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प्रज्ञा की परिक्रमा व्यक्ति और स्वतंत्रता ___ व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व की इकाई है। सबका मूल व्यक्ति है। व्यक्ति के लिए ही परिवार, समाज व राष्ट्र की संकल्पनाएं की गई हैं। व्यक्ति के विकास और उसके सामर्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए ही जो व्यवस्थाएं जुटाई जाएं, वे ही जब उसके विकास और सामर्थ्य को लीलने लग जाए तब कैसे संभावना की जाए कि व्यक्ति का विकास होगा। व्यक्ति चिन्तनशील प्राणी है वह अपने हिताहित का निर्णय स्वयं अपने विवेक से करें, विवेक का जागरण उसके विकास के लिए आवश्यक है। विवेक जागरण की चर्चा के साथ एक प्रश्न जुड़ जाता है कि किसे विवेक कहा जाए और किसे अविवेक । विवेक और अविवेक के बीच भेद-रेखा बनाना कठिन हैं, फिर भी उसकी कोई कसौटी तो बनानी ही होती है। कसौटी का पहला घटक हो सकता है-जागरूकता। दूसरा स्व पर विराधना का परित्याग अर्थात स्वार्थ चेतना का त्याग। जागरूकता विवेक का आधार है, स्वार्थ चेतना व्यक्ति को मूढ़ बनाती है। मूढ़ता विवेक को विस्मृत बना देती है। विस्मृत विवेक ही अविवेक में उतारता है। जागरूकता और स्वार्थ चेतना के परित्याग का परिणाम ही स्वतंत्रता है। जितने अंशों में जागरूकता बढ़ती है स्वार्थ चेतना का परिहार होता है ; व्यक्ति स्वतंत्रता की ओर यात्रा करने लगता है। स्वतंत्रता का पहला पड़ाव चिंतन की स्पष्टता, दूसरा आचरण की विशुद्धता। चिन्तन और आचरण की विशुद्धता स्वतंत्र व्यक्तित्व को निर्मित करने में सहयोगी बनती है। सत्ता, शासन के बीच स्वतंत्रता
सत्ता, शासन, अनुशासन की मर्यादा क्या हो ? कहां सत्ता की अपेक्षा शासन को है। कहां अनुशासन सत्ता और अनुशासन से फलित होता है ? सत्ता शासन और अनुशासन की कहां एकात्मकता है ? कहां उसका स्वतंत्र अस्तित्व है ? यह प्रश्न चिर-चिन्तनीय है। हर अस्तित्व का स्वतंत्र व्यक्तित्व है। हर व्यक्तित्व की अपनी स्वतंत्र यात्रा होती है। सत्ता की अपनी शक्ति है। शक्ति ही सत्ता को जीवन्त बनाए रखती है। लेकिन शक्ति सत्ता पर उस प्रकार हावी हो जाए कि सत्ता के स्वतंत्र अस्तित्व को तिरोहित करने लग जाए, तब प्रतिरोध होना प्रारम्भ हो जाता है। आखिर सत्ता भी व्यक्ति के सहारे जीवन्त बनती है। व्यक्ति द्वारा ही शक्ति, सत्ता शासन का आसन सम्भालती
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