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________________ स्वाध्याय ज्ञान की गंगोत्री भगवान् महावीर से शिष्य ने पूछा-भन्ते ! स्वाध्याय से जीव क्या प्राप्त करता है। भगवान् ने प्रत्युत्तर में कहा-ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है। ज्ञानावरणीय चेतना पर आया ऐसा आवरण है, जिससे आत्म-दर्शन से व्यक्ति वंचित रहता है। ज्ञानावरण के क्षय होने से परमात्म स्वरूप उपलब्ध होता है। __ चैतन्य स्वरूप को विस्मृत कर, बहिरात्म भाव में प्रवृत्ति करता है। जिससे उसे पर द्रव्य में स्व का बोध होने लगता है। पर द्रव्य में स्व का बोध ही मिथ्यात्व, मूढ़ता, अविद्या है। मुक्ति की प्रथम झलक-सम्यग् दर्शन __ चैतन्य जब कषाय की मंदता से अंतराभिमुख होता है तब चित्त स्वभाव में प्रवृत्ति करने लगता है। पदार्थ के प्रति उसका दृष्टिकोण यथार्थ होने लगता है। यथार्थ भाव से (सम्यग्-दर्शन) अध्यात्म का प्रथम सोपान प्रारंभ होता है। सम्यग् दर्शन मुक्ति का प्रथम बिन्दु है। परमात्मा की पहली झलक सम्यग् दर्शन में ही उपलब्ध होती है। सम्यग दर्शन को उपलब्ध कर लेने वाला प्राणी निश्चित रूप से परमात्मा पद को प्राप्त करता है। मुमुक्षा ही भव्यत्व है परमात्म पद की उपलब्धि के कई चरण हैं। परमात्म पद की क्षमता समस्त प्राणियों में होते हुए भी अनंतानंत ऐसे प्राणी हैं जो त्रिकाल में भी इस पद को प्राप्त नहीं हो सकते। परमात्म पद की योग्यता का पहला लक्षण मुमुक्षा है जिसमें मैं मुक्त हो सकता हूं क्या ? ऐसी जिज्ञासा ही उसमें भव्यत्व का लक्षण प्रकट करती है। जिनमें ऐसी जिज्ञासा कभी नहीं उभरती वे अभव्य हैं। वे त्रिकाल में भी मुक्त नहीं हो सकते। उनके आवरण की ऐसी सघनता बनी रहती है कि वे इस मार्ग की ओर प्रवृत्त नहीं हो सकते। भव्य व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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