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प्रज्ञा की परिक्रमा बाहर जो भी घटना घटित होती है, उसको अन्दर से स्वीकृति नहीं मिलने से उसका कोई प्रभाव व्यक्ति पर नहीं होता, एक ही घटना को सहस्रों व्यक्ति सहस्रों रूप से उसे स्वीकृत या अस्वीकृत करते हैं। स्वीकृति करने वाले प्रभावित होते हैं, अस्वीकृत करने वाले अप्रभावित होते हैं, जबकि तटस्थ रहने वाला तटस्थ ही रहता है।
आवेगों अथवा अन्य समस्याओं का समाधान कोई दूसरा नहीं दे सकता उसके लिए स्वयं को पुरुषार्थ करना होता है। प्रेक्षा की प्रक्रियाएं सम्यक् पुरुषार्थ को जागृत कर समाधान प्रस्तुत करती हैं। प्रेक्षा की प्रक्रियाओं में भावक्रिया, प्रतिक्रिया-निवृत्ति, मैत्री, मितहार और मौन फलित होता है।
भावक्रिया वर्तमान में जीने की कला है। अतीत और भविष्य से हटकर व्यक्ति का उपयोग (ज्ञान) वर्तमान में उपयुक्त होता है तो समस्याएं स्वयं समाहित हो जाती है। अतीत और भविष्य में उलझकर वर्तमान को खो देना ही समस्या का स्रोत है। उससे क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती रहती है। प्रतिक्रिया की श्रृंखला जीवन में विघटन, निराशा, शक्ति का अपव्यय आदि उत्पन्न करती है। __ प्रतिक्रिया-निवृत्ति प्रेक्षा से आज जन हम केवल वर्तमान में यथार्थ दृष्टि से जीते हैं तब स्वतः उपलब्ध हो जाती है। वस्तु और घटना को यथार्थ दृष्टि देखने मात्र से वीतरागता का पथ उपलब्ध होने लगता है। मैत्री की भावना मिताहार को प्रगट करती है, प्रेक्षक केवल जीवन निर्वाह के लिए मित आहार ग्रहण करेगा। मिताहार से आहार की शुद्धि, आहार की शुद्धि से शरीर की शुद्धि, शरीर से वाक् संयम और मौन होता है।
प्रेक्षा में फलित होने वाले पांच तत्व (१) भावक्रिया (२) प्रतिक्रिया-निवृत्ति (३) मैत्री (४) मिताहार (५) मौन
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