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प्रज्ञा की परिक्रमा निर्विचारता के लिए किया जा सकता है। किसी व्यक्ति को गहरी समाधि में ले जाया सकता है ? प्रश्नचिन्ह मस्तिष्क में जिज्ञासा बन कर उभर रहा था। सभी स्थितियों में शरीर का शिथिलीकरण निश्चित था। शिथिलीकरण समाधि (समाधान) को पूर्व अवस्था है। शिथिलीकरण को साधने कायोत्सर्ग का अभ्यास कर रहा था । कायोत्सर्ग में एक-एक मांसपेशी, कोशिका पर चित्त को एकाग्र कर शिथिलता का सुझाव दे रहा था। शरीर को शव की तरह छोड़ उसमें उभर रही चैतन्य धारा का अनुभव कर रहा था। शरीर पत्थर की तरह कड़ा हुआ और दूसरे क्षण ही शिथिल और हल्का अनुभव होने लगा। शरीर के गहरे शिथिलीकरण से श्वास मंद, विचार शान्त और चित्त समाधिस्थ हो गया। क्या यह भी कोई बेहोशी ट्रांस या समाधि की झलक. थी। गहरे शिथिलीकरण के समय न बेहोशी थी, न ट्रांस था, किन्तु शरीर एक खोल के सदृश, टूटे वृक्ष की डाल की तरह पड़ा था। समाधि की सजगता में अनिर्वचनीय शान्ति और आनन्द का अनुभव हुआ। कायोत्सर्ग की गहराई व्यक्ति को समाहित बना देती है। समाधि की स्थिति में जागरूकता के जो क्षण गुजरे तब पता लगा कि अस्तित्व क्या है? आकांक्षा क्या है ? अस्तित्व की अनुभूति ही समाधि है ? आकांक्षा की पकड़ में आकर ही चित्त परिभ्रमण करता है। समाधि का तात्पर्य है आकांक्षा रहित अस्तित्व में विलीन रहना।
प्रेक्षा की स्थिति में शरीर के एक-एक अणु (प्रदेश) में चैतन्य जागरण, प्रस्फुटित होने लगता है। प्रेक्षा की स्थितियों में घटित समाधि में निरन्तर अस्तित्व की झलक फैलती अनुभव होती है। चेतना किसी विराट अस्तित्व में परिणित हो रही थी। न विचार, न विकार, न अहंकार, न आकांक्षा क्षणप्रतिक्षण उभर रही लहरों से ऐसा लगता था कि अस्तित्व सागर बनता जा रहा है। जहां मैं और तूं का कोई भेद अनुभव नहीं हो रहा था। केवल अस्तित्व की अनुभूति का स्पष्ट आभास था। इसे समाधि ट्रांस या बेहोशी कहें ? कैसे कहूं बेहोशी, होश निरन्तर था। कैसे कहूं ट्रांस ? चित्त जागता था। तब समाधि कहूं ? कैसे कहा जाए समाधि, हर क्षण जीवन्त चैतन्य धारा अतीत को छोड़, वर्तमान का स्पर्श कर, भविष्य से विराम लिए आगे से आगे गतिमान बन रही थी। देखू कहां है-वह सागर ? कहां है उजागर ? कहां है यायावर? जो अस्तित्व की अन्तहीन परिक्रमा कर रहा है।
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