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समस्या का मूल-समाधान का फूल
२७ चलता रहेगा ? शिष्य की अपनी समस्या है कि हजार कसम और उपालम्भ खाने के बाद भी वह समझ नहीं पा रहा है। आखिर यह सब अनचाहे क्रोध में कैसे प्रवृत्त हो जाता है, काम में आसक्त हो जाता है गुरु की अपनी कठिनाई है, इसको इतना समझाया, पढ़ाया, परिश्रम किया, उपदेश दिया, सब गुड़गोबर कर दिया ऐसे ढीठ शिष्य को अपने पास रखना तो सर पर बला मोल लेना है।
पिता के लिए पुत्र, सास के लिए बहू, मालिक के लिए मजदूर समस्या बन गया है। समस्या के समाधान का सूत्र एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप से नहीं मिल सकता। आरोप-प्रत्यारोप से केवल कटुता ही बढ़ सकती है। वह फिर एक नवीन समस्या का रूप धारणा कर लेती है।
जब इस समस्या का समाधान खोजा गया तो एक नई दृष्टि उपलब्ध हई । समस्या कहीं है, समाधान कहीं, खोजा जा रहा है। केवल उपदेश देकर शिष्य के मानस में जमे संस्कारों को कैसे बदला जा सकता है ? उपदेश श्रवण करने वाला व बदलने वाला दोनों एक नहीं होते। इसका अलग स्थान
और क्षेत्र है। उपदेश सुनने से मस्तिष्क के श्रवण और स्मृति कोष्ठक सक्रिय होते हैं, उससे शब्दकोष की क्षमता का विकास होता है। चेतना के स्तर पर वह ऐसा एहसास करने लगता है कि मुझे सब कुछ ज्ञात है, किन्तु ज्ञान आचरण की भूमि पर उतर नहीं पाता। __ हजारों साल होने जा रहे हैं-उपदेश और सत्संग के मंच से आदमी रूपान्तरित नहीं हुआ। प्रत्युत् उपदेश और सत्संग में जाने से अंहकार का अनुभव होने लगता है कि मैं सत्संगी और सद्शास्त्रों का ज्ञाता हूं।
निरन्तर सत्संग और उपदेश के बावजूद भय, आवेश, ईर्ष्या, घृणा आदि तो वैसे के वैसे ही हैं। तब व्यक्ति को सोचने को विवश होना पड़ता है कि हम परस्पर एक-दूसरे की समस्या से पीड़ित हैं। आखिर समाधान का सूत्र कहां उपलब्ध होगा ? हर समस्या अन्तरंग होती है। हमें समस्या का विस्तार बाहर फैला दिखाई देता है। बाहर परिधि है और केन्द्र भीतर है। इसलिए समस्या का समाधान भीतर खोजना होगा। प्रेक्षा-ध्यान समस्या को भीतर खोजता है, परिणामतः समस्या को स्पष्टतः देखना ही उसके समाधान का आदि बिन्दु बन जाता है।
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