SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वतन्त्रता के बदलते मूल्य १३३ है और अनुशासन की चर्चा करती है। क्या कोई सत्ता स्वयं अनुशासित हुए बिना शासन संचालित कर सकती है ? यदि करती है तो वह कितने समय तक सुरक्षित रह सकती है। स्वयं का शासन ही उसे स्वयं निगल जाता है। अतः शासन संचालन से पूर्व सत्ता को अनुशासन से अपना आत्म-संयम करना होता है। शासन सत्ता की शक्ति का सहयोग केवल सुव्यवस्था के लिए करें । शासन अनुशासन को प्रकट होने का अवसर प्रदान करें। समाज की सामूहिक रूप से स्वीकृत व्यवस्थाओं को स्वहित समझ कर स्वीकार करें। अनुशासन में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सभी का हित है । पदार्थ की अपनी विशेषता है, वह सदैव विकास के लिए प्रयत्नशील रहता है । वह बन्धन से निर्बन्ध होना चाहता है । चैतन्य अथवा कोई पदार्थ सदैव गतिशील बनकर स्वतंत्र इकाई के रूप में परिवर्तित होने को उत्सुक रहता है । स्वतंत्रता का यही आधारभूत अस्तित्व है। स्वतंत्रता सबका जन्म सिद्ध अधिकार है। उसकी उद्घोषणा महान् व्यक्तित्व की अपनी एक विशेष दृष्टि है । सत्ता, शासन, अनुशासन तीनों उपयोग का अस्तित्व स्वातन्त्र्य के लिए होता है तो वह व्यक्ति समाज, राष्ट्र और विश्व के कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है। अन्यथा ये शब्द मात्र उपचार रह जाते हैं । स्वतंत्रता की अवधारणा भी सीमित है। इस जगत् में कोई भी असीमित और पूर्ण स्वतंत्र नहीं होता। स्वतंत्रता की भी सीमा और सापेक्षता है। उससे इन्कार नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता के ख्वाब में डूबने वालों को उसकी सीमाओं का स्पष्ट बोध होना आवश्यक है। स्वतंत्रता स्वच्छन्दता नहीं, स्वयं के अनुशासन की पूर्णता है । स्वानुशासन और प्रेक्षा प्रेक्षा मूर्च्छा को तोड़ने की प्रक्रिया है । मूर्च्छा ही व्यक्ति को विभ्रम में डालती है । विभ्रम शंकाशील बनता है। शंकाशील बन्धन को प्राप्त होता है। बन्धन ही संसार में परिभ्रमण करवाता है । बन्धन से मुक्ति का मार्ग प्रेक्षा है । प्रेक्षा से स्वानुशासन आता है। स्वानुशासन से प्रेक्षा सम्यग् प्रकार से होने लगती है। स्वतंत्रता के इच्छुक व्यक्ति को प्रेक्षा से गुजरना होगा। प्रेक्षा करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy