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________________ १३४ प्रज्ञा की परिक्रमा वाला स्वानुशासन को उपलब्ध होगा। स्वानुशासन ही स्वतंत्रता और मुक्ति को प्रदान करती है। स्वतंत्रता स्ववशता का ही पर्यायवाची है। स्ववशता या स्वतंत्रता आपेक्षिक वचन है, क्योंकि इस जगत् में कोई स्वतन्त्र इकाई स्वयं के अस्तित्व के बल से टिक नहीं सकती है। उसे गति, स्थिति, अवगाहना आदि के लिए भी सहयोग लेना ही होता है पदार्थ चाहे वह जीव हो या निर्जीव सम्पूर्ण स्वतंत्र हो नहीं सकता। उसे एक-दूसरे के सहयोग को स्वीकार करना ही होता है, यह स्वीकृति है। स्वतंत्रता को सीमित बना देती है। सम्पूर्ण स्वतन्त्रता अशरीरी अवस्था में ही उपलब्ध होती है। बस अशरीरी (सिद्ध) ही सम्पूर्ण स्वतंत्र हो सकता है, किन्तु जीवन व्यवहार इससे चलता नहीं। अतः सीमित स्वतंत्रता ही व्यक्ति को प्राप्त होती है। प्रेक्षा का ज्यों-ज्यों विकास होता है, व्यक्ति असीमित स्वतंत्रता को उपलब्ध हो, द्रष्टा ज्ञाता बन जाता है। ज्ञाता और द्रष्टा ही स्वतंत्र बन सकता है। ०००० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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