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________________ अस्तित्व की अंतहीन परिक्रमा तो वैयक्तिक है उसे वह अनुभव के स्तर पर अनुभूत कर सकता है। उसे दुहराया जा सकता है। कल्पना जनित समाधि कभी स्थिर नहीं रह सकती। उसकी झलक अस्पष्ट होती है और उसे दुहराया नहीं जा सकता। ऐसे इस जगत् की कोई भी घटना दुहराई नहीं जा सकती। इसका दूसरा पक्ष भी है। कोई घटना नवीन नहीं होती। यहां सब घटनाएं वर्तुल में चल रही हैं। जब घटनाओं का वर्तल है तब कौन घटना नवीन और कौन घटना प्राचीन। इस जगत् में नये का द्योतक नहीं है क्या। प्रातःकाल का समय था। सूरज पूर्व दिशा में ऊपर उठ रहा था। खुले मैदान के पास धर्मशाला थी। जिसमें आंखों के ऑपरेशन का शिविर लगा हुआ था। माताजी के साथ मुझे ऑपरेशन थियेटर में जाना पड़ा। कम्पाउडर रोगी की आंखों में औषध डाल रहा था। पलकें खुली थीं, औषध से मोतिया इकट्ठा हो पत्थर के टुकड़े जैसा हो गया। मेरी आंखें उस टुकड़े पर एकाग्र हो गई, डॉक्टर औजार से ऑपरेशन कर रहा था। पत्थर का सा टुकड़ा बाहर निकालने में वह संलग्न था। मेरी आंखें एकाग्र बन गई। मन स्थिर हो गया। मस्तिष्क विचार-शून्य और चित्त समाधिस्थ हो गया। उस क्षण क्या घटित हुआ वह आज भी स्मृति पटल पर अंकित है। क्या यह भी बेहोशी थी ? होश में गया था या समाधि की कोई झलक थी। सावन का महीना था। आकाश-बादलों से आछन्न था। पवन की ' अनुकूलता से रिमझिम-रिमझिम वर्षा होने लगी। साथियों के साथ मैं वर्षा का मजा ले रहा था। भीगे बदन, गीले कपड़े दो-दो के ग्रुप में एक दूसरे के हाथ को पकड़े "घूमर" का खेल खेल रहे थे। जिसमें घूमा जाता है। घूमर का चक्कर इतना तेज चला कि धरती, आकाश और आस-पास का पूरा वातावरण घूमने लगा। तेज धुमाव में मैं ज्यों ही ठहरा, चित्त शून्य हो गया। शरीर शिथिल, मन शान्त, श्वास मंद मैं ऐसी शान्त समाहित स्थिति में पहुंच गया, तीन घंटे के बाद लौटा। ये आकस्मिक घटनाएं थीं। मेरी चेतना को इन अनुभवों ने झंकृत कर दिया। क्या ये स्थितियां आकस्मिक थीं। इनको दुहराया जा सकता है ? सीढ़ियों की टक्कर और ऑपेरशन की स्थिति में जो घटा वह आकस्मिक अवश्य थी, लेकिन उसमें भी कोई व्यवस्था और नियम अवश्य काम करता होगा, लेकिन दुबारा दोहराया नहीं जा सका। तीसरी घटना का उपयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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