्ता आते ही स्वतंत्रता में परिवर्तन आ जाता है ? स्वतंत्रता के अनेक पहलू हैं। वैयक्तिक स्वतंत्रता व्यक्ति का मूलधन है। किसी भी सत्ता, शासन अथवा तंत्र का यह अधिकार नहीं कि वह मूल के अधिकार में हस्तक्षेप करें। राज्य सत्ता के अपने अधिकार होते हैं, जिससे वह समाज और राष्ट्र की सीमित सुरक्षा करती है। आज सामहिक व्यवस्था इतनी महत्त्वशील हो गई है। जिससे राज्य सत्ता को इतना सामर्थ्य उपलब्ध हो गया है कि उसके सामने वैयक्तिक स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं रह गया। राज्य स्तर पर अधिकार करने वाला आखिर व्यक्ति ही तो हैं। व्यक्ति स्वयं अपनी स्वतंत्रता का हनन करें, सत्ता मुख्य मानने लग Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० प्रज्ञा की परिक्रमा जाए तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा। स्वतंत्रता वैयक्तिक ऐश्वर्य है। हर व्यक्ति का अपना निजी पथ है। किसी भी व्यवस्था में जब तक व्यक्ति की स्वतंत्रता को हनन करने का प्रयत्न नहीं किया जाता तब तक उस व्यवस्था का सामूहिक रूप से बहिष्कार नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता की बदलती दिशा ___स्वतंत्रता वैयक्तिक होते हुए भी समाज से जुड़ी हुई है। कुछ व्यवस्थाओं में समाज को ही महत्त्व दिया गया है। व्यक्ति समाज रूपी मशीन का पूर्जा मात्र है। समाज की व्यवस्था को ठीक बनाने से व्यक्ति स्वतः ठीक हो जाता है। साम्यवादी परम्परा में शिक्षा, चिकित्सा, भोजन और वस्त्र आदि की समुचित व्यवस्था का सामान्यकरण किया गया है। हर व्यक्ति को भोजन, वस्त्र, शिक्षा और चिकित्सा मिले, इसके लिए वह अपने प्रावधानों में इसकी समुचित व्यवस्था करता है। मनुष्य केवल यंत्र नहीं। एक स्वतंत्र चैतन्य है, जो उसके अन्तर् में प्रज्वलित हो रहा है, यद्यपि व्यक्ति की बुद्धि को समाज ने प्रशिक्षण देकर इस प्रकार निर्मित कर दिया है कि व्यक्ति का चिन्तन सामाजिक बन गया है। समाज के इस अनुचिंतन के बावजूद भी व्यक्ति आखिर व्यक्ति ही रहता है। उसने अपने निजी व्यक्तित्व को विकसित करने पर ही ध्यान दिया है। आज मनुष्य ऐसे किनारे पर खड़ा है कि जहां एक ओर निजी इच्छा है तो दूसरी ओर समाज की सामूहिक व्यवस्था । व्यवस्था आखिर व्यवस्था होती है। उसमें व्यक्ति की विवशता जड़ी होती है। आज व्यक्ति कितना ही व्यक्ति रहे उसे समाज का सहयोग लेना ही होता है। जहां दूसरे से कुछ लिया जाएगा तो उसका मूल्य चुकाना ही होगा। इसमें व्यक्ति का शोषण हुए बिना नहीं रह सकता। शोषण जहां होता है वहां प्रतिक्रिया हुए बिना नहीं रह सकती। प्रतिक्रिया में प्रतिरोध और फिर हिंसा का सिलसिला चालू हो जाता है। इसलिए नई पीढ़ी समाज का अंग बनने से इंकार कर रही है क्योंकि स्वीकृति के साथ समाज की व्यवस्थाओं को स्वीकार करना होता है, वह स्वतंत्र चिन्तन के लिए दीवाल बन खड़ी हो जाती है। नया चिन्तन और विकास संघर्ष की भूमि पर ही खड़ा होता है। व्यक्ति और स्वानुशासन व्यक्ति समाज की व्यवस्था को मानना न चाहे तो उसे मनमाने ढंग से तो जीने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है इससे अराजकता और Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ स्वतन्त्रता के बदलते मूल्य उच्छृखलता फैलती है। व्यक्ति की चेतना इस तरह स्वानुशासित बनें जिसमें दूसरे का नियंत्रण नहीं के बराबर हो। स्वानुशासन के लिए आत्म-निरीक्षण आवश्यक है जिससे व्यक्ति अपने गुण-अवगुण की पहचान कर सके। गुण-अवगुण की पहचान का सरल माध्यम ध्यान है। ध्यान स्व के साक्षात् की प्रक्रिया है। उससे चेतना की निर्मलता बढ़ती है, व्यक्ति स्वतः आत्म-संयम की ओर प्रेरित होता है। क्या स्वतंत्रता शोषण का नया नाम है ? स्वतंत्रता की आवाज इस सदी से जिस रूप में उठी हर वर्ग, समाज और राष्ट्र स्वतंत्र होने को उत्सुक हो रहे हैं। स्वतंत्रता की स्थिति का जायजा लेने के बाद विश्व के स्वतंत्र देशों की घटनाएं और स्थितियां उभर कर सामने आती हैं। तब लगता है कि स्वतंत्रता कि परिकल्पना करने वाले व्यक्तियों ने जब सोचा कि हम स्वतंत्र होगें, मन चाहा करेंगे लेकिन आज जो स्थिति है वह परतंत्रता से भी अधिक भयावह बनती जा रही है। पर शासन के विरुद्ध आवाज उठायी जा सकती थी। अपना ही शासन हो तब क्या किया जाए? शासन सूत्र संभालने वाले एवं उसकी व्यवस्था करने वाले अपने ही लोगों का शोषण किस तरह कर रहे हैं ? इसमें न राष्ट्र का हित है और न ही व्यक्ति का। स्वतंत्रता की वर्षगांठ पर एक बार पुनः चिंतन की अपेक्षा है, क्या स्वतंत्रता का उपयोग व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के विकास में किया जा सकता है ? या स्वयं के पोषण के लिए। जब तक स्वतंत्रता का उपयोग पर शोषण के लिए होता रहेगा तब तक यह प्रश्नचिन्ह बना ही रहेगा कि क्या स्वतंत्रता शोषण का नया नाम तो नहीं हो गया ? __ स्वतंत्रता जैसी श्रेष्ठ स्थिति व्यक्ति के लिए स्वप्न में भी नहीं हो सकती। व्यक्ति स्वतंत्रता सापेक्ष सत्य है, पूर्णता की घटना शरीर रहते चैतन्य में घटित नहीं हो सकती। क्योंकि स्वतंत्रता अर्थात् स्वायत्तता की भी सीमाएं हैं। सीमा चाहे वह देश, क्षेत्र, काल सापेक्ष हो उसे व्यक्ति को स्वीकारना ही होता है। जहां पर स्थितियों की सापेक्षता हुई स्वतंत्रता की भी सीमा बन जाती है। स्वतंत्रता व्यक्ति के लिए प्रथम और अन्तिम स्थिति है। स्वतंत्रता प्रारम्भ में साधन है अन्त में सिद्धि। व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता का मूल्य सर्वोपरि है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ प्रज्ञा की परिक्रमा व्यक्ति और स्वतंत्रता ___ व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व की इकाई है। सबका मूल व्यक्ति है। व्यक्ति के लिए ही परिवार, समाज व राष्ट्र की संकल्पनाएं की गई हैं। व्यक्ति के विकास और उसके सामर्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए ही जो व्यवस्थाएं जुटाई जाएं, वे ही जब उसके विकास और सामर्थ्य को लीलने लग जाए तब कैसे संभावना की जाए कि व्यक्ति का विकास होगा। व्यक्ति चिन्तनशील प्राणी है वह अपने हिताहित का निर्णय स्वयं अपने विवेक से करें, विवेक का जागरण उसके विकास के लिए आवश्यक है। विवेक जागरण की चर्चा के साथ एक प्रश्न जुड़ जाता है कि किसे विवेक कहा जाए और किसे अविवेक । विवेक और अविवेक के बीच भेद-रेखा बनाना कठिन हैं, फिर भी उसकी कोई कसौटी तो बनानी ही होती है। कसौटी का पहला घटक हो सकता है-जागरूकता। दूसरा स्व पर विराधना का परित्याग अर्थात स्वार्थ चेतना का त्याग। जागरूकता विवेक का आधार है, स्वार्थ चेतना व्यक्ति को मूढ़ बनाती है। मूढ़ता विवेक को विस्मृत बना देती है। विस्मृत विवेक ही अविवेक में उतारता है। जागरूकता और स्वार्थ चेतना के परित्याग का परिणाम ही स्वतंत्रता है। जितने अंशों में जागरूकता बढ़ती है स्वार्थ चेतना का परिहार होता है ; व्यक्ति स्वतंत्रता की ओर यात्रा करने लगता है। स्वतंत्रता का पहला पड़ाव चिंतन की स्पष्टता, दूसरा आचरण की विशुद्धता। चिन्तन और आचरण की विशुद्धता स्वतंत्र व्यक्तित्व को निर्मित करने में सहयोगी बनती है। सत्ता, शासन के बीच स्वतंत्रता सत्ता, शासन, अनुशासन की मर्यादा क्या हो ? कहां सत्ता की अपेक्षा शासन को है। कहां अनुशासन सत्ता और अनुशासन से फलित होता है ? सत्ता शासन और अनुशासन की कहां एकात्मकता है ? कहां उसका स्वतंत्र अस्तित्व है ? यह प्रश्न चिर-चिन्तनीय है। हर अस्तित्व का स्वतंत्र व्यक्तित्व है। हर व्यक्तित्व की अपनी स्वतंत्र यात्रा होती है। सत्ता की अपनी शक्ति है। शक्ति ही सत्ता को जीवन्त बनाए रखती है। लेकिन शक्ति सत्ता पर उस प्रकार हावी हो जाए कि सत्ता के स्वतंत्र अस्तित्व को तिरोहित करने लग जाए, तब प्रतिरोध होना प्रारम्भ हो जाता है। आखिर सत्ता भी व्यक्ति के सहारे जीवन्त बनती है। व्यक्ति द्वारा ही शक्ति, सत्ता शासन का आसन सम्भालती Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतन्त्रता के बदलते मूल्य १३३ है और अनुशासन की चर्चा करती है। क्या कोई सत्ता स्वयं अनुशासित हुए बिना शासन संचालित कर सकती है ? यदि करती है तो वह कितने समय तक सुरक्षित रह सकती है। स्वयं का शासन ही उसे स्वयं निगल जाता है। अतः शासन संचालन से पूर्व सत्ता को अनुशासन से अपना आत्म-संयम करना होता है। शासन सत्ता की शक्ति का सहयोग केवल सुव्यवस्था के लिए करें । शासन अनुशासन को प्रकट होने का अवसर प्रदान करें। समाज की सामूहिक रूप से स्वीकृत व्यवस्थाओं को स्वहित समझ कर स्वीकार करें। अनुशासन में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सभी का हित है । पदार्थ की अपनी विशेषता है, वह सदैव विकास के लिए प्रयत्नशील रहता है । वह बन्धन से निर्बन्ध होना चाहता है । चैतन्य अथवा कोई पदार्थ सदैव गतिशील बनकर स्वतंत्र इकाई के रूप में परिवर्तित होने को उत्सुक रहता है । स्वतंत्रता का यही आधारभूत अस्तित्व है। स्वतंत्रता सबका जन्म सिद्ध अधिकार है। उसकी उद्घोषणा महान् व्यक्तित्व की अपनी एक विशेष दृष्टि है । सत्ता, शासन, अनुशासन तीनों उपयोग का अस्तित्व स्वातन्त्र्य के लिए होता है तो वह व्यक्ति समाज, राष्ट्र और विश्व के कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है। अन्यथा ये शब्द मात्र उपचार रह जाते हैं । स्वतंत्रता की अवधारणा भी सीमित है। इस जगत् में कोई भी असीमित और पूर्ण स्वतंत्र नहीं होता। स्वतंत्रता की भी सीमा और सापेक्षता है। उससे इन्कार नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता के ख्वाब में डूबने वालों को उसकी सीमाओं का स्पष्ट बोध होना आवश्यक है। स्वतंत्रता स्वच्छन्दता नहीं, स्वयं के अनुशासन की पूर्णता है । स्वानुशासन और प्रेक्षा प्रेक्षा मूर्च्छा को तोड़ने की प्रक्रिया है । मूर्च्छा ही व्यक्ति को विभ्रम में डालती है । विभ्रम शंकाशील बनता है। शंकाशील बन्धन को प्राप्त होता है। बन्धन ही संसार में परिभ्रमण करवाता है । बन्धन से मुक्ति का मार्ग प्रेक्षा है । प्रेक्षा से स्वानुशासन आता है। स्वानुशासन से प्रेक्षा सम्यग् प्रकार से होने लगती है। स्वतंत्रता के इच्छुक व्यक्ति को प्रेक्षा से गुजरना होगा। प्रेक्षा करने Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ प्रज्ञा की परिक्रमा वाला स्वानुशासन को उपलब्ध होगा। स्वानुशासन ही स्वतंत्रता और मुक्ति को प्रदान करती है। स्वतंत्रता स्ववशता का ही पर्यायवाची है। स्ववशता या स्वतंत्रता आपेक्षिक वचन है, क्योंकि इस जगत् में कोई स्वतन्त्र इकाई स्वयं के अस्तित्व के बल से टिक नहीं सकती है। उसे गति, स्थिति, अवगाहना आदि के लिए भी सहयोग लेना ही होता है पदार्थ चाहे वह जीव हो या निर्जीव सम्पूर्ण स्वतंत्र हो नहीं सकता। उसे एक-दूसरे के सहयोग को स्वीकार करना ही होता है, यह स्वीकृति है। स्वतंत्रता को सीमित बना देती है। सम्पूर्ण स्वतन्त्रता अशरीरी अवस्था में ही उपलब्ध होती है। बस अशरीरी (सिद्ध) ही सम्पूर्ण स्वतंत्र हो सकता है, किन्तु जीवन व्यवहार इससे चलता नहीं। अतः सीमित स्वतंत्रता ही व्यक्ति को प्राप्त होती है। प्रेक्षा का ज्यों-ज्यों विकास होता है, व्यक्ति असीमित स्वतंत्रता को उपलब्ध हो, द्रष्टा ज्ञाता बन जाता है। ज्ञाता और द्रष्टा ही स्वतंत्र बन सकता है। ०००० Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ सत्ता, शासन और अनुशासन की अर्थयात्रा सत्ता जिसके हाथ में वे क्या नहीं कर सकते। आकाश से तारे तोड़कर, जमीं पर ला सकते।। उपरोक्त पंक्तियां सत्ता की शक्ति को अभिव्यक्ति देने मानस में उभरी थी। सचमुच सत्ता की शक्ति से कोई इंकार नहीं हो सकता। सत्ता ऐसा सोमरस है जिसे व्यक्ति पीकर उन्मत्त हो जाता है। वह ऐसा बल है जो अकल्पित को साकार कर देता है। सत्ता स्वेच्छाचार को उत्पन्न करता है। स्वेच्छाचार से स्वार्थ, हिंसा, उत्पीड़न विकसित होता है। स्वार्थ, हिंसा, उत्पीड़न का बल सत्ता के समार्थ्य को लील जाता है। सत्ता शक्ति तो है किन्तु शक्ति का प्रयोक्ता स्वार्थी, क्रूर और अंहकारी है तो सत्ता सर्वघाती बन जाती है। सत्ता अस्तित्व है। अस्तित्व की अभिव्यक्ति पदार्थ की अस्मिता है। अस्मिता सार्वभौम सत्य है उससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। अस्मिता पदार्थ का गुण है। हर पदार्थ चाहे वह सचेतन हो या अचेतन अपने अस्तित्व के धूरी पर परिभ्रमण करता है। अस्तित्व केवल अस्तित्व ही नहीं होता, उसमें परिणमन भी होता है। परिणमन की यह प्रक्रिया सनातन है इससे पदार्थ रूपान्तरित होता है। __ सत्ता कभी एक रूप से स्थिर नहीं रह सकती। उसको भी रूपान्तरित होना ही होता है। सत्ता का रूपान्तरण स्वयं भी होता है या फिर किसी संयोग से भी। सत्ता का उपयोग शासन है अथवा इसको यों कहा जा सकता है दूसरों को शासित करने की शक्ति सत्ता है। शासन में सत्ताधीश ही प्रधान होता है वह अपनी इच्छा से सत्ता का उपयोग करता है। इच्छा में विवेक रहता है, तब तक शासन चलता है लेकिन सत्ता उपलब्ध होने पर इच्छा पर संयम विरल व्यक्तित्व ही कर सकता है। सत्ता इच्छा के वशीभूत रहकर स्वयं और दूसरे दोनों को उत्पीड़ित करती है। सत्ता, राजसत्ता ही नहीं होती। वह Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ प्रज्ञा की परिक्रमा सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि विविध रूप में व्यक्त होती है। मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपनी इच्छा की पूर्ण करने के लिए सत्ता को विविध रूपों से प्रयोग करता है। जिनमें शारीरिक, वाचिक और मानसिक तीन प्रमुख हैं। शरीर-बल ही प्राणी का प्रमुख बल होता है-प्रत्येक प्राणी अपनी इच्छा को मनवाने के लिए शरीर की शक्ति का उपयोग करता है। आदिवासी मनुष्य आज भी अपने शरीर के सामर्थ्य से अपनी इच्छा पूर्ण करने की कोशिश करता भाषा का विकास मनुष्य जाति ने किया। अपनी अनुभूति और इच्छा की अभिव्यक्ति के लिए भाषा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भाषा ने मनुष्य जाति के ज्ञान-विज्ञान को सुरक्षित रख पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया है। भाषा के साथ ही मन का प्रश्न जुड़ा हुआ है। चिन्तन, स्मृति और कल्पना के रूप से मन त्रिमूर्ति है। चिन्तन से नये ज्ञान के द्वारा उद्घाटित होते हैं। स्मृति से अतीत के ज्ञान के साथ सम्बन्ध बना रहता है। सत, असत् कार्य के करने और न करने का निर्णय स्मृति के सहारे मन करता है। कल्पना मन की भविष्य की उड़ानें हैं। जिससे वह भविष्य की योजनाओं का निर्माण करता है। विचार और मन शरीर के तंत्र को मजबूत करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं। शरीर, विचार और मन सत्ता के सुयोग से अपने शासन का संचालन करते हैं। इस तरह शासन सत्ता का सान्निध्य पाकर समाज में शोषण का नया दौर प्रारम्भ करता है। शासन के आगे अनु शब्द संयोजित होकर अनुशासन बना है। अनुशासन शासन का ही अनुज है। शासन में जहां सत्ता शक्ति के द्वारा अपने तंत्र को संचालित करती है, वहां अनुशासन में जनता उस आदेश को स्वयं स्वीकृत करती है। स्वयं के द्वारा स्वीकृत मर्यादा के अनुसार जीवन निर्वाह करना अनुशासन है । अनुशासन शब्द में अनु+शासन है, जिसका अर्थ (तात्पर्य) शासन के अनुरूप (पीछे) चलना। शासन एक सामूहिक स्वीकृत व्यवस्था है जिसे व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और स्वयं का हित समझ पालन करता है। अनुशासन शब्द आज रूढ़-सा बना हुआ है। जिसकी ध्वनि से जो अर्थ प्रस्फुटित हो रहा है, वह है दूसरों द्वारा अनुशासित होना। अनुशासन का मूल अर्थ है शिक्षा । शिक्षा में मात्र शिष्य को शिक्षण का संकेत है। शिष्य को आचार्य अनुशासित करते हैं, वह केवल इच्छाकार है। इच्छा से प्रेरित शिष्य स्वयं आचार्य के अनुशासन का पालन करता है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ता, शासन और अनुशासन १३७ समाज की व्यवस्था, नियम, उपनियम को व्यक्ति स्वयं के हित के लिए अनुपालित करता है। कानून, व्यवस्था एवं कल्याणकारी शिक्षाओं को व्यक्ति स्वयं अनुपालन कर राज्य, समाज एवं व्यवस्था में सहयोगी बनें । ___ आदि युग में हकार, मकार और धिक्कार की नीति का प्रचलन था। किसी के अकरणीय कार्य के लिए हा........तुमने यह कार्य किया! वह शर्म से इतना प्रभावित हो जाता कि दुबारा उस कार्य को करने के हिम्मत नहीं जुटा पाता। हकार के पश्चात् निषेध नीति में यह मत करो। कहने से व्यवस्था का संचालन होता रहा। मकार के पश्चात् धिक्कार की नीति चली। जिसमें व्यक्ति को अनुशासित करने के लिए धिक्कार हैं, तुमने सोचा नहीं होगा, ये नीति सूत्र प्रारम्भ में चलते रहे किन्तु मनुष्य जाति की ऋजुता आदि के परिवर्तन के साथ शासन का तन्त्र मजबूत बना। शासन का तंत्र मजबूत बनने से स्वशासी अनुशासन की भावना कम होने लगी। शासन का विकास ताड़न, परिताप, परिश्रम, विच्छेद से आगे अंग छेद एवं मृत्यु-दण्ड तक हुआ। आधुनिक शिक्षा ने मनुष्य की बुद्धि को प्रखर बना दिया। उसमें अपराध करने की कुशलता आ गई। अनुशासन, व्यक्ति और समाज में सहज फलित होना चाहिए था, वह नहीं हुआ, प्रत्युत दण्ड के नवीन प्रावधानों के विविध रूप सामने आने लगे। उससे व्यक्ति दण्डित होकर और अधिक अपराधी मनोवृत्ति का बनने लगा। शासन की अधिक कसावट से अपराध भले एक बार दबे-से लगते हैं, परन्तु अवसर आते ही वे एकदम उभर आते हैं। सत्ता और शासन, अनुशासन को नहीं ला सकते । अनुशासन व्यक्ति की ओर से व्यवस्था की स्वीकृति है। शासन सत्ता की अनुपूर्ति के लिए दिए हुए निर्देश हैं। अनुशासन तब ही सफल हो सकता है जब वह व्यक्ति को प्रबुद्ध करता है। प्रबुद्ध व्यक्तित्व ही अपने विवेक से सत्ता और शासन के भय के बिना भी अनुशासित रह सकता है। सत्ता और शासन में जीने वाला व्यक्ति यह सोच नहीं सकता कि व्यक्ति मशीन अथवा पशु नहीं है, उसे चाहे जैसे हांका जा सकता है। व्यक्ति स्वतंत्र चैतन्य पिण्ड है। उसमें चिन्तन, मनन और परिवर्तन करने की क्षमता होती है। सत्ता और शासन एकाकी होते हैं। वे दमन की भाषा को प्रयुक्त करते हैं उनका विश्वास बल में ही होता है। आज हजारों वर्षों से बल से अनुशासित तंत्र विद्रोह की भट्टी में जलकर राख होने की तैयारी में है। शासन व्यक्ति के लिए मध्यम मार्ग निर्मित करता है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ प्रज्ञा की परिक्रमा सत्ता और शासन केवल व्यवस्था के अनुपालन में मात्र व्यक्ति का सहयोग करते हैं | उसके विकास के लिए अनुशासन ही अपेक्षित है। अनुशासन, शासन और सत्ता को भी परिष्कृत बना देता है। उसके परिष्करण से समाज सुव्यवस्थित बनता है। व्यक्ति को विकास का अवसर उपलब्ध होता है। उसकी क्षमताएं अभिव्यक्त होने लगती है। साधना का उपयुक्त अवसर प्राप्त कर व्यक्ति अध्यात्म की ओर अग्रसर होने लगता है। अध्यात्म के प्रस्फुटन के लिए ही तो व्यक्ति अनुशासन को स्वीकार करता है। अनुशासन व्यक्ति स्वातंत्र्य को पुरस्सर करने का अलौकिक मार्ग है। व्यक्ति अनुशासन, सत्ता और शासन के प्रभाव से भावित होकर जहां स्वतंत्रता का तिरस्कार करता है वहां वह अध्यात्मुखी न रहकर लौकिक होने लगता है। लौकिक अनुशासन शासन को ही पुष्ट बनाता है, जहां व्यक्ति स्वतंत्रता से श्वास नहीं ले सकता। उसका परिणाम घुटन और मरण ही निश्चित है। व्यक्ति को जीवन्त और स्वतंत्रता का आकाश देने के लिए अनुशासन को अध्यात्म अभिमुखी अर्थात् स्वशासी ही बनाना होगा। स्वशासन ही अनुशासन को पूर्ण बनाता है। स्व-शासन सभी में स्वयं बुद्धता से प्रगट नहीं होता है। अतः पुरुष का अनुगमन या अनुज्ञा स्वीकार करनी ही होती है। जिससे साधक अपनी मंजिल को सुखपूर्वक प्राप्त कर लेता है। ०००० Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ संस्कार-प्रवृत्ति या संस्कार मुक्ति युवा पीढ़ी ने पिछले दो दशकों में जो पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय संस्कारों को क्षति पहुंचाई है शायद ही विगत इतिहास में ऐसी स्थिति आई हो । युवा सदा प्रगतिशील रहा है वह अपने आपको कठिनाई में डालकर भी समस्याओं से जूझता रहा है । परिश्रम में शिक्षा और सम्पन्नता के सुयोग से नई पीढ़ी की प्रवृत्तियों को बचाना और अपनी प्रवृतियों को गतिशील बनाए रखना कहां तक सम्भव हो पाएगा ? नई पीढ़ी की अपनी आकांक्षा है, अभीप्सा है, गतिशीलता है । कुछ कर गुजरने की प्राणवत्ता है। आखिर उसे संस्कार के नाम पर कब तक रोका जा सकता है ? संस्कार व्यक्ति की अपनी आवश्यकता है या कुछ मठाधीशों, महन्तों सफेद - पोशों, बुजुर्गों, सन्तों, सम्प्रदायों के प्रमुखों को अपनी पकड़ को सघन बनाने के तौर-तरीके हैं ? आज इन प्रश्नों पर खुलेमन और मस्तिष्क से सोचना होगा। हर प्रश्न को उसके वर्तमान मूल्यों के बिना केवल प्राचीनता के आधार पर अंकन करने की चेष्टा से स्वयं और अन्य किसी के साथ न्याय नहीं होता। किसी भी समस्या के समाधान के लिए उसके सभी पहलुओं पर विचार करना आवश्यक होता है अन्यथा उसके परिणाम यथार्थ नहीं आते। संस्कार है सम्यक् कृति संस्कार क्या है ? सीधा सा सवाल है, समाधान इतना सहज नहीं मिलता । कुछ प्रश्न शब्द में नहीं समाते । उनका समाधान भी शब्द की परिधि में आ नहीं पाता । सम्यक् कृति / क्रिया, संस्कार है। ऐसे संस्कार और कर्म समानार्थक हैं। यहां संस्कार का अर्थ आदत, प्रकृति, अनुकरण, परम्परागत विधियों के अनुपालन से है । संस्कार के इस अर्थ की अभिव्यञ्जना में केवल सम्यक् कृति अथवा क्रिया काही समावेश नहीं है। अपितु इसमें विस्तृत क्षेत्र आ जाता है। किसे संस्कार Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० प्रज्ञा की परिक्रमा कहा जाए, किसे असंस्कार कहा जाए ? संस्कार की मूल्यवत्ता सर्वदा, सर्व क्षेत्र अथवा सर्व परिस्थिति में एक जैसी नहीं होती। जो संस्कार देश, काल, परिस्थितियों के कारण सर्वथा उपयोगी नहीं रहे, उन्हें आज उसी रूप से ढोते जाना कैसे संस्कार कहलाएगा। संस्कार सम्यक् आचरण का निर्णय वर्तमान कालिक होता है। संस्कारों का बदलता रूप संस्कार के सैकड़ों प्रकार हैं, उनकी सैंकड़ों रस्में, रिवाज, तरीके हैं। देश, काल और परिस्थितियों के कारण उनको बदला न जाए तो आज वे हास्य के निमित्त बनते हैं फिर बुजुर्ग पीढ़ी क्यों चाहती है कि वे वैसे ही चलें? उनके प्रति उठाई गई आवाज को उद्दण्डता, विद्रोह आदि उपमाओं से उपमित कर सामाजिक तिरस्कार तक की स्थितियां पैदा की जाती हैं। जन्म, विवाह, मृत्यु के ही केवल संस्कार नहीं होते, संस्कार जीवन में प्रतिक्षण काम आने वाली स्थिति है। जन्म, मृत्यु और विवाह पर होने वाली रिवाजों में बहुत कुछ परिवर्तन आया है किन्तु धनाढ्य वर्ग के अपने प्रदर्शन की मूल मनोवृत्ति में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा है। मध्यम वर्ग को उनका अनुकरण करना होता है। अनुकरण की यह प्रवृत्ति अन्त तक सामान्य जन तक को सताती है। जन्म, विवाह, मृत्यु के समय होने वाले क्रिया-कलाप, संस्कार, सामाजिक जीवन का अंग बन चुके हैं। अब भी पढ़े-लिखे, अनपढ़, चिन्तक अथवा अचिन्तक सभी को परिवार की बुढ़िया की अनुज्ञा का अनुपालन करना होता है। पंडित, पुरोहितों, पंचों और लोकलाजो का दवाब भी बनी बनाई लकीरों से मुक्त नहीं होने देता। संस्कार ग्रहण की स्वतंत्रता क्या ऐसे संस्कारों की आवश्यकता है ? जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का हनन होता है, व्यक्ति को चाहे, अनचाहे क्षमता, अक्षमता, योग्यता, अयोग्यता का ख्याल किए बिना उसे करणीय, अकरणीय सब कुछ करना होता है। क्या ऐसे संस्कार, सस्कार है ? संस्कारों से पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय चेतना जगती है ? Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कार प्रवृत्ति या संस्कार मुक्ति १४१ आखिर इतने आतुर क्यों हैं, संस्कार को देने के लिए ? क्या दिए जाने वाले संस्कार व्यक्ति ओर समाज का निर्माण करने वाले हैं ? दिए जाने वाले संस्कार महत्त्वपूर्ण हैं अथवा महत्त्वहीन । उसका अनुचिन्तन किए बिना ही जो स्वयं में परिवार, समाज से सीखा उसे वह आने वाली पीढ़ी को देने आतुर हो जाता है। उसके विरुद्ध कहीं यदि कोई प्रतिक्रिया होती है, प्रतिरोध और प्रतिकार होता है, संस्कारक विक्षुब्ध हो जाते हैं। क्या संस्कार ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व नहीं ? क्या वह मिट्टी का लोंदा है ? शुष्क जड़ काष्ठ है ? वह चिन्मय, चेतनाशील प्राणी है उसे अपना निर्माण करने का, अनुचिन्तन करने का अधिकार है। वह अपनी प्रज्ञा से ग्राह्य अग्राह्य का निर्णय कर सकता है, उसे श्रेय और अश्रेय का मानदण्ड निश्चित कर संस्कारों को स्वीकृत - अस्वीकृत करने का अधिकार है । श्रेष्ठता अश्रेष्ठता का निर्णय संस्कारों की श्रेष्ठता और अश्रेष्ठता के निर्णय का कोई आधार हो सकता है तो वह यह है कि संस्कार स्वतन्त्रता को उपलब्ध कराता है या बन्धन को ? राग-द्वेष बढ़ाता है या अनाशक्ति । स्वतन्त्रता और अनाशक्ति को बढ़ाने वाले संस्कार सात्विक हैं, आचरणीय हैं, आदरणीय हैं। संस्कार के आचरणीय और आदरणीयता की विभिन्न भूमिकाएं होती हैं। आध्यात्मिक जीवन की ओर अग्रसर करने वाले संस्कारों की कसौटी राग-द्वेष से मुक्तता है। राष्ट्रीय, सामाजिक और पारिवारिक जीवन को परिष्कृत करने के लिए जो विचार व्यवहार का प्रशिक्षण दिया जाता है, जिससे परिवार समाज और राष्ट्र का उन्नयन होता है। उसके मानदण्ड में मुख्यतया परिवार, समाज एवं राष्ट्र के हित चिन्तन की मुख्यता होती है। किसी ऐसे एक संस्कार की निर्णीति नहीं की जा सकती जिससे व्यक्ति सामज और राष्ट्र का उन्नयन निश्चित होता हो । उसके लिए व्यक्ति को अपने विवेक को ही जागृत करना होता है । जागृत विवेक ही स्वयं तथा समाज एवं राष्ट्र के हित चिन्तन को ध्यान में रखकर अपने संस्कारों का प्रणयन करता है। संस्कार - निर्माण और शोषण संस्कार - निर्माण के नाम पर जब व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के शोषण का दौर चलने लग जाता है तब गंभीर स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कुछ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ प्रज्ञा की परिक्रमा धर्म सम्प्रदाय अपने संख्या बल को बढ़ाने की दृष्टि से अशिक्षित अथवा किसी कठिनाई से पीड़ित वर्ग को शिक्षा, सेवा स्वास्थ्य अथवा आर्थिक प्रलोभनों से प्रभावित कर संस्कारी करने की कोशिश करते हैं। सचमुच यह शोषण का तरीका है, जिससे व्यक्ति के विकास के बजाय अपने निहीत स्वार्थों की पृर्ति का ध्यान मुख्य रहता है। विस्तार प्रसार की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार माना गया है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं हो सकता कि विकसित समाज अविकसित वर्ग को अपने धन, सत्ता आदि से प्रताडित अथवा शोषित करें। विचार अथवा संस्कारों के नाम पर अपनी सत्ता और शासन की पकड़ को मजबूत बनाना ही शोषण के तरीकों में आता है। संस्कार निर्माण और महावीर भगवान् महावीर ने केवल अपने विचारों के प्रसार के लिए जनता के बीच प्रवचन नहीं किया, अपितु जीव-जाति के विकास के लिए, दया के लिए प्रवचन किया। जिससे वह बन्धन से मुक्त होकर अपने स्वरूप में उपस्थित हो सके। उनके दर्शन ने स्वयं से सत्य को खोजने और उपलब्ध होने का मार्ग ही सुझाया। स्वयं से स्वयं के आत्म-निरीक्षण से चैतन्य की उस विराट भूमि को उपलब्ध किया जा सकता है जहां सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, मान-अपमान के पार वीतरागता की सार्वभौम सत्ता को पाकर अनन्त ज्ञान, श्रद्धा, शक्ति और आनन्द को उपलब्ध हो जाते हैं। जहां व्यक्ति विकास का प्रश्न है उसे कोई इंकार नहीं करता ! व्यक्ति के विकास के नाम पर मनमाने विचार अथवा व्यवहार एवं संस्कारों को थोपना क्या उचित कहा जा सकता है। संस्कारक इतना तो कर सकता है जो लिखने को उत्सुक हो उसे वह अपने अनुभव से मार्ग दर्शन कर सकता है। उसने संस्कारों द्वारा कैसे जीवन को जिया है। उससे यदि किसी का समाधान हो तो उसे वह स्वीकार करें। संस्कार रूपान्तरण और प्रेक्षा संस्कारों को बच्चा गर्भ से लेकर जीवन पर्यन्त ग्रहण करता है। हो सकता है कुछ संस्कार परिवार से, समाज और वातावरण से ग्रहण किए हों, वे संस्कार Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ संस्कार प्रवृत्ति या संस्कार मुक्ति व्यक्ति के लिए सम्यक् न हो, परिवार, समाज, राष्ट्र के अनुकूल न हों, उन्हें रूपान्तरित कैसे किए जाएं ? संस्कारों की मुक्ति अथवा रूपान्तरण के लिए जो संस्कार हैं, उनका विश्लेषण करना होता है जिससे उनके यथार्थ का बोध हो जाए। यथार्थ बोध के पश्चात् संस्कारों का निरसन सरल हो जाता __ प्रेक्षा–साधना का मूल सूत्र ही यही है-देखो ! देखना ही रूपान्तरण की पहली प्रक्रिया है। किसी भी संस्कार, आदत, स्वभाव को बदलने का प्रेक्षा का तरीका सरल और कारगर है। उसमें प्रियता-अप्रियता के बिना केवल वर्तमान में देखने, अनुभव करने की जो विधि है वह संस्कार प्रमुक्ति का प्रबलतम साधन है। संस्कार निर्माण नितान्त वैयक्तिक है। व्यक्ति चिन्तनशील प्राणी है, उसे अपने विकास, निर्माण और प्रमोक्षक का अधिकार है। उसके संस्कार निर्माण के लिए जो व्यक्ति, संस्थाएं, राष्ट्र आतुर हैं, उसमें सूक्ष्मता से देखने में स्वयं की सत्ता पकड़ एवं शोषण का अंश छुपा रहता है। उसमें निहीत अपना स्वार्थ मुख्य रहता है। परमार्थ का तो केवल पर्दा लगा रहता है जिससे उसके शोषण के तरीकों को लोग समझ न सकें। यदि शुद्ध रूप से व्यक्ति के विकास के लिए ही कोई करुणा से प्रेरित है तो वह मात्र उसे प्रेम से मार्ग-दर्शन ही करेगा। उसे अन्य तरीकों से बाध्य करने की कोशिश नहीं करेगा। ०००० Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ भ्रष्टाचार का भूत अच्छाई और बुराई का मूल स्रोत्र मानस है। उनका पोषण और शोषण वहीं से होता है। बहुधा हम सोचा करते हैं कि बुराई परिस्थितियों व उपकरणों से उत्पन्न होती है। इसलिए उनको मिटाने व बदलने का प्रयास भी होता है, किन्तु बदलती हुई परिस्थितियों से कुछ भिन्न समस्याएं सम्मुख आ जाती हैं, जब उन्हें मिटाने का प्रयत्न करते हैं, वे मिट ही नहीं पातीं, उससे पूर्व नवीन बुराइयां आ जाती हैं। भ्रष्टाचार की जड़ भी मानस में ही है। उसका एक रूप, एक कारण और एक प्रकार नहीं । असंख्य रूप, कारण और प्रकार हैं। भ्रष्टाचार है, यह तो सभी अनुभव कर रहे हैं। इसकी चर्चा भी यत्र-तत्र सर्वत्र हो रही है। पर किसी भी बुराई का विनाश केवल चर्चा से ही नहीं होता जैसा कि सदाचार समिति दिल्ली के सेमिनार में पठित आचार्य श्री तुलसी के निबन्ध में बताया गया है। यह पहली भूल होगी यदि हम अवांछनीय समस्या की रट ही लगाते हैं किन्तु उसको सुलझाने का प्रयत्न न करें। केवल रट लगाने मात्र से समस्या का समाधान नहीं होता। इससे तो प्रत्युत समाज में बुराई के प्रति घृणा मिट जाती है, जिसका दुष्परिणाम अराजकता और राष्ट्र-विनाश के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? भ्रष्टाचार का विष आज राष्ट्र के प्रत्येक अवयव में व्याप्त हो चुका है। इसको मिटाए बिना राष्ट्र स्वस्थ नहीं रह सकता और न जिन्दा ही। एक मंत्री महोदय ने तो यहां तक कह दिया है कि भ्रष्टाचार को दो वर्ष में मिटा दूंगा या मैं शासन से हट जाऊंगा किन्तु लग ऐसा रहा है कि यह राक्षस अभी विकराल रूप लिए बढ़ता ही जा रहा है। किसी भी बुराई को मिटाने के लिए यह आवश्यक है कि जनता में दृढ़तर संकल्प व साहस की ज्योति जगाई जाए। प्रत्येक व्यक्ति जगा और उसने Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ भ्रष्टाचार का भूत दृढ़ संकल्प के साथ भ्रष्टाचार का बहिष्कार किया तो वह दिन दूर नहीं होगा जब भ्रष्टाचार यहां से सदा के लिए पलायन कर जाए। संकल्प की शक्ति से आज कौन अपरिचित है ? जिस व्यक्ति ने कण-कण में चेतना, स्फुरणा और तेज को उद्दीप्त किया। उस लंगोटी वाले महात्मा की राष्ट्र को याद आए बिना कैसे रह सकती है, जिसने दासता की जंजीरों को तोड़ने के लिए संकल्प बल जगाया। हजारों नौजवानों ने साम्राज्यवादियों के उत्पीड़न को किस प्रकार हंसते-हंसते सहा। इन सब के पीछे संकल्प का तेज था, सामर्थ्य था और कुछ कर गुजरने की बलवती भावना थी। देखते-देखते सदियों की प्राचीन दासता सदा के लिए समाप्त हो गई। गांधीजी ने वह संकल्प सूत्र सत्ता के तख्त से नहीं अपितु कुटिया के कौने से दिया । आज भी ऐसे प्राणवान् व्यक्तित्व की आवश्यकता है जो राष्ट्र में नई जिन्दगी व ताजगी भर सके। सत्ता प्राप्त करने के प्रकार बदल गए हैं। आज सत्ता की शक्ति जनता के अधिकार में आई। इससे बने शासनाधिकारी क्या-क्या करते हैं, यह किसी से भी छुपा नहीं है। जब शासन-तंत्र ही स्वार्थों को पूर्ण करने में ही दौड़े तब जनता भी उस दौड़ में पीछे कैसे रहे ? फिर भी यह शुभ-सूचना ही माननी होगी कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने हेतु सत्ता की ओर से स्वर उभरा, किन्तु चिन्तकों को चिन्ता है कि कहीं यह स्वर सत्ता के भय या सत्ता के सरंक्षण के लिए तो नहीं आया है? भय से आए संकल्प में प्रलोभनों के सम्मुख टिके रहने की शक्ति कैसे रह सकेगी। साहस न होने का तात्पर्य है पथ भ्रष्ट होना और स्वयं को नष्ट करना। इसमें केवल सत्ता भी ही सारी त्रुटियां नहीं हैं, व्यापारी व धनिक वर्ग भी कम दोषी नहीं हैं। जो अपने स्वार्थों को तथा अर्थ बटोरने के लिए भ्रष्ट उपायों का प्रयोग करता है। केवल सत्ता व व्यापारी वर्ग ही भ्रष्टाचार से ग्रसित नहीं हैं, साधारण जन भी अपने कर्तव्य पालन में जागरूक नहीं है। यदि जनता जागरूक हो तो भ्रष्टाचार की जड़े हिलते क्या देर लग सकती है, परन्तु उसे जागृत होने से स्वार्थी तत्त्वों की दाल नहीं गलती, अतः वे ऐसा कब देख सकते हैं, जिससे संकल्प-स्वर प्रबल हो। संकल्प स्वर को प्रबलतम करने के लिए जनता के मानसिक स्तर को बदलने की आवश्यकता है। मानसिक स्तर बदले, उसके लिए हमें प्रतिष्ठापित्त मूल्यांकन पर भी पुनः चिन्तन करना होगा। राष्ट्र में आज प्रतिष्ठा, पूजा, Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ प्रज्ञा की परिक्रमा सम्मान, शीर्षस्थान उनको ही मिलता है जो सत्ता या धन में अग्रणी हैं। राष्ट्र बौद्धिक जगत् सद्-तत्त्वों का सम्मान व संरक्षण करना नहीं सीखेगा, मूल्यांकन बदल नहीं सकता। मूल्यांकन बदले बिना संकल्प दृढ़तर हो जाए, यह मात्र कल्पना ही होगी। संकल्प की दृढता के बिना किसी भी बुराई का अन्त कैसे हो सकता है। संकल्प की दृढता वैयक्तिक होती है, किन्तु उसका पार्श्व आलोकित हुए बिना रह नहीं सकता। जब ऐसे सदाचारी व्यक्तियों की विशाल सेना गलत तत्त्वों के साथ असहयोग करेगी, तभी भ्रष्टाचार का भूत भागता हुआ नजर आएगा। ०००० Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ तनाव : कारण और निवारण तनाव विश्व की विकटतम समस्या है। इसने व्यक्ति के व्यक्तित्व को खण्डित किया है। तनाव का एक कारण है भोग, कामना, कुछ उपलब्ध होने की अभीप्सा । वह धन की हो, रूप की हो, व्यक्तित्व की हो, पद की हो, पाप की हो या पुण्य की हो। जो नहीं है, उसे प्राप्त करना चाहते हैं। वह चाह, विभिन्न मार्गों से विभिन्न रूपों में, अन्तःकरण को आन्दोलित करती है। यह आन्दोलन ही तनाव का सृजनहार बनता है। व्यक्ति की कामनाएं पूरी नहीं होती । अतृप्त कामनाएं अन्तर्द्वन्द्व को उत्पन्न करती हैं। वह द्वन्द्व राग और द्वेष में परिणित होता है। राग और द्वेष कषाय को प्रगाढ़ बनाते हैं । कषाय से मन, वाक् और काया की प्रवृत्ति का चक्र संचालित होता है । प्रवृत्ति चक्र ही बन्धन और तनाव लाता है। कर्म और प्रतिकर्म शरीर की रचना की अपनी विशिष्टता है कि उसमें तनाव विर्सजन के लिए विश्राम, निद्रा आदि की व्यवस्था है। व्यक्ति उससे तनाव मुक्त बनता है। जीवनयात्रा को निर्वहन करने के लिए व्यक्ति को कुछ कर्म करना ही पड़ता है। कर्म, प्रतिकर्म को उत्पन्न करता है। प्रतिकर्म संस्कार अथवा आदत का रूप लेता है। यह आदत पुनः पुनः उस कर्म की ओर प्रेरित करती है । कर्म, राग-द्वेष से मुक्त विशुद्ध रहता है तब प्रति कर्म को पैदा नहीं करता, अपितु पीछे जो कर्म-संस्कार रूप में हैं उनको जर्जरित बना देता है । तनाव केवल शारीरिक स्थिति ही नहीं है। शरीर का यन्त्र तो केवल उसकी अभिव्यक्ति एवं ग्रहण करने का साधन मात्र है । कषाय से प्रेरित अतृप्त चित्त पदार्थ को पाने के लिए आतुर बना रहता है। प्रिय पदार्थ की उपलब्धि, आसक्ति को उत्पन्न करती है। अप्रिय पदार्थ विद्वेष उत्पन्न करता है । प्रिय घटना के प्रत्यावर्तन के लिए चित्त प्रेरित होता है। वहां अप्रिय घटना से चित्त प्रभावित होता है। चैतन्य को तटस्थ, साक्षी, दृष्टा बनाना ही तनाव मुक्ति की प्रक्रिया — Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ प्रज्ञा की परिक्रमा है। साक्षी, तनाव-मुक्ति का विश्लेषण, द्रष्टाभाव, वीतरागता, समता, स्वरूप में अवस्थिति, केवल ज्ञान का अनुभव, आत्म रमण आदि अत्यन्त प्रिय और लुभावने शब्द हैं। अपनी महत्ता की छाप श्रोताओं पर बनी रहे, ऐसे उपदेशकों के लिए तो यह शब्द स्वर्णसूत्र है। किन्तु प्रयोग के रूप में गुजरने वाले साधक के क्षण-प्रतिक्षण उनकी व्यर्थता का अनुभव स्वतः होने लगता है। ये शब्द यथार्थ होते हुए भी उपदेश के धरातल पर उतरकर ज्ञानाभिमान का सृजन करते हैं। उससे श्रोता साक्षी, द्रष्टाभाव का अभिनय करने लगता है। साक्षी अथवा द्रष्टा भाव को बाहर से नहीं उतारा जा सकता। वह तो कषाय की मन्दता और चैतन्य की सजगता का परिणाम है। कषाय विभिन्न रूपों में किस तरह अपना जाल फैलाती है जिससे साधक अनासक्ति की चर्चा करता हुआ भी आसक्ति में फंस जाता है। मनोविज्ञान और तनाव __ आधुनिक शताब्दी में मनोविज्ञान की स्थापनाओं ने प्रबुद्ध वर्ग को प्रभावित किया है। फ्रायड, जुंग तथा उसकी परम्परा को मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य की प्रवृत्तियों एवं मानसिक स्थितियों का अवलोकन कर जो निष्कर्ष निकाले हैं वे यथार्थ होते हुए भी केवल एक स्थिति का ही स्पष्टीकरण करते हैं। मस्तिष्क अपनी पद्धति से कार्य करता है। लेकिन अभी तक मस्तिष्क को संचालित करने वाली उस परम शक्ति का मनोवैज्ञानिकों को पूरा पता कहां है? ग्रन्थियों के अध्ययन से उनकी क्षमताओं और कार्य का कुछ-कुछ पता अवश्य लगा है किन्तु अभी तक उनका पूरा अध्ययन अवशेष है। ___ मनोविद् मानते हैं कि तनाव केवल शारीरिक क्रिया ही नहीं होती यद्यपि तनाव से स्नायुओं की क्रिया में अवश्य अन्तर आता है। उनके समीकरण से व्यक्ति विश्राम को उपलब्ध होता है। तनाव मानसिक स्थिति है। व्यक्ति उसे मानस के स्तर पर ही अनुभव करता है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति शरीर तक उतरती है। तनाव में मानस और शरीर दोनों की साझेदारी है। विश्लेषण की प्रक्रिया से व्यक्ति तनाव से मुक्त होता है। वहां शरीरगत स्नायुओं में भी परिवर्तन आता है। तनाव मुक्ति और अध्यात्म तनाव मुक्ति की प्रक्रिया में औषध अथवा आत्म विश्लेषण की प्रक्रिया का निर्देशन मिलता है। वह शरीर और मानस की ग्रन्थियों को खोलने की Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तनाव : कारण और निवारण १४६ विधि है। अध्यात्म परम्परा ने इसके लिए कायोत्सर्ग एवं ध्यान का विधान किया है। कायोत्सर्ग शब्द से जो अर्थ की अभिव्यक्ति होती है वह है शरीर का विसर्जन। शरीर के विर्सजन के साथ इसमें ममत्व मुक्ति का अर्थ भी जुड़ा हुआ है। ममता ही बन्धन को लाती है। बन्धन ही तनाव है। जैन परम्परा में प्रक्रिया पर विस्तार से चिन्तन किया है। बन्धन को लाने वाले मूल स्रोत राग और द्वेष है। राग-द्वेष, प्रिय-अप्रिय भाव अथवा मिथ्या-दृष्टिकोण से उत्पन्न होता है। साधना की दृष्टि से यथार्थ दृष्टि की उपलब्धि लक्ष्य को पाने का प्रथम सोपान है। जब तक दृष्टि की विशुद्धि नहीं होती है साधना का रथ आगे नहीं बढ़ता है। तनाव मुक्ति के लिए सबसे पहला उपक्रम दृष्टिकोण का परिवर्तन है। उसके लिए विवेक का जागरण आवश्यक है। जिससे व्यक्ति वस्तु अथवा घटना को यथार्थ दृष्टि से देख सके। ___तनाव मुक्ति के लिए जहां प्रकृति ने निद्रा की व्यवस्था दी है, वहां ऋषियों ने अध्यात्म विद्या का अविष्कार किया है। अध्यात्म विद्या की अनेक शाखाएं है। उनमें महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग की चर्चा की है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम से तनाव से मुक्त होने की भूमिका का निर्माण होता है। दूसरे में शरीर के स्नायु संस्थान की सुदृढ़ता से तनाव को ठहरने का अवकाश नहीं मिलता। रक्त शोधन एवं नाड़ी शद्धि से प्रत्याहार सहज होता है। प्रत्याहार से धारणा पुष्ट होती है। स्पष्ट धारणा से ध्यान की प्रगाढ़ता आती है। ध्यान की गहन स्थिति ही समाधि है। समाधि की निरन्तरता बनी रहना ही साधना का उद्देश्य है। समस्त तनाव से मुक्त हो जाते हैं। चैतन्य अपने स्वरूप में विहरण करने लगता है। तनाव मुक्ति और कायोत्सर्ग __ तनाव मुक्ति की प्राचीन प्रक्रियाओं में मुख्यतया कायोत्सर्ग और ध्यान है। ध्यान की स्थिति को उजागर करने के लिए कायोत्सर्ग आवश्यक है। कायोत्सर्ग तनाव विलय का मार्ग है। जैन परम्परा में श्रावक के लिए सामायिक अनिवार्य है। सामायिक चित्त की समतामयी स्थिति है। सामायिक और ध्यान तनाव विसर्जन होने से ही प्रकट होते हैं। साधना की प्रक्रियाएं तनाव मुक्ति की प्रक्रियाएं हैं। विभिन्न धर्मों एवं व्यक्तियों ने अपनी-अपनी परम्परा के अनुरूप इनकी परिकल्पना की है। कुछ परम्पराएं तनाव मुक्ति के लिए Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० प्रज्ञा की परिक्रमा सुगन्धित अथवा नशीले पदार्थ को सेवन करने का आदेश देती है। आज भी तनाव मुक्ति के लिए विश्व में अरबों रुपयों की नशीली गोलियों का निर्माण होता है। पत्रकार की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका सरकार इस बात से चिंतित है कि युवा पीढ़ी विशेषतः कॉलेज एवं विश्व विद्यालय के छात्र एवं छात्राएं नशीली औषधियों का खुल कर प्रयोग कर रहे हैं। जिससे न केवल उनके स्वास्थ्य का अहित हो रहा है। बल्कि उससे सार्वजनिक जीवन में गड़बड़ियां प्रारम्भ हो गई हैं। नशीले पदार्थों से अपने आपको भूलने की प्रवृत्ति दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। उससे मुक्त होने के लिए कायोत्सर्ग एवं ध्यान अचूक तरीका है। उससे व्यक्ति नशीले पदार्थों से स्वत: मुक्त होने लगता है। श्वास-प्रेक्षा ही शरीर-प्रेक्षा अथवा चैतन्य केन्द्र की प्रेक्षा ये सब साधन व्यक्ति को जागरूकता का अनुभव कराते हैं। श्वास-प्रेक्षा से व्यक्ति का जहां मन केन्द्रित होता है वहां विचार शून्य-स्थिति से धूमपान आदि से मन दूर होने लगता है। सुख और दुःख की अभिव्यक्ति स्पन्दनों के माध्यम से होती है। सुखद और दुःखद अनुभूतियां स्पन्दनों का ही प्रगटीकरण है। शरीर-प्रेक्षा से इन स्पन्दनों का अनुभव एवं उसकी अनित्यता का बोध होने लगता है। जिससे व्यक्ति की मूर्छा टूटती है। मूढ़ ही सुख-दुःख में रस लेता है। चैतन्य केन्द्रों पर ध्यान से ग्रन्थियों में परिवर्तन होता है। जिससे वृत्तियां रूपान्तरित होती है। तनाव मुक्ति के लिए भारतीय ऋषियों ने अपनी साधना एवं तपस्या के द्वारा जिन प्रयोगों का उल्लेख किया है वे आज भी उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं। विज्ञान की कसौटी पर चढ़कर अध्यात्म विद्या जीवन के लिए उपयोगी एवं जनमन के आकर्षण का केन्द्र बन रही है। उससे तनाव मुक्ति के साथ चैतन्य स्वरूप फलित होगा। ०००० Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ स्वस्थ जीवन की पद्धति प्रेक्षा ध्यान तनाव से मानव समाज संत्रस्त है। जीवन की सामान्य आवश्यकताओं की संपूर्ति के लिए भी उसे संघर्ष करना पड़ता है। संघर्ष से उत्पन्न आवेश से वह अनिद्रा, रक्तचाप, हृदयपीड़ा और नाना व्याधियों से ग्रसित हो जाता है । विज्ञान ने उसके समाधान के लिए औषधियों और यंत्रों का अविष्कार किया । औषधियां तात्कालिक लाभ के पश्चात् अपनी प्रतिक्रिया छोड़ जाती है जिससे व्यक्ति और अधिक पीड़ित हो जाता है। यंत्रों के विकास ने मनुष्य को सुख-सुविधाएं प्रदान की लेकिन उसने नैसर्गिक जीवन को छीन लिया । प्रयुक्त औधोगीकरण की भट्टी में वह कंकाल बन कर रह गया । आज व्यक्ति शरीर की दृष्टि से ही रुग्ण और दुर्बल नहीं है, मानसिक और भावात्मक दृष्टि से भी बीमार है। मनोकायिक बीमारियां प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं । चिन्ता - ग्रस्त और प्रताड़ित मानव आत्म-हत्या की ओर अग्रसर हो रहा है। विकसित और विकासशील देशों में आत्म-हत्याओं के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। मनोचिकित्सक और सरकार चिंतित है। कोई समाधान नहीं मिल रहा है। समाधान बाहर है ही नहीं तब कैसे मिलेगा ? उसे पाने के लिए अंतरंग को खोजना होगा। अंतरंग को खोजने की प्रक्रिया का नाम है 'प्रेक्षा' । प्रेक्षा से शारीरिक, मानसिक और भावात्मक आवेगों को सरलता से वश में किया जा सकता है। प्रेक्षा जीवन की नवीन दृष्टि है। प्रेक्षा चिन्तन नहीं दर्शन है - साक्षात्कार की प्रविधि है । प्रेक्षा स्वबोध है, जीवन का विज्ञान है । प्रेक्षा- ध्यान सम्यक् श्वास के अभ्यास से लेकर स्वस्थ जीवन की प्रक्रिया का प्रशिक्षण है । प्रेक्षा प्रशिक्षण के आधारभूत बिन्दु हैं- यौगिक शारीरिक क्रियाएं, योगासन, प्राणायाम, कायोत्सर्ग, प्रेक्षा-ध्यान, अनु-प्रेक्षा, सत्संग व स्वाध्याय और व्यवहार का प्रशिक्षण । यौगिक शारीरिक क्रियाएं शरीर को संतुलित बनाने की प्रविधि है जिसमें मस्तक से लेकर पैर तक १३ क्रियाएं हैं। शरीर के एक-एक जोड़ और मांसपेशियों को इससे सक्रिय किया जाता है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ प्रज्ञा की परिक्रमा शरीर की शक्ति का संवर्धन, दोषों का निरसन, और संतुलन बनाए रखना योगासन का उद्देश्य है। प्राणायाम शक्ति-संचय, विष-निष्कासन, जीवन-रूपान्तरण का आधारभूत तत्त्व है। कायोत्सर्ग तनाव-मुक्ति की सफल प्रक्रिया है। प्रेक्षा-ध्यान चैतन्य जागरण की प्रक्रिया है। जिससे शारीरिक, मानसिक और भावात्मक संतुलन उत्पन्न होता है। ___ अनुप्रेक्षा-स्वभाव परिवर्तन, व्यसन मुक्ति, सात्त्विक जीवन को विकसित करने की पद्धति है। सत्संग व स्वाध्याय-अस्तित्व में ठहरने का संकल्प और पुनः अभ्यास। व्यावहारिक प्रशिक्षण-चलना, बैठना, सोना एवं पारस्परिक व्यवहार में सामंजस्य स्थापित करना। उपरोक्त प्रक्रियाओं का स्पष्ट परिणाम पहले व्यक्ति, फिर परिवार और समाज पर उतरकर एक नया सृजन करता है। यह सब इसलिए घटित होता है कि इन प्रक्रियाओं से शरीर की कोशिकाएं स्वस्थ, शक्ति सम्पन्न होती हैं। श्वास-प्रश्वास के सम्यक् नियोजन से प्राणवायु अधिक मिलती है। दूषित वायु का रेचन पूरे परिणाम में होता है, जिससे रक्त-शुद्धि एवं उनकी गुणवत्ता का विकास होता है। मांसपेशियां व शरीर के अन्य अवयव स्वस्थ और शक्तिशाली बनने लगते हैं। प्रेक्षा-ध्यान आध्यात्मिक विकास का आधारभूत तत्त्व है, जिससे व्यक्ति में सहज करुणा और समता का विकास होने लगता है। एन०सी०ई०आर०टी० (राष्ट्रीय शैक्षणिक शोध एवं अनुसंधान परिषद) एवं अन्य शोध विभागों से संयुक्त वैज्ञानिकों की रिपोर्ट से यह स्पष्ट है कि प्रेक्षा-ध्यान जीवन को रूपांतरित करने की पद्धति है। ___ शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक विकास के इच्छुक हर एक व्यक्ति को इसमें शामिल होने का अधिकार है जिससे वे नए जीवन का प्रारंभ कर सकें। ०००० Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जप, तप और ध्यान के चमत्कार लम्बा कद, सुडौल शरीर, आंखों से झांकती हुई सरलता, वाणी में पंजाबी मिश्रित हिन्दी का सरल उच्चारण, गुरुश्रद्धा की साकार प्रतिमा रामामण्डी की एक तपस्विनी श्राविका कलावती की अद्भुत घटनाओं ने कुछ लिखने को प्रेरित किया। मुझे उसके सरलतापूर्ण उत्तरों एवं आसपास के वातावरण से लगा कि उसमें अपने आपको पुरस्सर करने की भावना नहीं अपितु नमस्कार मंत्र के ध्यान जप, एवं तपस्या ने यह सब कुछ घटित किया है। उसने कुछ प्रश्नों के उत्तर दिये, वे इस प्रकार है : प्रश्न - तुम्हारे बचपन के संस्कार क्या थे, जैन धर्म के प्रति तुम्हारा झुकाव कैसे हुआ ? उत्तर - "बचपन से मैं वैष्णव संस्कारों में पली थी। दूसरों की देखा-देखी मंदिर में जाना, पीपल को पानी सींचना आदि कार्य करती थी। विवाहोपरान्त उसी प्रकार गांव के हुनमान मंदिर में जाती और पीपल के पेड़ को सींचती। पीपल पर आई चींटियों को पानी से मरते देखकर मेरे मन में करुणा का स्रोत उमड़ता। मन ही मन विचार करती कि–'मैं अपना तो कल्याण चाहती हूं, किन्तु इससे अन्य जीवों को कितनी पीड़ा होती है। धर्म और तत्त्व के संबंध में मुझे कुछ और अधिक जानकारी उस समय तक नहीं थी और न ही जैन धर्म के संबंध में मुझे कोई जानकारी थी। ___“संयोगवश १६४६ में आचार्य श्री तुलसी के शिष्यों का चातुर्मास रामामंडी में हुआ, तब से मैं जैन धर्म के प्रति आकर्षित हुई। उसी चातुर्मास में मैने अपने आराध्य गुरुदेव आचार्य श्री तुलसी से साक्षात्कार किया। मेरी अन्तरात्मा को लगा कि मैंने सद्गुरु को पा लिया है।" __ "उसी चातुर्मास में मैंने सत्संग से संबंधित विस्तृत जानकारी प्राप्त की। तेरापंथ संगठन एवं उसकी परम्पराओं से मैं बहुत प्रभावित हुई। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ प्रज्ञा की परिक्रमा प्रश्न -"आप तपस्या के प्रति कैसे आकृष्ट हुई ? आपने क्या-क्या विशिष्ट तपस्याएं की हैं ?" उत्तर-सत्संग से मुझे लगा कि अपने संचित कर्मों को काटने के लिए तपस्या आवश्यक है। प्रथम चातुर्मास में ही मैंने एकान्तर (एक दिन उपवास एक दिन भोजन) दो महीनों तक किया, दो दिन और तीन-तीन दिन का उपवास भी किया। मुझे तपस्या से शक्ति व शान्ति का अनुभव होता। दूसरे और तीसरे चातुर्मास में भी मैंने तपस्या और साधना प्रारम्भ की। पिताजी की आकस्मिक मृत्यु ने मुझे झकझोर दिया और मेरे मन में विरक्ति और विराग भी हुआ। संसार के कार्यों से मुझे विरक्ति हो गई। रह-रह कर मन में आता कि जिस पिता ने मुझे पाला-पोसा उसका भी अंतिम-दर्शन नहीं कर सकी। वे चले गये तो अब इस जीवन का क्या विश्वास ? क्यों न मैं अपने जीवन को साधना में लगाऊं। मैंने तीन दिन की तपस्या चौविहार नवकार मंत्र के विशेष अनुष्ठान के रूप में की। उसके साथ-साथ मैं अपने कर्म क्षय के लिए एकान्तर, कर्मचूर, पन्द्रह वर्षी तप, पन्द्रह दिन की तपस्या की लड़ी, पांच एवं आठ दिन के उपवास आदि नाना प्रकार की तपस्या करती रही। प्रश्न -"तुम्हारी ध्यान में अभिरुचि कैसे हुई ?' । उत्तर - "मैं ध्यान के संबंध में अधिक कुछ नहीं जानती थीं। ज्यों-ज्यों जप और तपस्या करती मुझे दिव्य आवाज होती। उसके अनुसार मैं अपनी साधना करती चलती। एक बार मेरे मन में आया कि मुझे धूप में जप करना चाहिए। मैंने वैसे ही किया। शरीर में रोगों का उपद्रव होने लगा। एक दिन मैं जप कर रही थी कि दिव्य आवाज आई-'शरीर को धूप से सुखाने से क्या होगा।" मन को सुखाओं शरीर के साथ इस प्रकार की जबरदस्ती से क्या होगा फिर मैंने धूप में जप करना छोड़ दिया। तप से मेरा मन ध्यान की ओर आकृष्ट हुआ। पहले थोड़ा ध्यान करती थी अब ध्यान पर विशेष अभिरूचि हो गयी। ३१ दिन की तपस्या में रात्रि को ६-७ घण्टे खड़े-खड़े ध्यान करने लगी। ध्यान में नवकार मंत्र के दो पद तथा पांचों पदों का निरन्तर स्मृतिमय जप करती। उस समय अनेक चमत्कार भी हुए। कुछ-कुछ दिव्य आवाज भी आती, मुझे कहती-"तुम्हें जो चाहिए वह ले लो। इसके साथ ही प्रतिदिन गुरुजी के दर्शन भी मुझे साक्षात् होते। प्रातः चार बजे से पांच बजे Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जप, तप और ध्यान के चमत्कार १५५ के बीच एक भव्य मुनि के दर्शन होते। वे मुझे संस्कृत में कुछ बताते। मैं उसे पूरी तरह समझ नहीं पाती। इसलिए सरल शब्दों में मुझे बताते। कई गीतिकाओं का शुद्ध उच्चारण करना भी सिखलाते । मैं अनपढ़ और अक्षर बोघ से अनभिज्ञ थी। इसके साथ-साथ देवताओं के विमान भी मुझे दिखायी दे जाते। वे देवता लोग मुझे कहते.....तुम्हें क्या चाहिए ? धन, मकान या और कुछ ? परन्तु मैं अपनी आत्मा के कल्याण की कामना के अतिरिक्त कुछ नहीं कहती। प्रश्न - ध्यान और तपस्या से क्या कुछ और भी घटित हुआ ? उत्तर - आंखों में रोशनी लौटी। अकस्मात् मेरी आंखों की रोशनी चली गई। बड़े-बड़े डॉक्टरों से जांच कराई सभी कहते हैं कि हमें इसकी आंखों में रोशनी लगती है, किन्तु दिखायी क्यों नहीं देता, इसका कारण भगवान ही जाने। घर वाले हैरान हो गय । आठ महीने परिवार वालों ने सेवा तो की परन्तु आंखों की रोशनी जाने से सब चिन्तित थे। मैंने अंत में गुरुदेव की शरण ली। चौविहार अठाई की तपस्या की। जप और ध्यान के लिए आसन जमाकर बैठ गई। मन में संकल्प ले लिया कि आंखों की रोशनी लौटने पर ही उलूंगी। तीसरे दिन अकस्मात् एक झटका सा लगा। रोशनी लौट आई। सब लोग आश्चर्य चकित थे पर मेरा मन तो यही कह रहा था कि गुरुदेव की अगाध श्रद्धा, जप एवं तपस्या का ही यह परिणाम है। जप से बुखार गायब गीदड़बाहा के बनारसीदास अग्रवाल लम्बे समय से बीमार थे। वे हमारे संबंधी थे। मेरे पतिदेव ने मुझे कहा-"तुम्हारे देवता बहुत कुछ करने को कहते हैं, क्यों नहीं उन्हीं से इनकी बीमारी ठीक करा लो। मैंने कहा यह कैसे हो सकता है ? फिर भी आपकी आज्ञा का अनादर मैं नहीं कर सकती। मुझे वहां ले जाया गया। उनके पास बैठकर मैंने महामंत्र का पाठ प्रारम्भ किया। उस समय उन्हें १०५ डिग्री बुखार था। एक महीने से उनकी स्थिति दयनीय थी। बीमारी ठीक होने की आशा निराशा में बदलती जा रही थी। मैंने लगातार तीन घण्टे तक महामंत्र का पाठ किया मैं पाठ कर रही थी कि बनारसीदास को रोशनी नजर आई फिर मानो वे किसी व्यक्ति से बात कर रहे हों। वैसे वे आकाश से बातें करने लगे। जवाब-सवाल में उसने बतलाया कि तुम अब ठीक हो, तुम्हारे कोई रोग नहीं है। वे तत्काल बैठ गये। उन्होंने अपने बही Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ प्रज्ञा की परिक्रमा खाते मंगवाये । घर वाले इस प्रकार की बात सुनकर चौंके कि हो न हो इन पर किसी दूसरी हवा का असर हो गया है। मुझे गालियां देते हुए और यह कहते हुए बाहर निकाल दिया कि इसने ही सब कुछ किया है। घर वाले बनारसीदास जी को सिरफिरा समझने लगे, किन्तु जब श्री दास ने स्पष्ट बताया कि मैं बिल्कुल चंगा हो गया हूं। तुम लोगों ने उस बहन का अनादर करके बड़ी गलती की है, उसे वापस बुलाओ। मुझे वापस बुलाया गया और भूल के लिए क्षमा मांगने लगे। सड़ी रीढ़ की हड्डी ठीक हो गई बनारसी दास की बुआ मोडमपी में थी। उसकी रीढ़ की हड्डी सड़ गयी थी। स्पंज के मोटे गद्दों पर रात-दिन लेटी ही रहती थी। डॉक्टर ने प्लास्टर आदि लगाकर बहुत इलाज किया पर ठीक नहीं हुआ। वह निराश हो गई। अपनी जिन्दगी के दिन काट रही थी। बनारसीदास ने मुझसे कहा-तुम्हें उसे भी ठीक करना होगा। मैंने कहा-ठीक होना न होना मेरे हाथ की बात तो है नहीं। मैं कोशिश करूंगी। यदि ठीक हो गयी तो उसका नसीब । उसको लाने के लिए जीप लेकर उसके घर पहुंचे तो घरवालों ने इंकार करते हुए कहा-यह तो मरणासन है, इसे लेजाकर क्या करोगे? किसी प्रकार जीप में लेटाकर उसे मेरे पास लाये । वस्त्र आदि बदलने के पश्चात् मैंने तपस्या सहित जप प्रारम्भ किया तो आवाज आई कि यह २१वें दिन अपने आप उठकर चली जायेगी। औषध का सेवन आवाज के अनुसार किया। इक्कीसवें दिन एकदम तन्दुरुस्त होकर वह अपने आप उठकर चली गई। दुर्घटना से बचाव __ गिरधारीलाल (पुत्र) पोरबंदर गाड़ी में जा रहा था। जामनगर के निकट गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई। उस समय मेरे पन्द्रह दिन की तपस्या थी। मैं ध्यान में थी। मेरी आंखों के समक्ष सारा दृश्य आ गया। मैंने सही घटना गिरधारी के पिताजी से कही-वे चिंतित हुए। साथ ही मैंने उनसे कहा कि उसको कोई नुकसान नहीं हुआ। उसका तार भी कल आ जायेगा। वैसा ही हुआ। ऐसे ही एक दूसरी घटना (ट्रेन-दुर्घटना) होते-होते बची। उसका उल्लेख भी उसी समय घर पर कर दिया। प्रथम दुर्घटना की सच्चाई उसके पुत्र गिरधारीलाल ने बतायी। साथ ही उसने बताया कि जब हम किसी यात्रा पर जाते हैं तब माता जी के हाथ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जप, तप और ध्यान के चमत्कार १५७ का लिखा नवकार मंत्र का पत्र साथ रखते हैं, यह पत्र हमारी सुरक्षा का कवच है। ऐसा हमारा विश्वास है । लापता लड़के की खोज सुरेन्द्र नाम का एक लड़का गुम हो गया था। उसके माता-पिता ने उसके बारे में खोज करने के लिए आग्रह पूर्वक कहा। तब मैंने ध्यान में पुनः देखा तो मेरे सम्मुख दिल्ली स्टेशन का चित्र आ गया । फिर लुधियाना का चित्र आया । सुरेन्द्र सामने खड़ा दिखायी दिया। घरवालों को उसके संबंध में बतलाया । वह ठीक वैसे ही उस स्थान पर मिल गया । झूठी सूचना का पर्दाफास मेरी सहेली का लड़का घी लाने के लिए रामामंडी से राजपुरा गया । पीछे से घरवालों को किसी ने समाचार दिया कि उसकी मृत्यु हो गयी। सारे घर में कोहराम मच गया। मैं घर में खाना बना रही थी । सहेली रोती हुई घर पर आयी। उसने सारी घटना की चर्चा की। मुझे घर पर ले गई । मैंने उसे समझाया कि बिना पूरी सूचना के इस प्रकार रोना-बिखलना अच्छा नहीं है। उसने कहा कि यह झूठ कैसे हो सकती है ? मैं उसी के घर पर जप और ध्यान के लिए बैठ गई । कुछ समय पश्चात् लगा कि लड़का चार बजे वापस लौट आया है। उससे पहले उसकी सूचना भी आ जायेगी। किन्तु घर वालों को तो विश्वास नहीं हो रहा था, मैं वहीं पास बैठी रही । तीन बजे उसका समाचार आया तथा चार बजे लड़का स्वयं घर पर आ गया । प्रश्न - यह सब कैसे होता है ? उत्तर - कुछ तो मुझे आवाज से अनुभव होता है। कुछ घटनाएं दृश्य के रूप में दिखायी दे जाती है। इसी प्रकार की अनेक घटनाएं होती रहती हैं । प्रश्न- साधना में कभी विंध्न भी आते हैं ? उत्तर - 'हां' कई बार। परन्तु मेरा रक्षक बलवान् है । वह सब उपद्रवों को शांत कर देता है। एक बार रक्षक से मैंने पूछा- आप कहां से आये हो? तो उसने बताया कि मैं महाविदेह क्षेत्र से आया हूं। अपने उपद्रवों की चर्चा करते हुए उसने बताया । एक रात्रि को मैं ध्यानस्थ थी । मेरे पांव पर चींटियां काटने लगीं। मैंने जब ध्यान पूरा किया, वंदना के लिए नीचे बैठने की कोशिश Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ प्रज्ञा की परिक्रमा की तो मैंने देखा भूरे रंग की अनगनित चींटियां थीं। मैं कुछ पीछे हटकर वंदना करने बैठी कि सारी चींटियां गायब हो गयी, परन्तु आसन पर पड़े रक्त के धब्बे आज भी सुरक्षित हैं । एक दिन तेले की तपस्या में ध्यानस्थ थी । मेरे कंधे पर बिल्ली आकर T बैठ गयी। घण्टों तक वह बैठी रही। उस समय मुझे काफी भार महसूस हो रहा था, साथ ही असहनीय वेदना भी हो रही थी। मैं शान्त भाव से सब कुछ सहन कर रही थी । ध्यान संपन्न हुआ, तब वह कूदकर ऊपर चली गई । इसी प्रकार एक बहिन को किसी मैली आत्मा ने घेर लिया। मैं पांच दिन की तपस्या कर उसके कष्ट निवारण के लिए महामंत्र का जाप करने लगी। मैं अलग कमरे में रहकर निरन्तर जाप करती। तीसरे दिन वह यह कहते हुए चली गई कि मैं यहां नहीं रह सकती । जाते-जाते उसने मेरे पांव की एड़ी को काट खाया। उस बहन की बीमारी एवं उस पर होने वाले उपद्रव शांत हो गये । प्रश्न- क्या कोई और भी विशेष घटना घटी ? उत्तर - मैंने ३१ दिन की तपस्या की । जप, ध्यान निरन्तर चल रहा था । एक दिन रात्रि में मैं ध्यान में खड़ी थी कि सारे शरीर में एक विधुत - प्रकम्पन सा हुआ। मस्तक पर विशेष सक्रियता से एक झटका सा लगा। मेरा सूक्ष्म शरीर इस तरह छोड़कर दिव्य यात्रा पर चल पड़ा। दिव्य लोक के चित्र थे । वहां की दिव्यता देखकर मैं विस्मित रह गई। मेरा देवलोक में भ्रमण करता हुआ विभिन्न दृश्यों को देखकर जब वापस लौटा तब पुनः उसी प्रकार वह शरीर में प्रवेश कर गया। इसके पश्चात् मुझे चेतना का अनुभव हुआ। ऐसी घटना तपस्या के बाद पन्द्रह-बीस बार हुई | शरीर और आत्मा की भिन्नता का अनुभव भी होने लगा । आत्मा ज्योतिर्मय अण्डाकार प्रतीत होती है । मेरी साधना गतिशील बनी रहे यही मेरी इच्छा है। मैंने इन सब घटनाओं का उल्लेख आपके पूछने पर ही किया है। यह सब गुरुदेव की कृपा है, वे मुझ जैसी अबोध का मार्ग-दर्शन करते हैं। गुरुजी की कृपा से सब कुछ है। उन्हीं की दी हुई शक्ति ही काम कर रही है । मैं तो कुछ भी नहीं हूं। ०००० Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ मुक्ति के सूत्र सब जीव जीना चाहते हैं। मरना कोई नहीं चाहता, जिजीविषा जीव की मौलिक वृत्ति है। जीने के लिए वह हर तरह, हर क्षण कोशिश करता है, संघर्ष करता है। मृत्यु उसे पसन्द नहीं है। यह शाश्वत स्वर है। आप्त पुरुषों की वाणी में इसका उल्लेख हुआ-'सव्वे जीवावि इच्छन्ति जीवियं न मरिजीवं' सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं। यह जिजीविषा ही जीव को जीवन्त और क्रियाशील बनाए हुए हैं। जिजीविषा की तरह अन्य मूल वृत्तियां आहार, भय, काम और संग्रह हैं। जैन परम्परा में इनको संज्ञाओं से अभिहित किया गया हैं। उसका कहना है कि प्रत्येक प्राणी में ये चार संज्ञाएं अवश्यंभावी होती हैं। उनके लिए ही प्राणी प्रवृत्ति करता है। ___ आहार शरीर धारण की आवश्यकता है। उसके बिना शरीर लम्बे समय तक टिक नहीं सकता। आहार के बिना कुछ महीने तक रहा भी जा सकता है, पानी के बिना कुछ दिन तक रहा जा सकता है लेकिन श्वास के बिना कुछ क्षण रहना भी मुश्किल है। श्वास, जल या भोजन की बुभुक्षा को शान्त करने के लिए यह जीव पुरुषार्थ करता रहता है। जिजीविषा के लिए आहार, स्थान आदि के लिए प्रयत्नशील चित्त उसे उपलब्ध होने पर राग एवं अनुपलब्ध होने पर द्वेष में चला जाता है। राग एवं द्वेष ही बंधन का मूल है। राग-द्वेष के विलय का पुरुषार्थ ही साधना और सिद्धि है। राग-द्वेष के विलय के पुरुषार्थ को एक-एक शब्द से अभिव्यक्ति दें तो वह प्रेक्षा हो सकता हैं। प्रेक्षा-अर्थात् केवल दर्शन । गहराई से देखना, अनुभव करना, राग-द्वेष रहित वर्तमान क्षण का साक्षात् करना। प्रेक्षा राग-द्वेष से मुक्त रहने की प्रक्रिया है। प्रेक्षा चैतन्य का शुद्ध उपयोग है। शुद्ध उपयोग में प्रियता, अप्रियता नहीं रहती, केवल उपयोग अस्तित्व का अनुभव रहता है। यह अन्तरंग स्थिति है। अन्तरंग स्थिति के निर्माण में बाह्य वातावरण भी सहयोगी बनता है। उसके बिना अन्तरंग स्थिति भी दीर्घकाल Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० प्रज्ञा की परिक्रमा तक स्थिर नहीं रह सकती इसलिए अनुप्रेक्षा आदि का अभ्यास किया जाता साधना को सिद्धि की यात्रा तक पहुंचने के लिए जिन-जिन सूत्रों का आलम्बन लिया जाता है उसमें सबसे पहला सूत्र है-उत्साह। किसी भी कार्य की सिद्धि प्रबल पुरुषार्थ के बिना नहीं रह सकती। पुरुषार्थ की सफलता तब ही हो सकती है जब वह उत्साह-पूर्वक किया जाता है। कार्य की सिद्धि में उत्साह का महत्वपूर्ण स्थान है। साधना अथवा मोक्षाभिलाषा अन्तरंग स्थिति है। उसमें अन्य कोई आकर्षण काम नहीं देता। वहां व्यक्ति स्वयं अपने निर्मल पुरुषार्थ से कार्य करता है। तब ही उसे अभिप्सित सिद्धि उपलब्ध होती है। __ पुरुषार्थ की सफलता तब ही पूर्ण होती है, जब ध्येय का निर्णय स्पष्ट हो। ध्येय के बिना किया गया पुरुषार्थ किस दिशा की ओर प्रवृत्त हो जाए कहा नहीं जा सकता। इसलिए ध्येय का निश्चित करना साधक का प्रथम कर्तव्य है। एक प्रश्न हो सकता है कि ध्येय से पहले उत्साह (पुरुषार्थ) को कैसे स्थान दिया गया। ध्येय भी पुरुषार्थ से उपलब्ध नहीं होता है। ध्येय को जब तक सर्वात्मना प्राप्त नहीं कर लेते हैं, तब तक धैर्य रखना आवश्यक है। बहुत बार ऐसा होता है, सफलता की चरम स्थिति तक पहुंचने की स्थिति प्राप्त होने की होती है साधक का धैर्य टूट जाता है। सब कुछ किए का परिणाम निष्फल चला जाता है। साधना में असीम धैर्य की आवश्यकता होती है। एक पौराणिक आख्यान है वह कितना सच है या नहीं किन्तु उसमें निरूपित तथ्य यथार्थ हैं। नारद विश्व-भ्रमण पर थे। मार्ग में उसे एक साधक मिला, जिसको साधना करते हजारों वर्ष हो गए। शरीर उसका जीर्ण-शीर्ण हो गया। हड्डियां पंसलियां दिखाई दे रही थीं। उठते-बैठते उनमें सूखे वृक्ष की तरह आवाज होती थी। नारद को सम्मुख देख अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अपनी मुक्ति के संबंध में पूछने लगा। नारद ने अपने यौगिक ज्ञान से उसको बताया कि अभी तो मुक्ति बहुत दूर है। 'मुझे हजारों वर्ष हो गए क्या अब भी मुक्ति दूर है ?' 'हां-हां अब भी मुक्ति दूर है, बहुत दूर...........!' Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति के सूत्र १६१ योगी निराश, निरस्त मन ही मन चिन्तन करने लगा क्या मैं मुक्त होऊंगा ही नहीं ? 'ऋषिराज कहीं तो सीमा होगी? कुछ तो बताएं।' दयार्द्र आंखें अपलक नारद की आंखों में झांकने लगीं। नारद ऋषि गंभीर होकर बोले, इस विराट बरगद पेड़ के पत्तों जितने दिन आपकी मुक्ति के अवशेष हैं। बरगद के पत्तों जितने दिन...........बाप रे बाप. ..हजारों पत्ते इतने वर्ष कब पूरे होंगे मैं तो थक चुका इस साधना से, मुझ-से अब कुछ नहीं होगा। साधना के उपक्रम का परित्याग कर, संसार-पदार्थ-सुख की ओर प्रवृत्त हो गया। नारद ऋषि आगे चले । विभिन्न क्षेत्रों का परिभ्रमण करते हुए ऐसे स्थान पर पहुंचे। वहां भी एक नवयुवक सन्यासी साधनारत था। उसने नारद ऋषि को देखते ही प्रमाण किया। और अपनी साधना की सिद्धि के संबंध में प्रश्न किया। नारद मुस्कारए 'सिद्धि...अभी तो तुमने साधना प्रारम्भ की है।' 'हां हां साधना का प्रारम्भ ही तो सिद्धि का द्वार है। आखिर मुक्ति तो कभी होगी ही ! आप तो भविष्य द्रष्टा हैं। करुणा कर बताएं मेरी मुक्ति कब होगी?' 'मुक्ति में बहुत देरी है, बड़ के पेड़ पर जितने पत्ते हैं इतने वर्ष लगेंगे।' साधक आनन्द विभोर हो उठा। बस! तब तो क्या ? इस अनन्त में तो ये वर्ष एक बिन्दु ही नहीं हैं। भावों का ऐसा प्रवाह उमड़ा, उसके सघन बन्धन शिथिल बने। नारद के देखते-देखते वह सदा सर्वदा के लिए विमुक्त बन गया। पहला साधक सिद्धि के निकट पहुंच गया था। थोड़े वर्ष और साधना करता तो उसे सिद्धि मिल जाती, लेकिन निरुत्साह ने उसे अनन्त के गर्त में डाल दिया। दूसरा साधक स्वल्प समय से ही साधना कर रहा था। उसे भी नारद ने वैसा ही उत्तर दिया, लेकिन उसके उत्साह, भावना और संकल्प से साधना शीघ्र ही सिद्धि में परिणत हो गई। साधना की सिद्धि में ध्येय का निश्चय और उत्साह आवश्यक है, तो असीम धैर्य की अपेक्षा उससे भी अधिक है। . साधना के मार्ग में निःशंक अनासक्त रह कर ही पूर्णता को उपलब्ध हो सकते हैं। साधना से ज्यों-ज्यों निर्मलता बढ़ती है, साथ ही लब्धियां (विभूतियां) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्रज्ञा की परिक्रमा प्रगट होने लगती हैं। लब्धियों के आकर्षण में साधक बहकर साधना से भ्रष्ट हो सकता है। विभूति और लब्धियां मार्ग में अवश्य आएंगी, किन्तु साधक उसमें अनुरंजित न हो अन्यथा पुनः संसार का परिभ्रमण निश्चित है। साधना का चौथा सूत्र बनता है-संतोष । हर परिस्थिति में साधक संतुष्ट रहे। चाहे जैसी परिस्थिति हो, साधक उसमें धैर्य के साथ संतुष्ट रहने से साधना में आगे से आगे बढ़ता रहता है। असंतोष साधना का ऐसा बाधक तत्त्व है जिससे साधक न घर का रहता है न घाट का। सिद्धि में बाधक तत्त्व असंतोष का निरसन नहीं होता तब तक यथार्थ का बोध नहीं हो सकता। कामना, इच्छा, ही व्यक्ति को भ्रष्ट करती हैं। कामना से विमूढ़ बना, कहीं-कहीं क्षुद्रताओं में प्रवृत्त बना, अपने जीवन को स्वाहा कर देता हैं। इन सबसे निवृत्ति प्रदान करने वाला तत्त्व यथार्थ बोध है। यथार्थ बोध ही साधक को साधना में स्थिर, गतिशील और अन्तिम ध्येय तक पहुंचाता है। पीछे वर्णित साधना को गतिशील बनाने वाले तत्त्व उत्साह, निश्चय, धैर्य, संतोष, तत्त्वदर्शन पांचों की उपलब्धि से व्यक्ति साधना की महायात्रा में प्रतिक्षण आगे से आगे बढ़ता जाता है। इन पांचों तत्त्वों की प्राप्ति के पश्चात भी जब तक रागात्मक जनसंपर्क का परित्याग नहीं करता है, सिद्धि वैसे ही हट जाती है, जैसे हवा चलने से बादल दूर चले जाते हैं। जनसंपर्क से वाचालता, वाचालता से स्पन्दन, मन और चित्त में भ्रान्ति उत्पन्न होती हैं। भ्रान्ति ही सर्वनाश का मूल है। साधना की अभिरुचि वाले साधक को जनसंपर्क कम से कम करना चाहिए। उससे मौन, मनन, निदिध्यासन और यथार्थ का साक्षात्कार किया जा सकता है। मनीषियों ने अपने प्रबुद्ध चिंतन को इस प्रकार लिपिबद्ध किया है। जनेभ्यो वाक् ततः स्पन्दो, मनश्चित्तविभ्रमाः, भवानी तस्मात् संसर्गे, जनै योगी ततस्त्यजेत्। ०००० Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि किशन लाल लेखक का जीवन परिचय जन्म : ३ नवम्बर, मंगलवार १६३६, विक्रम संवत् १६६३, कार्तिक कृष्णा चतुर्थी, सोमवार मोमासर (राजस्थान)। दीक्षा : १२ जनवरी १९५२ विक्रम संवत् २००६ माघ कृष्णा तृतीया, रविवार मोमासर (राजस्थान) लेखक की प्रमुख कृतियाँ साधना, प्रयोग और परिणाम प्रज्ञा की परिक्रमा प्रेक्षाध्यान : आसन-प्राणायाम जीवन विज्ञान (वर्णमाला) जीवन विज्ञान भाग १-१० तक अलग-अलग जीवन विज्ञान भाग १-२ अंग्रेजी एवं ३ से १० तक अंग्रेजी (प्रेस में) जीवन विज्ञान एक परिचय (हिन्दी/अंग्रेजी) प्रेक्षाध्यान : यौगिक क्रियाएं (हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, बंगाली और तमिल) आँसुओं का दान (कथा संग्रह) १०. प्रिय दर्शन (उपन्यास) ११. नमस्कार महामंत्र की प्रभावक कथाए प्रेक्षाध्यान : नशामुक्ति प्रेक्षाध्यान हस्त-मुद्राएं १४. जीवन विज्ञान शिक्षक संदर्शिका १५. जीवन विज्ञान प्रश्न मंच १६. प्रेक्षाध्यान एक परिचय विशेष : गणाधिपति श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ के विद्धान शिष्य, प्रेक्षाध्यान, जीवन-विज्ञान विशेषज्ञ, अणुव्रत अनुशास्ता तुलसी द्वारा प्रदत्त 'प्रेक्षा प्राध्यापक अलंकरण आपके कर्तृत्व का मूल्याकंन है। Jain Education Inter Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________