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________________ स्वाध्याय-ज्ञान की गंगोत्री ३१ स्वाध्याय के बिना सत्य की पहिचान और अभिव्यक्ति कैसे हो सकती है ? दृष्टिभ्रम के कारण ही करोड़ों-करोड़ों लोग शिक्षा में प्रवेश नहीं कर सकें। लड़कियों को पढ़ाया नहीं जाता। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां शिक्षा की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। शिक्षा के विकास के बिना पवित्र वातावरण का निर्माण नहीं हो सकता। शिक्षा तीन प्रकार से होती है शिक्षण, प्रशिक्षण और प्रज्ञा । शिक्षण अपने या दूसरे के अनुभूत तथ्यों को सीखाना और सिखना है। उसका प्रायोगिक शिक्षण-प्रशिक्षण है। अपनी अन्तर्-चेतना से स्फूर्त ज्ञान प्रज्ञा है। उसके लिए शिक्षण और प्रशिक्षण की अपेक्षा नहीं हो सकती। अपनी क्षमता के अनुसार ज्ञात, अज्ञात ज्ञान स्फूर्त होने लगता है, लेकिन प्रज्ञा को जागृत करने के लिए प्रेक्षा की आवश्यकता होती है। __स्वाध्याय का दूसरा बाधक तत्त्व आलस्य है। आलस्य का तात्पर्य सत्य के प्रति अपुरुषार्थ । सत्य को जानने के लिए परम पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। सम्यक् पुरुषार्थ के बिना कोई भी परमार्थ को उपलब्ध नहीं हो सकता। स्वाध्याय का तीसरा बाधक तत्त्व है प्रमाद। सत्य के प्रति विमूढ़ता के कारण व्यक्ति सत्य के प्रति जागृत नहीं रह सकता। मूर्छा व्यक्ति को कहा से कहां धकेल देती है। प्रमाद में साधक हास्य, विनोद, विकथा, क्रीड़ा से समय का दुरुपयोग कर जीवन को. व्यर्थ गंवा देता है। अखाद्य और अपेय के आसेवन से मस्तिष्क मूर्छित हो जाता है। जिससे व्यक्ति स्वाध्याय उन्मुख हो ही नहीं सकता। स्वाध्याय ज्ञान की गंगोत्री अनुभवी पुरुषों ने अपने अनुभवों को लिपिबद्ध कर आने वाली पीढ़ी का महान् उपकार किया है। उस लिपिबद्ध साहित्य के स्वाध्याय के बिना कैसे जाना जा सकता है। स्वाध्याय ही एक ऐसा तत्त्व है जिससे अतीत में हुए अनुभवों को जाना जा सकता है, भविष्य में होने वाले प्रयोगों पर चिंतन-मनन किया जा सकता है। स्वाध्याय की इस परम्परा से ही विज्ञान ने इतनी प्रगति की है। स्वाध्याय केवल ग्रंथों का परायण ही नहीं है, स्वाध्याय सत्य का अनुचिंतन और साक्षात्कार है। स्वाध्याय ज्ञान की गंगोत्री है जो निरन्तर गतिशील हो, ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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