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________________ १३ आलोक कल एक युवक आया। जीवन में कुछ कर गुजरने की उसकी तीव्र आकांक्षा थी किन्तु वह कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा था कि उसे क्या करना है। उसने मुझसे कहा-'यह जीवन अत्यन्त कीमती है, ऐसा मैंने शास्त्रों और प्रवचनों में पढ़ा व सुना है। मुझे बताएं जीवन की महत्ता को कैसे पूरा किया जाये ?' ___ मैं उसके प्रश्न को सनकर मौन हो गया। मेरी मौन-भंगिमा को वह एकटक देखने लगा। प्रश्न उसका वैसे ही प्रस्तुत था। वह मेरी गम्भीर मुद्रा को देख स्थिर हो गया। मैंने कोई प्रत्युत्तर उसमें उडेलने की कोशिश नहीं की। मैं शान्त मन से उनके प्रश्न को दुहराने लगा। वह प्रश्न भी गहराई में जा रहा था। मैंने देखा कि उसके गम्भीर चेहरे पर गुलाबी फूट रही थी। उसका अन्तर अभिव्यक्ति के लिए उत्कंठित-सा लग रहा था, फिर भी वह मौन था। प्रश्न को जब तक हम गहराई से और निकटता से अनुभव नहीं करते तब तक प्रश्न ऊपर, ऊपर ही तैरता रहता है। प्रश्न को गहराई से खोजने की कोशिश करने पर सत्य स्वयं प्रस्तुत हो जाता है। आज हर प्रश्न का समाधान बाहर से पाने की कोशिश होती है। शास्त्रों एवं महापुरुषों की ओर ताका जाता है किन्तु बाहर से आये समाधान से अन्तर को आलोकित नहीं किया जा सकता है। अन्तर् को आलोकित केवल आत्म-विज्ञान ही कर सकता है। आत्म-विज्ञान और सम्यग्-ज्ञान भिन्न नहीं है। हर चेतन अपने आप में दिव्य आलोक से आलोकित है। वह अनन्त प्रकाश से प्रकाशित है। प्रश्न केवल इतना ही अवशिष्ट रह जाता है कि उस आवृत चेतन का बोध कैसे किया जाए। इसको समग्रता से जानना ही सजग होना है। दिव्य प्रकाश प्राप्त करता है। जब तक बाह्य से तादात्मय स्थापित करने का प्रयत्न चलेगा, तब तक अपने आपको व्यक्त नहीं कर सकते। अपने आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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