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________________ प्रज्ञा की परिक्रमा ही सुलभबोधि होता है अर्थात् साधना, सत्संग आदि के निकट आता है। सुलभ बोधि, कषाय की मंदता, स्वाध्याय और प्रेक्षा (साधना) के प्रयोग से सम्यग् दर्शन को उपलब्ध होता है। सम्यग्-दर्शन से आगे देशव्रत (अणुव्रत) महाव्रत, वीतरागता, केवल्य और मुक्ति का पथ उपलब्ध करता है। स्व उपस्थिति स्वाध्याय है "स्वाध्याय" स्व में उपस्थित होना है। अपने आप में ठहरना ही स्वाध्याय है। स्व में केन्द्रित होना स्वाध्याय है। स्व की यात्रा का साधन स्वाध्याय है। ___मनुष्य के पास "मन" एक ऐसा सक्षम साधन है। जिसके द्वारा अतीत की स्मृति, भविष्य की परिकल्पना और वर्तमान का अनुचिन्तन किया जा सकता है। मनुष्य अपने उपलब्ध ज्ञान को दूसरों तक संप्रेषित करता है। यह परम्परा ही ज्ञान के अक्षय भंडार को समृद्ध बनाती है। प्राचीन युग में ज्ञान कंठान रहता था। उस समय स्वाध्याय की महत्ता और अधिक थी। स्वाध्याय में प्रमाद से ज्ञान के विस्मृत होने की संभावना बनी रहती थी। स्वाध्याय ऐसा अमृत है जिसे पीकर ही अमरत्व का अनुभव किया जा सकता है। स्वाध्याय ग्रन्थों के संकलन की तरह मस्तिष्क में उन विचारों का संग्रहीत कर लेना ही नहीं है। स्वाध्याय चैतन्य का जागृत अनुभव हे। यद्यपि यह अनुभव वस्तु अथवा दूसरों द्वारा अनुभूत सत्य को चेतना के स्तर पर विचार, मननपूर्वक आता है। मनन के पश्चात् जब स्व का अनुभव किया जाता है तब सत्य स्वयं घटित होने लगता है। यह अनुभव ही स्वाध्याय है, स्वयं की स्थिति और ज्ञानोदय है। ज्ञानोदय (ज्ञान का प्रकटीकरण) निरन्तर विकसित होकर विराट तल पर फैल जाता है। दर्शन का स्रोत प्रस्फुटित होकर विचार और मनन द्वारा सम्यग्-दर्शन की पुष्टि करता है। सम्यग्-ज्ञान और पुरुषार्थ चारित्र को उत्पन्न करता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है। अनावरण से प्राणी भव-भव में परिभ्रमण करता है। आवरण का विलयकर यह मुक्तावस्था को उपलब्ध होता है। स्वाध्याय के बाधक तत्व स्वाध्याय का प्रथम बाधक तत्व दृष्टिभ्रम है। कुछ लोग समझते हैं स्वाध्याय से क्या ? केवल साधना, (आसन-प्राणायाम) उपासना, जप, तप एवं ध्यान से उस विराट तत्त्व को उपलब्ध हो जाएंगे। यह दृष्टिभ्रम हैं, विषर्यम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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